वेद के कितने अंग है?

 वेद के कितने अंग है?

वेद के अध्ययन के बारेमे पतञ्जलिजीने कहा जाता है कि -

 : " ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडंगो वेदोंध्येयोंज्ञेयश्च " 
 ( पस्पशालिके )

अर्थात् छह ( 6 ) अंगों के साथ वेद का अध्ययन ओर ज्ञान लेना चाहिए । इससे यह तो स्पष्ट हो गया के वेद के ( 6 ) छह अंग है ।UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस

वेदाङ्ग का अर्थ

वेदाङ्ग का अर्थ (वेदस्य अंगानि) वेद के अंग है । अंग का अर्थ है। वे उपकारक तत्त्व जिनसे वस्तु के स्वरूप का बोध होता है । “अंग्यन्ते ज्ञायन्ते एभिरिति अंगानि” ।

How-many-parts-of-vedas

वेदांगों के नाम और उनकी संख्या
"शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिषं तथा । 
कल्पश्चेति षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः” ।।

वेद के छह अंग यथा -

1) शिक्षा ।
2) छंद ।
3) कल्प ।
4) निरुक्त ।
5) व्याकरण  ।
6) ज्योतिष ।

महर्षि पाणिनि के अनुसार छंद शास्त्र वेद के पैर के स्वरूप है , कल्प शास्त्र हाथ के स्वरूप है , ज्योतिष शास्त्र नेत्र अर्थात चक्षु के रूप है , निरुक्त शास्त्र श्रोत्र अर्थात कान के स्वरूप है , शिक्षा शास्त्र नासिका (नाक) के स्वरूप है , ओर व्याकरण शास्त्र को वेद का मुख बताया गया है । जिस तरह इन अंगों के सिवा किसीका शरीर पूर्ण नही होता वेसे है इन छह अंगों के बिना वेद पूर्ण नही होता ।।

ये वेदांग सामान्यतया सूत्रशैली में लिखे गए हैं। पाणिनीय शिक्षा में इन 6 वेदांगों का वेद-पुरुष के 6 अंगों के रूप में वर्णन है । जैसे छन्द वेदपुरुष के पैर हैं, कल्प हाथ हैं, ज्योतिष नेत्र हैं, निरुक्त कान हैं, शिक्षा नाक है और व्याकरण मुख है ।

“छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते । 
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥ 
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् । 
तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ॥
(पाणिनीय शिक्षा 41-42)

 वेदांगों का सर्वप्रथम उल्लेख मुण्डक उपनिषद् में (अपरा विद्या) के अन्तर्गत चार वेदों के नाम के बाद हुआ है।' तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषम् इति । (मुण्डक उप, 1.1.5 )

संस्कृते वेदाङ्गानि यथा 

 वेदस्य षड् अङ्गानि , यथोक्तं पाणिनिना स्वशिक्षायाम् 
 छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्ती कल्पोऽथ पठ्यते ।
 ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।। 
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।
 तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ॥ ' पा ० शि ० ४१-४२ । 
पतञ्जलिनाऽप्युक्तम् - ' ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च । 
( पस्पशालिके )