विवाह के पूर्व गुण मिलाना क्यों जरूरी है ?

 विवाह के पूर्व ( कुंडली ) गुण मिलाना क्यों जरूरी है ? 

           शादी से पूर्व वरवधू के जन्म नक्षत्रों की स्थिति जन्मकालिका का अध्यन सामान्यतया छत्तीस गुणों की तालीका द्वारा किया जाता है । यदि अट्ठारह या अधिक गुण आपस में मिल जाते है , तो उन्हें विवाह करने की सम्मति मिल जाती है अन्यथा नहीं ।

विवाह के पूर्व ( कुंडली ) गुण मिलाना क्यों जरूरी है ?


 उक्तगुण- मिलान में गुण , भकूट नाड़ी दोष नहीं होना चाहिए । मेलापक ज्योतिषशास्त्र की वह रीति है , जिनके किसी अपरिचित युगल की प्रकृति एवं अभिरूचि की समानता एवं जीवन के विविध पहलुओं में परस्पर पूरकत्व का विचार किया जाता है ।

मेलापक के दो भेद माने गए है - 

नक्षत्र - मेलापक।

ग्रह- मेलापक

   नक्षत्र मेलापक वरवधू की प्रकृति एवं अभिरूचि में सामंजस्य का विचार किया जाता है तथा मेलापक में मंगल , शनि , सूर्य , राहु तथा केतु इन पाप ग्रहों की स्थिति उनके प्रभाववश दोष और अंततोगत्वा वर - वधू में पूरकत्व भाव का विशेषण किया जाता है ।

नक्षत्र - मेलापक के प्रमुख अंग : - 

नक्षत्र - मेलापक में कुल छत्तीस गुणों का अध्ययन किया जाता है , जिन्हें आठ भागों में विभक्त किया गया है यथा -

1. वर्ण , 

2.वश्य , 

3. तारा , 

4. यौनि , 

5. ग्रहमैत्री , 

6. गण , 

7. भकूट , 

8. नाड़ी । 

वर्ण उपयोगिता : - 

       वर्ण कार्यक्षमता व शुभता का द्योतक है । कन्या से वर की कार्यक्षमता अधिक या समान होनी चाहिए , ताकि वर अपने दायित्व का निर्वाह भली प्रकार से कर सके । 

वर्ण चार प्रकार के होते है- 

ब्रह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र ।

    यह निर्धारण जन्म राशि के आधार पर किया जाता है । 

वश्य उपयोगिता : - 

वश्य पांच प्रकार के होते हैं - 

चतुष्पाद , मानव द्विपद , जलचर वनचर एवं कीट । मेष , वृषभ , सिंह , धनु का उत्तरार्द्ध तथा मकर का पूर्वार्द्ध चतुष्पाद संज्ञक हैं । इनमें से सिंह राशि चतुष्पाद होते हुए भी वनचर मानी गई है । मिथुन , कन्या , तुला , धनु का पूर्वार्द्व तथा कुंभ राशि द्विपद संज्ञक मानी गई है । मकर का उत्तरार्द्व , मीन , कर्क राशि जलचर होती है । इनमें कर्क राशि जलचर होते हुए भी कीट मानी गई है । सिंह वनचर होता है । वर - कन्या के वश्य का निर्धारण उसकी राशि से किया जाता है । उक्त पांचो वश्य अपने स्वभाव एवं व्यवहार के कारण इन चार भागों में विभक्त किए गए है- 

वश्य , मित्र , शत्रु एवं भक्ष्य । 


तारा उपयोगिता : -

 तारा को तीन ग्रुप प्राप्त हैं । तारा के शुभाशुभत्व जानने के लिए वर के नक्षत्र से कन्या के जन्म नक्षत्र तक गिरकर उपलब्ध संख्या में नौ का भाग दें । इसी प्रकार कन्या के जन्म नक्षत्र से वर के जन्म नक्षत्र गिनकर नौ का भाग देकर एक आदि शेष के अनुसार उसकी तारा जानी जा सकती है । 

तारा नौ प्रकार की होती है 

जन्म , संवत , विपत , क्षेम , प्रत्यरि , साधक , वध , मित्र एवं अतिमित्र ।

 इन ताराओं के नाम एवं फल दोनों एक समान माने गए हैं । इन ताराओं में से तीन , पांच एवं सातवीं तारा अर्थात विपत प्रत्यरि एवं वध तारा अपने नाम के अनुसार अशुभ प्रभाव के कारण निद्य मानी गई  है।

योनि उपयोगिता : - 

योनि - मेलापक से शांति , समृद्धता व स्थायित्व को जाना जाता है ।

 योनियां चौदह होती है , 

जिनके नाम है- अश्व , गज , मेष , सर्प , मार्जार , मूषक , गो , महीष , व्याध्र , मृग , वानर , नकुल और सिंह । 

      वरवधू की समान योनि होने पर चार गुण , मित्र योनि होने पर तीन गुण , सम योनि के दो गुण , मित्र योनि का गुण और शत्रु योनि के शून्य गुण माने जाते है।

ग्रहमैत्री उपयोगिता : -

 ग्रहों में नैसर्गिक रूप से तीन प्रकार के संबंध होते है , लेकिन वर एवं कन्या की राशि के स्वामी परस्पर जो संबंध बनाते हैं , उन्हें अलग अलग वर्गों में रखा जाता है । ग्रह मैत्री के कुल गुणांक पाचं होते है तथा जब वरवधू दोनों की राशियों के स्वामी ग्रह परस्पर मित्र हों अथवा इन दोनों की राशियों के स्वामी एक ही ग्रह हो , तो दंपती में अतिशय प्रेम होता हैं ।

 गण उपायोगिता : - 

गण तीन होते हैं । 

देव , मनुष्य एवं राक्षस ।

      देव गण में उत्पन्न व्यक्ति उदार , सहनशील , शालीन , भावुक , धैर्य एवं आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है ।

      मनुष्य गण का व्यक्ति चतुर , चैतन्य , स्वाभिमानी , अपने हित का चिंतन व्यवहार कुशल होता हैं । 

      राक्षस गण में उत्पन्न व्यक्ति अत्यधिक साहसी , क्रोधी , स्वार्थी , जीद्दी एवं लापरवाह होता हैं । 

   गण विचार में पूर्ण शुभता के द्योतक छह गुण माने गए है । वर एवं कन्या का गण हो तो छह गुण । वर एंव कन्या का गण एक हो तो पांच गुण । वर का देव एवं कन्या का मनुष्य हो , तो छह गुण । दोनों में से किसी का देव व अन्य राक्षस गण हों , तो एक गुण तथा दोनों से एक का मनुष्य और दूसरे का राक्षस गण हो तो गण शून्य होता है।

भकूट उपयोगिता : - 

भकूट छह प्रकार के होते हैं । भकूट जानने के लिए वर की राशि से कन्या की राशि तक कन्या की राशि से वर की राशि तय गिन लिया जाता हैं । दोनों की राशि एक दूसरे एवं बारहवें हो , तो षडाष्टक भकूट होता हैं । 

नाड़ी उपयोगिता : - 

नाड़ियां तीन होती है । 

आद्य , मध्य एवं अन्त्य । 

     व्यक्ति की नाड़ी जन्म नक्षत्र द्वारा जानी जाती हैं । नक्षत्रों की संख्या सत्ताईस है एवं नाड़ियां तीन हैं , अतः प्रत्येक नाड़ी में नौ - नौ नक्षत्र होते हैं । दो अपरिचित व्यक्तियों की मनस्थिति की जानकारी आदि , मध्य एवं नाड़ियों से की जाती है । वरवधू की एक नाड़ी होना मेलापन मे वर्जित माना जाता है । वर कन्या का भिन्न नाड़ी होने पर आठ गुण तथा एक नाड़ी होने पर शून्य गुण मिलता हैं । 

दोष का परिहार : - 

ज्योतिष में गण दोष एवं नाड़ी दोष को सर्वाधिक महत्व दिया गया है ।

    यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि 36 गुणों की तालिका में ये तीनों 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं । ग्रहमैत्री बहुत महत्तवपूर्ण हैं । यदि राशियों के स्वामी एक हों , तो गण दोष प्रभाव रहित हो जाता है । इसी राशियों के स्वामी यदि एक हों , तो भकुट दोष भी नगण्य हो जाता हैं । नाड़ी दोष को महा दोष माना जाता है , यदि वर एवं कन्या का जन्म नक्षत्र एक ही हो , लेकिन जन्म उसी नक्षत्र में भिन्न - भिन्न चरणे में हुआ हो , तो नाड़ी दोष नहीं रह जाता ।

     यदि वर एंव कन्या का जन्म भिन्न - भिन्न नक्षत्रों में हुआ हो , लेकिन उनकी राशि का स्वामी एक हो , तब नाड़ी दोश निष्फल हो जाता हैं ।