वेद का सम्पूर्ण परिचय:-
वेद का सम्पूर्ण परिचय:-
संस्कृत साहित्य मैं वेदों का स्थान सर्वोपरि है । भारत मे धर्म व्यवस्था वेदों से ही है । और वेद धर्म निरूपण मैं स्वतंत्र प्रमाण हैं, स्मृति इत्यादि उसीका अनुसरण करते है। यदि श्रुति ओर स्मृति की तुलना की जाए तो श्रुति(वेद) ही सर्वोपरि है। ना ही केवल धर्म के मूल के रूप में अपि तु विश्वके सबसे प्राचीन ग्रंथ के रूप में भी वेद ही सर्वश्रेष्ठ है। प्राचीन धर्म , समाज, व्यवस्था आदि का ज्ञान देने में वेद ही सक्षम है ।
मुख्य रूप से वेद के दो प्रकार है १) मंत्ररूप , २) ब्राह्मणरूप । मंत्रसमुदाय ही संहिता शब्द से व्यवहार में आया और ब्राह्मण रूप वेदके भाग रूप संहिताभाग के व्याख्या रूप है। और यही ब्राह्मण भाग यज्ञ स्वरूप को समजाने वाला भाग कहलाया।
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वैदिक-साहित्य का सामान्य परिचय
भारतीय संस्कृति में वेदों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सर्वोच्च है। भारतीय संस्कृति की मुख्य आधारशिला 'वेद' ही हैं। हिन्दुओं के रहन-सहन, आचार-विचार एवं धर्म-कर्म तथा संस्कृति को समझने के लिये वेदों का ज्ञान आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के मूल ग्रन्थ हैं। अपने दिव्य चक्षु के माध्यम से साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों के द्वारा अनूभूत अध्यात्मशास्त्र के तत्वों की विशाल विमल राशि का नाम वेद है। मनु के अनुसार वेद पितरों, देवों का वह सनातन चक्षु है जिसके माध्यम से कालातीत और देशातीत का भी दर्शन सम्भव है।
"पितृदेवमनुष्याणां वेदचक्षुः सनातनम्”- मनुस्मृति ।
वेदों में वर्णित विषयों का स्मृति, पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है। वेदों की व्याख्या उपनिषद्, दर्शन तथा धर्मशास्त्रों में विभिन्न प्रकार से उपलब्ध होती है, जिसमें उपनिषद् तथा दर्शन वेदों की 'आध्यात्मिक' व्याख्या को प्रस्तुत करते हैं। दर्शनों में पूर्व मीमांसा दर्शन मुख्य रूप से वेदों में प्रतिपादित कर्मकाण्ड के विषयों पर ही आधारित है। वेद विश्व के सभी प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में सर्वप्राचीन ग्रन्थ हैं। ऋषियों ने 'पश्यन्ती' तथा 'मध्यमा' वाणी का आश्रय लेकर अपने हृदय में वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था। तथा 'वैखरी' वाणी का आश्रय लेकर अपने शिष्यों और प्रशिष्यों को यह वेदज्ञान दिया।
वेद शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ
वेद शब्द की व्युत्पत्ति ज्ञानार्थक 'विद ज्ञाने' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होती है। इसका अर्थ है - 'ज्ञान' । अतः वेद शब्द का अर्थ होता है - 'ज्ञान की राशि या संग्र सर्वज्ञानमयो हि सःमनुसमृति । पाणिनिव्याकरण की दृष्टि के अनुसार वेद शब्द की व्युत्पत्ति चार धातुओं से विभिन्न अर्थों में होती है ।
1. विद् सत्तायाम् + श्यन् (होना, दिवादि) ।
2 विद् ज्ञाने + शप् लुक् (जानना, अदादि) ।
3. विद् विचारणे + श्रम् (विचारना, रुधादि) ।
4. विद्लृ लाभे + श (प्राप्त करना, तुदादि) । इसके लिए कारिका है
“सत्तायां विद्यते ज्ञाने, वेत्ति विन्ते विचारणे ।
विन्दति विन्दते प्राप्तौ, श्यन्लुक्नम्शेष्विदं क्रमात्” ।।
ऋक्प्रातिशाख्य की व्याख्या में 'विष्णुमित्र' ने वेद का अर्थ किया है।
“बिद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते एभिर्धर्मादिपुरुषार्था इति वेदाः" - बिष्णुमित्र।
अर्थात् जिन ग्रन्थों के द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी पुरुषार्थ चतुष्टय के अस्तित्व का बोध होता है, तथा जिनसे पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति होती है । आचार्य 'सायण' वेद शब्द की व्याख्या करते हैं-
“इष्टप्राप्त्यनिष्ट-परिहारयोरलौकिकम् उपायं यो ग्रन्थो वेदयति, स वेदः”- (तैत्तिरीय संहिता)
अर्थात् जो ग्रन्थ इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण का अलौकिक उपाय बताता है, उसे वेद कहते हैं।
चार वेदो के नाम क्या हे :-
(१) ऋग्वेद।
(२) यजुर्वेद।
(३) सामवेद।
(४) अथर्ववेद।
वेद शब्द का शाब्दिक अर्थ और विवेचन:-
यहा ' बहवृक्प्रातिशाक्यम् ' में वेद के विषय मे यह कहा है कि
" विद्यन्ते धर्मादयः पुरुषार्था यैस्ते वेदाः"
अर्थात् धर्म, अर्थ, काम , मोक्ष इन पुरुषार्थ जिससे है वह वेद है ।
एक अन्य प्रचलित व्याख्या है के ---
" अपौरुषेयं वाक्यं वेद "
अर्थात् जो वाक्य किसी पुरुष से नही कहा है यानी अपौरुषेय है वैसा वाक्य वेद है।
'भाष्य भूमिका' मैं वेद की व्याख्या इस प्रकार से है ---
"इष्टप्राप्तयनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो वेदयति स वेद इति "
अर्थात् जो प्रिय है उसकी प्राप्ति ओर जो अप्रिय है उसका परिहार करने का लौकिक उपाय जो बताता है वह वेद है।
यही वेद - " वेदत्रयी " के पद से व्यायवहार मे बोला जाता है , वेदरचना के तीन प्रकार के कारण त्रयी एसा कहा जाता हैं। जो पद्यमयी है वह ऋक् , जो गद्यमयी है वह यजुुः और जो गान मयी है वह साम ईस तरह से जैैैमिनि के मत से वेदत्रयी हैै।
वेदों के अर्थ में प्रयुक्त मुख्य शब्द
वेदों के अर्थ में श्रुति, निगम, आगम, त्रयी, छन्दस् आम्नाय, स्वाध्याय इन शब्दों का भी प्रयोग होता है ।
1. श्रुति- वेदों को गुरु शिष्य परंपरा से श्रवण के द्वारा सुरक्षित रखे जाने पर श्रुति कहा गया है ।
निगम का अर्थ सार्थक या अर्थबोधक है । वेदों को
2. निगम- साभिप्राय, सुसंगत और गंभीर अर्थ बताने के लिये 'निगम' कहा जाता है।
3. आगम- आगम शब्द का प्रयोग वेद और शास्त्र दोनों के लिए होता
4. त्रयी - त्रयी शब्द का प्रयोग वेदों के लिए होता है । त्रयी का अर्थ है - तीन वेद, ऋक्, यजु और साम वेद। इसके अन्तर्गत चारों वेदों को रखा गया है।
५. छन्दस्- छन्दस् शब्द 'छदि संवरणे' चुरादिगणी धातु से बनता है। इसका अर्थ है 'ढकना या आच्छादित करना' । चारों वेदों लिए 'छन्दस्' शब्द का प्रयोग होता है। पाणिनि ने “बहुलं छन्दसि”(अष्टा.2.4.39, 73,76) सूत्रों के द्वारा वेदों को छन्दस् कहा है। यास्क ने छन्दस शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए निरुक्त में 'छन्दांसि छादनात्' कहा है।
6. आम्नाय - आम्नाय शब्द 'ना अभ्यासे' भ्वादिगणी धातु से बनता है। यह वेदों के प्रतिदिन अभ्यास या स्वाध्याय पर बल देता है । दण्डी ने 'दशकुमारचरित में वेदों के लिए आम्नाय का प्रयोग करते हुए कहा है- अधीती चतुर्षु आम्नायेषु - (दण्डी)। अर्थात् चारों वेदों का ज्ञाता ।
7. स्वाध्याय - स्वाध्याय शब्द 'स्व' अर्थात् 'आत्मा' के विषय में मनन चिन्तन तथा प्रतिदिन अभ्यास पर बल देता है । शतपथ ब्राह्मण में वेदों के लिए स्वाध्याय शब्द का प्रयोग है । “स्वाध्यायोऽध्येतव्यः” अर्थात् वेदों करना चाहिए । उपनिषदों में भी वेदो स्वाध्याय शब्द का प्रयोग है-
'स्वाध्ययप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्' (तैत्ति उप 1.11.1)
अर्थात् वेदों के अध्ययन और प्रचार में प्रमाद न करे ।
वैदिक साहित्य का विभाजन
वैदिक साहित्य को सुविधा की दृष्टि से चार भागों में बाँटा गया है
(1) वैदिक संहिताएँ,
(4) उपनिषद्,
वैदिक संहिताएँ
वेदों की चार संहिताएँ हैं
1. ऋग्वेद संहिता,
2. यजुर्वेद संहिता,
3. सामवेद संहिता
4. अथर्ववेद संहिता ।
व्याकरण के अनुसार संहिता का अर्थ है “पर: संनिकर्षः संहिता"(अष्टा.1.4.109) पदों का संधि आदि के द्वारा समन्वित रूप संहिता कहा जाता है । इस दृष्टि से मंत्रभाग को संहिता कहते हैं ।
संहिताओं के ऋत्विक्
यज्ञ के चार ऋत्विज -
1. होता,
2. अध्वर्यु
3. उद्गाता
4. ब्रह्मा ।
1. होता - यह यज्ञ में ऋग्वेद की ऋचाओं का पाठ करता है, अतएब ऋग्वेद को 'होतृवेद' भी कहा जाता हैं । ऐसी देवस्तुति वाली ऋचाओं का परिभाषिक नाम "शस्त्र" है। लक्षण- "अप्रगीत-मत्र-साध्या स्तुतिः शस्त्रम्" अर्थात् गानरहित स्तुतिपरक मन्त्र।
2. अध्वर्यु - यजुर्वेद के मंत्रों का पाठ करता है। यही यज्ञ भी करता है और यज्ञ में घृत आदि की आहुति देता है ।
3. उद्गाता- यह सामवेद के मन्त्रों का पाठ करता है, तथा देवस्तुति में मन्त्रों का गान करता है।
4. ब्रह्मा ब्रह्मा यज्ञ का संचालन करता है, वही यज्ञ का अधिष्ठाता और निर्देशक होता है यह चतुर्वेदवित् होता है। त्रुटियों के संशोधन के कारण इसको यज्ञ का भिषज, वैद्य कहा जाता है। ।
ऋग्वेद के एक मंत्र में चारों ऋत्विजों के कर्मों का निर्देश है -
“ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान्, गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु ।
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः”। (ऋग्. 10.71.11)
वैदिक वाङ्मय का द्विविध विभाजन
वेदों में वर्णित विषय की दृष्टि से समस्त वैदिक वाङ्मय को दो भागों में बाँटा गया है
1. कर्मकाण्ड वेद, ब्राह्मण ।
2. ज्ञानकांड- आरण्यक, उपनिषद।
1. कर्मकाण्ड- 'वेदों' और 'ब्राह्मण ग्रन्थों' को “कर्मकाण्ड” के अन्तर्गत रखा जाता है, क्योंकि इनमें विविध यज्ञों के कर्मकाण्ड की पूरी प्रक्रिया दी गयी है। वेदों में यज्ञीय कर्मकाण्ड से संबद्ध मंत्र हैं और ब्राह्मण ग्रन्थों उनकी विस्तृत व्याख्या है।
2. ज्ञानकांड- "ज्ञानकांड" के अन्तर्गत 'आरण्यक ग्रन्थ' और 'उपनिषद' हैं । आरण्यक ग्रन्थों में यज्ञिय क्रियाकलाप की आध्यात्मिक एवं दार्शनिक तत्त्वों की समीक्षा की गयी है। इनमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, मोक्ष आदि का वर्णन है । अतएव आरण्यक और उपनिषदों को ज्ञानकांड कहा जाता है ।
वेदाङ्ग
वेदों के ज्ञान के लिए सहायक ग्रन्थों को वेदाङ्ग कहा गया है । ये वेदों के व्याकरण, यज्ञों के कालनिर्धारण, शब्दों के निर्वचन, मंत्रों की पद्यात्मक रचना, यज्ञीय क्रियाकलाप का सांगोपांग विवेचन एवं मंत्रों के उच्चारण आदि विषयों से संबद्ध हैं।
वेद के कितने अंग है?
- शिक्षा वेद का अङ्ग
- कल्प वेद का अङ्ग
- व्याकरण वेद का अङ्ग
- निरुक्त वेद का अंग
- छंद वेद का अङ्ग
- ज्योतिष वेद का अंग
"शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिषं तथा ।
कल्पश्चेति षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः” ।।
ये वेदांग सामान्यतया सूत्रशैली में लिखे गए है ।
वैदिक पाठ
वेदपाठ दो प्रकार के होते हैं।
1. प्रकृति पाठ
पदपाठ (रावण)
क्रमपाठ (बाभ्रव्य)
संहितापाठ (भगवान)
2. विकृति पाठ
(आठप्रकार)
प्रकृति पाठ
1. संहिता पाठ- इसमें मंत्र अपने मूल रूप में रहता है। 'त्रिर्भुज' संहितापाठ "आर्षपाठ" कहलाता है।
2. पदपाठ- इसमें मंत्र के प्रत्येक पद को पृथक् करके पढ़ा जाता है। यदि कोई संधि है तो उस संधि को तोड़ दिया जाता है ।
पदपाठकर्ता ऋषि
- ‘ऋग्वेद' 'शाकल' शाखा - शाकल्य ऋषि, और रावण ।
- यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा - आत्रेय ।
- सामवेदीय कौथुम शाखा - गार्ग्यः ।
3. क्रमपाठ- इसमें पदों का यह क्रम रहता है कख, खग, गघ ।
विकृति पाठ/अष्ट विकृतियां
वेद के मंत्रों के उच्चारण तथा उनकी सुरक्षा लिए अनेक उपाय अपनाए गए थे। इन उपायों को विकृतियाँ कहते थे। इनमें मंत्रों के पदों को घुमा-फिरा कर अनेक प्रकार से उच्चारण किया जाता था। ये विकृतियाँ आठ हैं
- 1. जटा-पाठ
- 2. माला
- 3. शिखा
- 4. रेखा
- 5. ध्वज
- 6. दण्ड
- 7. रथ
- 8. घन
"जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः ।
अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वा महर्षिभिः” ।
इनमें घनपाठ सबसे बड़ा और कठिन होता है। 'घनपाठ' में प्रथम पद की आवृत्ति (5) बार होती है।
वैदिक छन्दों के भेद- 1. पादाक्षर, 2. अक्षर।
वंशमण्डल
द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक 'वंशमण्डल' कहते है। इसका दूसरा नाम 'परिवार मण्डल' है। ये इस प्रकार से हैं" गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ ।
वेदों की विभिन्न व्याख्या पद्धतियां
(1) यास्क- यास्क के अनुसार मंत्रों के तीन प्रकार के अर्थ होते
- 1. आधिभौतिक (प्राकृतिक),
- 2. आधिदैविक (देवविशेष से संबद्ध),
- 3. आध्यात्मिक (परमात्मा या जीवात्मा से संबद्ध) |
मुख्य रूप से मंत्रों का प्रतिपाद्य एक परमात्मा ही है । विभिन्न गुणों और कर्मों के आधार पर उसके ही अन्य देवतावाचक नाम हैं। वेदों के परंपरागत अर्थ का ज्ञान आवश्यक है। परंपरागत अर्थ जानने वाले को 'पारोवर्यवित्' कहते थे। "परोवर्यवित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवति"- (नि.1.16 ) यास्क की व्याख्या पद्धति 'वैज्ञानिक' है ।
(2) आचार्य सायण- वेदों की व्याख्या करने वाले आचार्यों में आचार्यसायण का स्थान अग्रगण्य है। वे अकेले ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने सभी वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों आदि की भी व्याख्या की है। उन्होंने परम्परागत शैली को अपनाया है। तथा यज्ञ-प्रक्रिया को सर्वत्र प्रधानता दी है। वे वेदों में इतिहास मानते हैं। पाश्चात्त्य विद्वान "प्रो. रुडोल्फ रोठ” ने सायण की बहुत आलोचना की है। लौकिक इतिहास मानने के कारण स्वामी दयानन्द जी और कई लोगों ने दाष निकाले हैं ।
परन्तु मैक्समूलर, विल्सन, गेल्डनर आदि विद्वान् सायण के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं और मानते हैं कि सायण के भाष्य के आधार पर ही वैदिक वाङ्मय में उनकी गति हो सकी है। वस्तुतः पाश्चात्त्य जगत् को वेदों का ज्ञान देने वाले आचार्य सायण ही हैं।
(3) स्वामी दयानन्द सरस्वती - महर्षि दयानन्द आर्यसमाज के संस्थापक हैं। ये आधुनिक युग में वेदों के पुनरुद्धारक माने जाते हैं। उन्होंने नैरुक्त-प्रक्रिया का आश्रय लेकर वेदों की नई व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की संपूर्ण संस्कृत और हिन्दी में व्याख्या की है तथा ऋग्वेद की व्याख्या मंडल 7 के 80 सूक्त तक ही कर सके।
प्रमुख भाष्यकार एवं ग्रन्थ -
वेदों पर विदेशी विद्वानों की व्याख्याएं एवं ग्रन्थ
- मैक्समूलर - Vedic Hymns, History of the Ancient Sanskrit Literature.
- ओल्डेनबर्ग,थॉमस Vedic Hymns
- पीटर्सन- Hymns from the Rigveda.
- ब्लूमफील्ड- द अथर्ववेदा एण्ड गोपथ ब्राह्मण,
- पीटर पीटर्सन ऋग्वेद के स्तोत्र, -
- रॉथ और बाटलिंग- 'संस्कृत और जर्मन महाकोष'
- ग्रासमान 'ऋग्वैदिक कोष'
- हिले ब्रान्ट - 'वैदिक डिक्शनरी'
- ह्रिटनी संस्कृत ग्रामर,
- मैकडॉनल / कीथ (Vedic Index) वैदिक कोषों को दो भागों में विभक्त किया।
- मैकडानल 'वैदिक ग्रामर', 'वैदिक ग्रामर फॉर स्टूडेन्टस' संस्कृत ग्रामर फॉर स्टूडेन्टस, A Vedic reader for students
- मैकडानल (वैदिक मैथोलॉजी/वैदिक देवशास्त्र)
- ब्लूमफील्ड - (Vedic Concrodonace ) वैदिक मन्त्र महासूची (वैदिक वाक्यकोश ) ।
- कीथ- 'रिलेजन एण्ड फिलॉस्फी ऑफ दा वेदाज एण्ड उपनिषदा'
- मैक्समूलर 'हिस्ट्री ऑफ द एनसियेन्ट संस्कृत लिटरेचर'
- मैक्समूलर 'व्हट कैन इट टीच अस वेबर- 'हिस्ट्री ऑफ द इण्डियन लिट्रेचर' ।
- विनटरनित्स- A History of Indian Literature.
- रूडाल्फ रॉथ (Vedic Literature And History ) -
वेदों पर भारतीय विद्वानों की व्याख्याएं एवं ग्रन्थ
- कात्यायन - ऋक्सर्वानुक्रमणिका
- दयानन्द - ऋग्वेदभाष्यभूमिका
- मधुसूदन ओझा - वैदिक विज्ञान,
- गिरधरशर्माचतुर्वेदी- भारतीय संस्कृति
- द्याद्विवेद - नीतिमञ्जरी
- गोविन्द स्वामी - बौद्धायनीय धर्म विवरण (ऐतरेय ब्रा.)
- वेद रहस्य - अरविन्द
- यज्ञतत्वप्रकाश - चिन्नस्वामी,
- शतपथब्राह्मण - याज्ञवल्क्य
- डॉ. आनन्द कुमार शास्त्री - 'A New Approach to the Vedas'
- बालगंगाधर तिलक Arctic home in the vedas, Orion.
- डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल Vision in Long Darkness Thousand syllabled speech, Vedic Lectures.
- गुरुदत्त विद्यार्थी- The Terminology of the vedas, Hymns to the Mystic Fire.
- योगी अरविन्द घोष - The Secret of the vedas,
- डॉ. सत्यप्रकाश - Founders of Sciences in the Ancient India.
- डॉ. आनन्द कुमार स्वामी- A New Approach of the Vedas.
- विष्णुकुमार वर्मा - वैदिक सृष्टि उत्पत्तिरहस्य (Big Bang Theory) महाविस्फोट
- डॉ.पी.एल. भार्गव - Rigvaidic Geography of india, India in the vedic age
- N.N.Law- Age of the Rigveda.
- आर. सी. मजूमदार- Vedic Age.
- डॉ. रामगोपाल - Indian of the vedic kalpsootras.
- भारतीय कृष्णतीर्थ जगद्गुरु- Vedic Mathmatic.
- डॉ. दांडेकर- Vedic Bibiliography
- डॉ. मङ्गलदेवशास्त्री "ऐतरेयारण्यक-पर्यालोचनम्।
- लुई रेनु- (आधुनिक वैदिक व्याकरण)
- सत्यव्रत सामश्रमी- (सामवेदीय विद्वान), निरुक्तालोचनम्, ऐतरेयालोचनम्।
वेदों का महत्त्व
अनेक दृष्टियों से वेदों को महत्त्वपूर्ण माना गया है।' संकेतरूप में कुछ तथ्य दिए जा रहे हैं
धार्मिक महत्त्व
वेद आर्यधर्म की आधारशिला हैं । धर्म के मूलतत्त्वों को जानने के एकमात्र साधन वेद हैं। वेदोऽखिलो धर्ममूलम् । मनु.2.6 मनु ने वेदों को सारे ज्ञानों का आधार मानकर उन्हें 'सर्वज्ञानमय' कहा है, अर्थात् वेदों में सभी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान के सूत्र विद्यमान हैं ।
“यः कश्चित् कस्यचिद् धर्मो, मनुना परिकीर्तितः ।
स सर्वोऽभिहितो वेदे, सर्वज्ञानमयो हि सः” ।। (मनु. 2.7)
महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में ब्राह्मण का अनिवार्य कर्तव्य बताया है कि वह निःस्वार्थभाव से वेदांङ्गों के सहित वेदों का अध्ययन करे ।" ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च” । (महा. आह्निक 1.) मनु ने वेदाध्ययन पर इतना अधिक बल दिया है कि ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन ही परम तप है । जो वेदाध्ययन न करके अन्य शास्त्रों में रुचि रखता है वह इस जन्म में ही सपरिवार शूद्र की कोटि में है -
वेदमेव सदाऽभ्यस्येत् तपस्तप्यन् द्विजोत्तमः ।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते ।। (मनु. 2.166)
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ।। (मनु. 2.168)
सांस्कृतिक महत्त्व-
वेद भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत हैं । भारतीय संस्कृति का यथार्थ ज्ञान वेदों और वैदिक वाङ्मय से ही प्राप्त होता है । प्राचीन समय में वस्तुओं के नाम आदि तथा मानव के कर्तव्यों का निर्धारण वेदों से ही किया गया था ।
सर्वेषां तु स नामानि, कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ, पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।। (मनु. 1.21 )
वेदों के प्रमुख विषय
" चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्याः "
अर्थात् वेद चार है अपने अङ्ग ओर रहस्यो के साथ ।
Introduction of veda in sanskrit
संस्कृतसाहित्ये वेदानां स्थानं सर्वोपरि वर्तते । भारते धर्मव्यवस्था वेदा यत्तैव । वेदो धर्मनिरूपणे स्वतन्त्रभावेन प्रमाणम् , स्मृत्यादयस्तु तन्मूलकतया । श्रुतिस्मृत्योविरोधे श्रुतिरेव गरीयसी । न केवलं धर्ममूलतयैव वेदाः समादृताः , अपि तु विश्वस्मिन् सर्वप्राचीनग्रन्थतयाऽपि । प्राचीनानि धर्मसमाज - व्यवहार प्रभृतीनि वस्तुजातानि बोधयितुं श्रुतय एव क्षमन्ते ।