शत्रु - सुभाषित - संस्कृत सुभाषित

शत्रु - सुभाषित - संस्कृत सुभाषित

जीस तरह से मीत्र को जानना जरूरी है वैसे ही शत्रुओं को भी जानना बहुत ही जरूरी है । जब तक हम जीवन के किसी भी प्रकार के शत्रुओं को नहीं जान लेते तब तक उन पर विजय प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। और यदि शत्रुओं जान लेते है तो उनको हराना बहोत ही सरल हो जाता है। हमारे शास्त्रो मैं सुभाषितो के माध्यम से हमारे ऋषिओं ने शत्रुओं को पहचानना लगभग बहुत सरल कर दिया है, तो आईए जानते हैं शत्रु सुभाषित । ---

शत्रु - सुभाषित【संस्कृत सुभाषित】[Best sanskrit subhashit]

यहा कुछ शत्रुओं के भेद जानने के लिए शास्त्र एवं नीति ग्रन्थों से लिए संस्कृत सुभाषित दिये गये है ।

-: सुभाषित :- 


अग्निशेषमृणशेषं 
शत्रुशेषं तथैव च ।
पुन: पुन: प्रवर्धेत
तस्माच्शेषं न कारयेत् ।।
  •  हिन्दी अर्थ :-
यहा बहोत अच्छा कहा है अग्नि , ऋण , शत्रु इन को शेष मात्र भी छोड़ना नही चाहिए क्योंकि ये थोड़े से भी बच जाते है तो कांटे के वृक्ष की तरह फिरसे बढ़ जाते है । अतः अग्नि , ऋण , शत्रु इनका मूल से नाश करना चाहिए ।।

-: सुभाषित :- 

लोभमूलानि पापानि
संकटानि तथैव च ।
लोभात्प्रवर्तते वै
रं
अतिलोभात्विनश्यति ।।
  • हिन्दी अर्थ :-
पाप का मूल लोभ है , संकट का मूल भी लोभ है , लोभ के कारण ही शत्रुता होती है और बढ़ती है और अतिलोभ के कारण हि किसीका विनाश होता है।।

क्रोधो नाशयते धैर्य,
क्रोधो नाशयते श्रॄतम्।
क्रोधो नाशयते सर्वं,
नास्ति क्रोधसमो रिपु॥
  • हिन्दी अर्थ :-
क्रोधो के कारण धैर्यका नाश होता है , उसी क्रोधो के कारण स्मृति(बुद्धी) का भी नाश होता है , क्रोधो के कारण सबकुछ नष्ट हो जाता है , क्रोध के समान कोई शत्रु नही है ।।

क: काल: कानि मित्राणि
को देश: को व्ययागमौ ।
कस्याहं का च मे शक्ति:
इति चिन्त्यं मुहुर्मुहु: ।।
  • हिन्दी अर्थ :-
किसी बुद्धिमान व्यक्ति को इन बातों का ध्यान रखकर कार्य करना चाहिए , 1. हमारा समय (काल) कैसा चल रहा है , 2. हमारे मित्र कितने है और कितने शत्रु है , 3. हम किस स्थान पर है किसका प्रदेश है , 4. हमारी आय एवम् व्याय कैसी है अर्थात् परिस्थिति केसी है , 5 . में किस किस का हु , 6. मेरी शक्ति कितनी है  इन बातों का बार बार चिंतन करना चाहिए ।।

उद्धरेदात्मनात्मानं 
नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो 
बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
  • हिन्दी अर्थ :-
हमे स्वयं को ही अपना सच्चा मित्र मानकर खुदका उद्धार करना चाहिए , अपना पतन नही करना चाइए , क्योंकि हमारा पहला मित्र हम ही है और शत्रु भी हम ही है ।।

न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं 
न कश्चित् कस्यचित् रिपु: ।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते 
मित्राणि रिपवस्तथा ।।
  • हिन्दी अर्थ :-
जन्मसे कोई भी किसीका मित्र नही होता और ना ही कोई किसी का शत्रु होता है , हमारे व्यवहार के कारण ही मित्र और शत्रु बनते है ।। 

अमित्रो न विमोक्तव्य: 
कृपणं वह्वपि ब्रावुन्  ।
कृपा न तस्मिन् कर्तव्या 
हन्यादेवापकारिणाम् ।।
  • हिन्दी अर्थ :-
शत्रु को कभी जीवित रखना नही चाहिए , उसकी कितनी भी क्षमा याचना करने पर भी उसे मुक्त नही करना चाहिए , आगे भविष्य में कभी भी वह हानि पहोचा सकता है यह सोच कर उस पर कृपा नही करनी चाहिए ।।

वहेदमित्रं स्कन्धेन
यावत्कालविपर्ययः ।
आगतं समयं वीक्ष्य
भिंद्याद्घटमिवाश्मनि ॥
  • हिन्दी अर्थ :-
शत्रु को तबतक कंधे पर बिठा कर चलना चाहिए जबतक हमारा उल्टा समय हो । जब हमारा योग्य समय लगे तब जैसे घड़े को पत्थर पर पटक कर फोड़ते है बस उसी तरह शत्रु का भी तुरंत नाश करना चाहिए ।।

आशा है कि आपको यह संस्कृत सुभाषीत उपयोगी  हुए होगें ...