परिश्रम - सुभाषित - संस्कृत सुभाषित
9/15/2020 08:55:32 pm
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परिश्रम - सुभाषित - संस्कृत सुभाषित
परिश्रम (महेनत) बहोत ही ताक़तवाला शब्द है । बिना महेनत के किसीको भी सफलता नही मिलती , सफल होने के लिए परिश्रम रूपी तप तो करना ही पड़ता है । पर दिक्कत होती है , की लोग गलत रास्ते पर परिश्रम करते है , यह उस बिना लगाम के घोड़े की तरह हुआ जिसका कोई लक्ष्य ही निर्धारित नही है । तब लक्ष्य को पाना यानी सफल होना कैसे संभव है । इस का उपाय हमारे ऋषियों ने शास्त्रों में सुभाषितों के द्वारा बताया है । जो हमे किस दिशा में महेनत करनी चाहिए सिखाता है ।
तो आइए हम जानते है संस्कृत के परिश्रम सुभाषीत ।
-: सुभाषित :-
आलस्यं हि मनुष्याणांशरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुःकृत्वा यं नावसीदति ।।
- हिन्दी अर्थ :-
यहा नीति कहती है कि मनुष्य के जीवन का उसके शरीर का सबसे बडा रिपु(शत्रु) आलस्य है ओर वैसे ही मनुष्य का सबसे बड़ा बंधु(मित्र ) उद्यम(परिश्रम ) के समान कोई नही है , ओर अन्तमे कहते है कि जो मनुष्य उद्यम (परिश्रम ) करता है वह इस आलस्य को प्राप्त नही करता ।
-: सुभाषित :-
यथा ह्येकेन चक्रेण नरथस्य गतिर्भवेत् |
एवं परुषकारेण विनादैवं न सिद्ध्यति ।।
- हिन्दी अर्थ :-
यहा भाग्य और परिश्रम का भेद बताते हुए कहते है कि जिस तरह से केवल एक चक्र (पहिये) से रथ की गति नही होती अर्थात् रथ आगे नही बढ़ सकता उसी तरह परिश्रम के बिना केवल भाग्य के आधार पर जीवन मे आगे नही बढ़ सकते , अर्थात् जो व्यक्ति केवल भाग्य के भरोसे पर कोई भी कार्य करते है वे कभी सफल नही हो पाते सफल होने के लिए भाग्य के साथ परिश्रम अति आवश्यक होता है ।
उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति,कार्याणि न मनोरथै।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य,प्रविशन्ति मृगाः॥
- हिन्दी अर्थ :-
बहोत से लोग ऐसे होते है जो करते कुछ नही पर बोलते बहोत है और मनमे रथ दौड़ाकर अर्थात् विचारो से बहोत काम करते है पर हकीकत मे कुछ नही उनके लिए यहा कहते है कि उद्यम (परिश्रम)से कार्य सिद्ध होते मनोरथ (मनके विचार)से नही ,
उदाहरण के तौर पर एक सिंह है वह यदि केवल सोते हुए यह सोचे कि उसके मुंह मे हिरण स्वयं चलकर प्रवेश कर रहा है तो इस तरह के मनोरथो से क्या उसकी भूख मिट जाएगी क्या सहिमे कोई हिरण उसके मुंह मे आ जायेगा ? नही इस के लिए उसे अथक परिश्रम करना पड़ेगा हिरण के पीछे बहोत भागना पड़ेगा महेनत करनी पड़ेगी तब जाकर उसे हिरण मिलेगा इसी तरह हमे भी कोई भी कार्य करना है तो उस लिए अथक परिश्रम कि आवश्यकता है ।।
नात्युच्चशिखरो मेरुर्-नातिनीचं रसातलम्।व्यवसायद्वितीयानांनात्यपारो महोदधि:॥
- हिन्दी अर्थ :-
जो मनुष्य उद्यमी(परिश्रमी) है उस व्यक्ति के लिए तो सबकुछ संभव है उस के लिए मेरु पर्वत भी अति उच्च नही है , अति नीच रसातल भी नही है , ओर ना ही महासमुद्र अति विशाल है ।
आरभ्यते नखलु विघ्नभयेन नीचै:
प्रारभ्य विघ्नविहता विस्मरन्ति मध्या: ।
विघ्ने: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति ।।
- हिन्दी अर्थ :-
यहा पर संसार मे तीन प्रकार के मनुष्य की बात कही गई है कहते कि जो मनुष्य भविष्य में आने वाले विघ्नों(कष्टो) के डर से कार्य का आरंभ ही न करे वह अधम(नीच) प्रकार का मनुष्य है , ओर जो मनुष्य कार्य आरंभ तो कर देता है परंतु विघ्नों के आने पर कार्य का त्याग कर देता है वह मध्यम प्रकार के मनुष्य है , ओर जो मनुष्य विघ्नों पुनः पुनः आने पर भी भयभीत हुए बिना उनका सामना करता है और कार्य को न छोड़ते हुए कार्य को सफल बनाता है वह उत्तम प्रकार का मनुस्य है ।।
यो यमर्थं प्रार्थयतेयदर्थं घटतेऽपि च।अवश्यं तदवाप्नोतिन चेच्छ्रान्तो निवर्तते।।
- हिन्दी अर्थ :-
यहा दृढ़ इच्छाशक्ति वाले मनुष्य की बात कही गई है कि जो मनुस्य कुछ पाना चाहता है सफलता पाना चाहता है और उसके लिये घटते(प्रयास ) करता है वह उसे जरूर प्राप्त करता है , नहीतो वह तबतक शांत नही होता जबतक कार्य सिद्ध न हो जाय ।
आरोप्यते शिला शैलेयत्नेन महता यथा ।पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: ।।
- हिन्दी अर्थ :-
यहा कहते है कि किसी बड़े से पत्थर को पर्वत पर चढ़ना बहोत हो मुश्किल होता है बहोत बड़े प्रयत्नों से चढ़ाया जाता है वही उसे गिराना बहोत आसान केवल एक क्षण में ही नीचे गिर जाता है वैसे गुणों को बढ़ाना बहोत मुश्किल कार्य है दोष तो क्षण में आ जाते है ।