भाषाशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अंग' ध्वनिविज्ञान ' है और इसका सम्बन्ध ' शिक्षाशास्त्र ' से है ।
अंग्रेजी में ध्वनिविज्ञान के फोनेटिक्स ' और ' फोनॉलॉजी ' आदि प्रचलित शब्द हैं यहाँ ग्रीक शब्द ' Phone ' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ ' ध्वनि ' है ' टिक्स ' और ' लॉजी ' प्रयोगत : विज्ञान ' के समानार्थी हैं ।
भौतिकी , श्रवणात्मक , ध्वनि विज्ञान , श्रुतिशास्त्र , तरंगीय - ध्वनि विज्ञान , सांवहनिक वध्वनि विज्ञान आदि ।
1. उच्चारण या औच्चारिकी ध्वनि विज्ञान । ( वाग्यत्र की सहायता से उच्चारण स्थान )
2. सांचारिकी या सांचारिक ध्वनि विज्ञान । ( तरंगीय या सांवहनिक ध्वनि विज्ञान )
3. श्रौतिकी या श्रौतिक ध्वनि विज्ञान ।
भाषोत्पत्ति - विषयक सिद्धान्त 'अनुमान ' पर आश्रित है । अतः प्रस्तावित सिद्धान्तों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है ।
इनमें प्रथम दो सिद्धान्तों का सम्बन्ध भाषा की उत्पत्ति ' से है अन्य सिद्धान्तों का सम्बन्ध अर्थ - ध्वनि ' से है ।
भाषा वर्ण विचारः की सबसे छोटी इकाई को वर्ण कहते हैं । वर्गों को अक्षर के नाम से भी जाना जाता है । इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि " वर्णामेव अक्षरः " अर्थात् वर्णों को ही अक्षर कहा जाता है ।
पाणिनि ने वर्णमाला को 14 सूत्रों में प्रस्तुत किया है । वर्ण दो प्रकार के होते हैं : - ( 1 ) स्वर ( 2 ) व्यंजन । संस्कृत वर्णमाला में 46 वर्ण माने हैं ।
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स्वर ( 13 ), व्यंजन ( 33 ) |
• स्वर : -जो वर्ण अन्य वर्ण की सहायता बिना स्वतंत्र रूप से उच्चारित होते हैं , उन्हें स्वर - वर्ण कहते हैं । ये संख्या में 13 होते हैं । यथा- अ , आ , इ आदि । ( अच : स्वराः )
व्यंजन : - जो वर्ण स्वर वर्ण के आश्रय के बिना स्वतंत्र रूप से उच्चारित नहीं हो सकते , उन्हें व्यंजन वर्ण कहते हैं । जैसे- क , ख , ग आदि ।
ह्रस्व स्वर- जिस स्वर के उच्चारण में एक मात्रा का समय लगे उसको ह्रस्व स्वर कहते हैं । ये संख्या में पाँच होते हैं- अ , इ , उ , ऋतथा लु । इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं ।
• दीर्घ स्वर- जिस वर्ण के उच्चारण में दो मात्राओं का समय लगे ठसे दीर्घ स्वर कहते हैं । इनकी संख्या आठ है- आ , ई , ऊ , ऋ , ए , ऐ , ओ तथा औ । अन्तिम चार वर्णों को संयुक्त वर्ण ( ए , ऐ , ओ , औ ) भी कहते हैं क्योंकि ए , ऐ , ओ तथा औ दो स्वरों के मेल से बने हैं जैसे -
अ+इ=ए , अ + ए = ऐ ,
अ + उ = ओ, अ + ओ- औ ।
• प्लुत स्वर- जिस स्वर के उच्चारण में तीन या उससे अधिक मात्राओं का समय लगे उसे प्लुत कहते हैं । जब किसी व्यक्ति को दूर से पुकारते हैं तब सम्बोधन पद के अन्तिम वर्ण को दीर्घ स्वर से अधिक मात्रा का समय लगाकर बोलते हैं । उसे प्लुत स्वर कहते हैं ।
अनुनासिक - जिस स्वर के उच्चारण में नासिका ( नाक ) की सहायता ली जाती है उसे अनुनासिक स्वर कहते हैं , जैसे - अं , एँ ।
व्यंजन ( हल् ) -स्वर रहित व्यंजन को लिखने के लिए वर्ण के नीचे हल् चिह्न ( ् ) लगाते हैं ।
व्यंजन तालिका
क वर्ग - क् ख् ग् घ् ङ्
च वर्ग - च् छ् ज् झ् ञ्
ट वर्ग - ट् ठ् ड् ढ् ण्
त वर्ग - त् थ् द् ध् न्
प वर्ग - प् फ् ब् भ् म्
अन्तःस्थ - य् र् ल् व्
ऊष्म - श् ष् स्
• स्पर्श -
उपर्युक्त ' क् ' से ' म् ' तक के 25 वर्षों को स्पर्श वर्ण कहते हैं । " कादयो मावसाना : स्पर्शाः " अर्थात् क् से म् तक के वर्ण स्पर्श कहलाते हैं । इनके उच्चारण के समय जिह्वा मुख के विभिन्न स्थानों का स्पर्श करती है । प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण- इ , उ , ण , न् और म् को अनुनासिक भी कहा जाता है ।
• अन्तःस्थ - य् , ल् और व् वर्णों को अन्तःस्थ कहते हैं क्योंकि इनकी गणना स्पर्श एवं ऊष्म वर्गों के मध्य की गई है । इन्हें अर्ध स्वर के नाम से भी जाना जाता है ।
- स्पर्श ( क से म् तक ) ,
- अन्तःस्थ - मध्य में गणना के कारण अन्तःस्थ ,
- ऊष्म
अनुस्वार -
इनका उच्चारण संस्कृत में ' न् ' या ' म् ' की तरह होता है । इसे ' न ' या ' म् ' के स्थान पर चिह्न ( ° ) द्वारा लिखा जाता है , यथा - त्यम् = त्वं
विसर्ग ( : ) -
संस्कृत में इसका प्रयोग स्वर के बाद होता है । इसका उच्चारण ' ह ' के समान किया जाता है , यथा - बालकः , रमेशः , गुरुः ।
• संयुक्त व्यंजन-
दो व्यंजनों के संयोग से बने वर्ण को संयुक्त व्यंजन कहते हैं ।
उदाहरणम् - क् + ष् = क्ष् , त् + २् = त्र, ज् + ञ् = ज्ञ
• ध्वनि/वर्ण का एकमात्र साधन ' वाग्यंत्र ' है जिन अवयवों वा अङ्गों की सहायता से भाषा - ध्वनियों का उच्चारण किया जाता है उन्हें वाग्यंत्र , ध्वनियंत्र व उच्चारण अवयव कहा जाता है ।
• ध्वनि के प्रधान अंग -
उच्चारण स्थान व प्रयत्न हैं ।
• स्थान व प्रयत्न के अलावा 'करण' व इन्द्रिय की सहायता से ध्वनि उत्पन्न होती है अत : ध्वनि वर्गीकरण के तीन प्रमुख आधार माने गए हैं-
1.स्थान ,
2 . प्रयत्न ,
3.करण ( इन्द्रिय ) ।
1. स्थान : -
नि : श्वास वायु को जहाँ अवरुद्ध या बाधित करते हैं ये ' स्थान ' कहे जाते हैं । विभिन्न वर्गों व स्वरों के उच्चारण स्थान निम्नलिखित हैं -
( 1 ) कण्ठः - अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः । ( कण्ठ्य- अ , क् , ख् , ग् , घ् , ङ् , ह् )
( 2 ) तालुः - इचुयशानां तालुः । ( तालव्य- इ , च् , छ् , ज् , झ् , ञ् , य् तथा श् )
( 3 ) मूर्धा - ऋटुरषाणां मूर्द्धा । ( मूर्धन्य - ऋ , ट , ठ् , ड , ढ , ण , र , प् )
( 4 ) दन्त - लु तु ल सानां दन्ता । ( दन्त्य- लृ , त् , थ् , द् , ध् , न् , ल् , स् )
( 5 ) ओष्ठ - उपूपध्मानीयानामोष्ठौ । ( ओष्ठ्य - उ , प , फ , ब , भ , म् उपध्मानीय )
( 6 ) नासिका - ञ, म, ङ्, णनानां नासिका च । ( अनुनासिक - ञ् , म , ङ , ण , न् )
( 7 ) कण्ठतालु - एदैतोः कण्ठतालुः । ( कण्ठतालव्य - ए , ऐ )
( 8 ) कण्ठोष्ठ - ओदौतोः कण्ठोष्ठम् । ( कण्ठोष्ठ - ओ , औ )
( 9 ) दन्तोष्ठ - वकारस्य दन्तोष्ठम् । ( दन्तोष्ठ्य - व् )
( 10 ) नासिका - जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् । क , ख ( जिह्वामूलीय )
( 11 ) नासिका - नासिकाऽनुस्वारस्य . ( अनुस्वार )
2. प्रयत्न :-
वर्णो को मूख से उच्चारित होने के लिए जो प्रयास करने पडते हैं उसेे प्रयत्न कहते है । और प्रयत्न के दो भेद है। -
ईस चित्र मे वर्णित हैं :-
1. करण :-
वाग्यत्र के गतिशील होने पर ' ओष्ठ ' , ' जिला , कोमलतालु तथा स्वरतंत्री को ' करण ' कहा जाता है ।
जिह्वा मूल के तीन भेद हैं
( 1 ) अग्र - ( इ, ई, ए ) अग्र स्वर ।
( 2 ) मध्य - ( अ ) मध्य स्वर ।
( 3 ) पश्च ( उ , ऊ , आ ) पश्च स्वर ।
जिह्वा के ऊँचाई के आधार पर स्वरों के चार भेद इस प्रकार हैं
1. संवृत - ( इ, ऊ )
2. अर्ध संवृत - ( ए , ओ )
3. अर्ध - विवृत - ( अ )
4. विवृत ( खुला हुआ ) - ( आ )
• ओष्ठ के भेद -
1 . प्रसृत ,
2. वर्तुल ( वृत्तमुखी ) ,
3. अवृत्ताकार / अर्धवर्तुल ।
1. प्रसृत- ओष्ठ , स्वाभाविक रूप में स्थित रहते हुए खुले रहते हैं । यथा - इ, ई, ए, ऐ ।
2. वर्तुल - ओष्ठों को थोड़ा आगे निकालकर जब गोलाकार किया जाता है । यथा - उ , ऊ , ओ , औ ।
3. अर्धवर्तुल- जब ओष्ठ पूर्ण गोलाकार न होकर अर्ध गोलाकार ही होते हैं । यथा - आ ।
• करणों के जिह्य के आधार पर ' सर डेनियल जोन्स ' ने ' स्वर - त्रिभुज ' का निर्माण किया । जिन्हें ' मानस्वर ' , मेयस्वर , आदर्श स्वर या मानक स्वर भी कहा जाता है । इन स्वर त्रिभुज के 8 भेदों में से चार अग्रस्वर व चार पश्चस्वर हैं।
यहा ईस तरह वर्णमाला व उच्चारण स्थान के तथ्य है ।