संस्कृत धातुरूप – अदादिगण
संस्कृत व्याकरण में धातुओं का विशेष महत्व है। पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुसार, सभी धातुओं को 10 अलग-अलग गणों (समूहों) में वर्गीकृत किया गया है। इनमें से दूसरा गण है अदादिगण, जो अपनी विशेषताओं और उपयोगिता के कारण महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
अदादिगण का परिचय
अदादिगण का नाम इसकी पहली धातु अद् (अर्थ: खाना) के आधार पर पड़ा है। इस गण में मुख्य रूप से परस्मैपदी धातुएं आती हैं, जो क्रिया का फल अन्य को प्रदान करती हैं। अदादिगण की धातुएं भाषाई संरचना में क्रियाओं के लचीले और व्यवस्थित उपयोग को दर्शाती हैं।
अदादिगण की विशेषताएं:
- इसमें कुल 13 धातुएं हैं।
- यह धातुएं अपने "गुण विकार" (स्वर परिवर्तन) के लिए जानी जाती हैं।
- इनसे बने धातुरूप वर्तमान काल, भूतकाल, और भविष्यकाल में लकारों के अनुसार परिवर्तित होते हैं।
अदादिगण का महत्व
अदादिगण की धातुओं का उपयोग दैनिक जीवन की साधारण क्रियाओं को व्यक्त करने के लिए किया जाता है।
उदाहरण:
- अद् धातु का प्रयोग "खाने" के लिए किया जाता है।
- अस् धातु का उपयोग "होने" को व्यक्त करने के लिए होता है।
ये धातुएं संस्कृत व्याकरण में न केवल व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से बल्कि भाषाई संरचना की वैज्ञानिकता को दर्शाने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
अदादिगण की धातु सूची
नीचे अदादिगण की 13 प्रमुख धातुएं और उनके अर्थ दिए गए हैं:
अदादिगण (द्वितीय गण) में वे धातुएँ आती हैं जो सामान्यतः आत्मनेपदी रूप में प्रयुक्त होती हैं। इन धातुओं के अंत में आदिक प्रत्यय जुड़ता है, जिससे इनका विशिष्ट रूप बनता है। यहाँ अदादिगण की धातुओं की सूची हिंदी अर्थ और उदाहरण के साथ प्रस्तुत की गई है:
| संस्कृत धातु | हिंदी अर्थ | उदाहरण (लट् लकार) |
|---|
| अद् | खाना | सः अदते (वह खाता है)। |
| जन् | उत्पन्न होना | सः जनते (वह उत्पन्न होता है)। |
| मद् | प्रसन्न होना | सः मन्दते (वह प्रसन्न होता है)। |
| भिद् | तोड़ना | सः भिदते (वह तोड़ता है)। |
| विद् | जानना | सः विद्यते (वह जानता है)। |
| कृ | करना | सः कृतते (वह करता है)। |
| सृ | बहना | नदी स्रवते (नदी बहती है)। |
| दृश् | देखना | सः पश्यति (वह देखता है)। |
| यज् | यज्ञ करना | सः यजते (वह यज्ञ करता है)। |
| हृ | हरना | सः हृतते (वह हरता है)। |
| वृ | ढकना | वृक्षः वृणते (वृक्ष ढकता है)। |
| क्षल् | धोना | सः क्षलते (वह धोता है)। |
| दिश् | दिखाना | सः दिशते (वह दिखाता है)। |
| शुभ् | चमकना | दीपः शुभते (दीप चमकता है)। |
| क्षिप् | फेंकना | सः क्षिपते (वह फेंकता है)। |
| कुप् | क्रोधित होना | सः कुप्यते (वह क्रोधित होता है)। |
| रुच् | पसंद करना | सः रुचते (वह पसंद करता है)। |
| क्षम् | सहना | सः क्षमते (वह सहता है)। |
| विश् | निवास करना | सः वसति (वह निवास करता है)। |
| नन्द् | आनंदित होना | सः नन्दते (वह आनंदित होता है)। |
विशेषताएँ:
- अदादिगण की धातुएँ प्रायः आत्मनेपदी होती हैं, अर्थात् इनका क्रिया रूप आत्मनेपदी प्रत्ययों के साथ बनता है।
- इन धातुओं का रूप तीनों पुरुषों (प्रथम, मध्यम, उत्तम) में भिन्न-भिन्न होता है।
- अदादिगण की धातुएँ लट् लकार (वर्तमान काल), लङ्ग् लकार (भूतकाल) और लोट् लकार (आज्ञार्थक) में रूपांतरित होकर संस्कृत वाक्य निर्माण में प्रयुक्त होती हैं।
अदादिगण के लकार रूप
अदादिगण की धातुएं संस्कृत के सभी लकारों में प्रयोग की जाती हैं। उदाहरण:
-
लट् लकार (वर्तमान काल)
- अदति (वह खाता है)
- अस्ति (वह है)
-
लङ् लकार (भूतकाल)
- अडत् (उसने खाया)
- आस्त (वह था)
-
लृट् लकार (भविष्यकाल)
- अदिष्यति (वह खाएगा)
- भविष्यति (वह होगा)
अदादिगण का व्यावहारिक उपयोग
अदादिगण की धातुएं संस्कृत के धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों में बार-बार प्रयोग की गई हैं।
- अद् धातु का उपयोग वेदों और उपनिषदों में "अन्न" से संबंधित प्रार्थनाओं में मिलता है।
- अस् धातु भगवद्गीता में "अस्तित्व" और "परम सत्य" को व्यक्त करने के लिए उपयोग की जाती है।
॥ अथ अदादिगणः ॥
खाना । राक्षस आदियों के खाने के लिये इसका प्रयोग होता है। सूत्रम्- अदिप्रभृतिभ्यः शपः । 2/4/72
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वृत्ति: शप लुक स्यात् । अत्ति अत्तः अदन्ति। अत्मि, अत्थ, अत्या
अद्मि अ अद्म । हिन्दी अर्थ - अदादि गण की धातुओं से परे शप का लोप हो । अत्ति- अद के लट् में तिप आदि आदेश होने पर कर्तरि शप से शप होता है। उसका प्रकृत सूत्र से लोप हो जाता है तब अद् ति दकार को खरि च से तकार होने से रूप सिद्ध होता है। अत्त: इसी प्रकार तस् में सिद्ध होता है। अदन्ति- झि के झकार को अन्त आदेश हो जाने पर रूप बनता अत्सि सिप में थस् और थ में भी दकार को चर तकार होने से अत्थ:, अत्थ रूप होते हैं। अद्मि, अद्वः, अद्मः- मिप, बस और मस् में दकार ही रहता है।
सूत्रम्- लिट्यन्यतस्याम् । 2/4/40
वृत्ति:- अदो घस्लृ वा स्यात् लिटि । जघास। उपधालोपः-
हिन्दी अर्थ - अद् धातु को घस्लृ आदेश विकल्प से हो लिट् परे रहते। घस्लृ का ल इत्संज्ञक है।
जघास घस् आदेश होने पर द्वित्व, अभ्यासकार्य हलादिशेष तथाकुहोश्चः से चवर्ग झकार और उसकी अभ्यासे चर्च से जश् जकार होता है अत उपधायाः से गल के परे रहते उपधा अकार को वृद्धि होती
सूत्रम् - शासि वसि-घसीनां च । 8/3/60
वृत्ति:- इण-कुभ्यां परस्यैषां सस्य षः स्यात् । घस्य चत्त्वम् जक्षतुः, जक्षुः । जघसिथ, जक्षधुः, जक्ष, जघास जघस, जक्षिव, जक्षिम। आदः, आदतुः, आदुः । हिन्दी अर्थ- इण् और कवर्ग से पर शास् (शासन करना), वस् ( रहना) और घस् (खाना) धातुओं के अवयव सकार को षकार हो । जक्षतुः- ज घस् अतुम यहाँ मूर्धन्य षकार होने पर षकार को खरि च में चर ककार होता है क् ष् संयोग में क्ष होकर रूप सिद्ध होता
जक्षुः- इसमें भी पूर्ववत् सिद्धि होती है।
स्पर्धाप्रकाश
जघसिथ में नित्य इद होता है, क्योंकि घस आदेश के लिए और लुङ में ही होने के कारण ताम में प्रयोग होता नहीं, अन यह नाम में नित्य अनिट् नहीं। इसीलिये अजन्तोकारवान् वा यह नियम यहाँ नहीं लगता। कादि नियम से इट हो जाता है। इसी प्रकार जक्षिव और जक्षिम में भी । घस आदेश के अभावपक्ष मे आद, आदतु आद रूप बनते हैं। .
सूत्रम् - इडत्त्यर्तिव्ययतीनाम् । 7/2/66
वृत्ति:- अद, ऋ, व्यञ् एभ्यस्थलो नित्यमिट् स्यात् । आदिध । अत्ता। अत्स्यति । अत्तु-अत्तात्, अत्ताम्, अदन्तु।
हिन्दी अर्थ - अद (खाना) ॠ (जाना) और व्ये (ढकना) धातुओं से परे
थल को नित्य इट् हो। आदि- अद् धातु के थल को धातु के उपदेश में अकारवान् होने से वैकल्पिक इट् प्राप्त था। प्रकृत सूत्र से नित्य होता है। तब आदिथ रूप सिद्ध होता है। आदिव, आदिम व और म में क्रादिनियम से नित्य इट् होकर रूप बनते हैं। अत्ता लुट् में अनिट् होने से इट् नहीं होता, दकार को चर तकार होता है। अत्स्यति यह रूप भी पूर्वोक्त प्रकार से बनता है। अत्तु, अत्तात्, अत्ताम्- इन प्रयोगों में भी शप् के लोप होने पर दकार को तकार रूप सिद्ध होता है।
सूत्रम्- हु-झल्भ्यो हेर्धि । 6/4/101
वृत्ति:- होझलन्तेभ्यश्च हे धिः स्यात् । अद्धि-अत्तात्, अत्तम्, अत्त। अदानि, अदाव, अदाम ।
हिन्दी अर्थ - हु (हवन करना, खाना) और झलन्त धातुओं से परे हि को धि आदेश हो ।
अद्धि- अद् धातु दकारान्त होने से झलन्त है, अतः इससे परे हि कोघि होता है तब रूप सिद्ध होता है।
अदानि, अदाव, अदाम उत्तम में प्रत्ययों कों आडुत्तमस्य पिच
सूत्र से आट् आगम होकर रूप बनते हैं।
सूत्रम् अदः सर्वेषाम् । 7/3/100
वृत्ति:- अदः परस्यापृक्तसार्वधातुकस्य अट् स्यात् सर्वमतेन । आदत, आत्ताम्, आदन | आदः, आत्तम, आत्ता आदम, आद्व, आद्य अद्यात, अद्याताम्, अधुः । अद्यात्, अद्यास्ताम्, अद्याम् ।
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हिन्दी अर्थ - अद धातु से परे अपृक्त सार्वधातुक को अट् आगम हो सब के मत से।
आदत्- आदत यहाँ अद से परे अपृक्त सार्वधातुक त् को अट् आगम हो जायेगा तब आदत रूप बनता है। आदः - मिप् का भी केवल सकार बचा रहता है, अतः अपृक्त होने से इसे भी अट् होकर आद रूप बनता है। आदन्- झि में झ को अन्त आदेश होने से आदन रूप सिद्ध होता है । आदम्- मिप को अम् आदेश होने से आदम् रूप सिद्ध होता है। शेष ताम्, तम, त में चर होता है वस्, मस् में चर नहीं होता। अद्यात् अद्याताम्- विधिलिङ्ग में सार्वधातुक लकार होने से लिङ सलोपो ऽनन्त्यस्य से यासुट् के सकार का लोप हो जाता है। शप के लोप होने से अकार वहाँ नहीं मिलता, अतएव अतो येयः की प्रवृत्ति नहीं मिलती ।
सूत्रम्- लुङ्खनोर्घस्लृ । 2/4/37
वृत्ति:- अदो घस्लृ स्यात् लुङि सनि च। लुदित्वादङ् - अघसत् । आत्स्यत् हिन्दी अर्थ - अद् धातु को घस्लृ आदेश हो लुङ् और सन् परे रहते।
अघसत् - अद् को घस्लृ आदेश होने पर अ घस् लित् इस अवस्था में ऌदित होने से पुषादि द्युतादि-ऌदितः परस्मैपदेषु से लि को अ आदेश होता है । तब यह रूप सिद्ध होता है ।
आत्स्यत्- लृङ् में आट्, तिप्, इकार लोप, स्य प्रत्यय, दकार को चर तकार होकर रूप सिद्ध होता है।
निष्कर्ष
अदादिगण संस्कृत भाषा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी धातुएं न केवल दैनिक जीवन की क्रियाओं को व्यक्त करती हैं, बल्कि संस्कृत के गहन व्याकरणिक नियमों को भी स्पष्ट करती हैं। अदादिगण का अध्ययन भाषा की वैज्ञानिकता, स्पष्टता और लचीलेपन को समझने के लिए आवश्यक है।
इन धातुओं को सीखना न केवल संस्कृत व्याकरण में निपुणता प्राप्त करने में सहायक है, बल्कि यह भाषा की सुंदरता और संरचना को भी उजागर करता है।