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वेदों का रचना काल

विद्वानों के मत अनुसार वेदों का रचना काल
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विद्वानों के मत अनुसार वेदों का रचना काल :-

प्राचीन भारतीय विद्वानलोग वेद को अपौरुषेय माना है, उनके मत से वेद के रचना काल का विचार निरर्थक है । परंतु पाश्चात्य विद्वानों के मत से यथा बुद्धि अनुसार वेद के रचनाकाल का निर्धारण करते है। वही भारतीय विद्वान भी अपने मत प्रकट करते है । यहा इस विषय पर आधारित कुछ विद्वानों के विचार वा मत प्रकट कीये है । 

वेदों का रचनाकाल निर्धारण वैदिक साहित्येतिहास की एक जटिल समस्या है। विभिन्न विद्वानों ने भाषा, रचनाशैली, धर्म एवं दर्शन, भूगर्भशास्त्र, ज्योतिष, उत्खनन में प्राप्त सामग्री, अभिलेख आदि के आधार पर वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने का प्रयास किया है, किन्तु इनसे अभी तक कोई सर्वमान्य रचनाकाल निर्धारित नहीं हो पाया है। इसका कारण यही है कि सबका किसी न किसी मान्यता के साथ पूर्वाग्रह है। 

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18वीं शती के अन्त तक भारतीय विद्वानों की यह धारणा थी कि वेद अपौरुषेय है, अर्थात किसी मनुष्य की रचना नहीं है। संहिताओं, ब्राह्मणों, दार्शनिक ग्रन्थों, पुराणों तथा अन्य परवर्ती साहित्य में अनेक उद्धरण मिलते हैं जिनमें वेद के अपौरुषेयत्व का कथन मिलता है। वेद भाष्यकारों की भी परम्परा वेद कोअपौरुषेय ही मानती रही। इस प्रकार वेद के अपौरुषेयत्व की विद्वानों के द्वारा वेदाध्ययन का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया गया, यह धारणा प्रतिष्ठित होने लगी कि वेद अपौरुषेय नहीं, मानव ऋषियों की रचना है, अतएव उनके कालनिर्धारण की सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। फलस्वरूप, अनेक पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा इस दिशा में प्रयास किया गया।

Vaidik rachanakal , rigved ka samay

 वैदिक आर्य संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है, इस तथ्य को चूँकि पाश्चात्य मानसिकता अंगीकार न कर सकी, इसलिये वेदों का रचनाकाल ईसा से सहस्त्राब्दियों पूर्व मानना उनके लिये सम्भव नहीं था, क्योंकि विश्व की अन्य संस्कृतियों की सत्ता इतने सुदूरकाल तक प्रमाणित नहीं हो सकती थी, यद्यपि उन्होंने इतना अवश्य स्वीकार किया कि वेद विश्व का प्रचीनतम साहित्य है। इस प्रकार वेद विश्व का प्राचीनतम वाड्मय है इस विषय में भारतीय तथा पाश्चात्य सभी विद्वान् एकमत हैं, वैमत्य केवल इस बात में है कि इसकी प्राचीनता कालावधि में कहाँ रखी जाय। वेद के रचनाकाल निर्धारण की दिशा में अब तक विद्वानों ने जो कार्य किये हैं तथा एतद्विषयक अपने मत स्थापित किये है उनका यहाँ संक्षेप में उल्लेख किया गया है।

१ ) मैक्समूलर का वेद विषयक मत :-

वैदिक वाड्मय के निश्चित कालनिर्धारण की दिशा में मैक्समूलर ने सर्वप्रथम प्रयास किया था, इसलिये सभी विद्वानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हो गया। प्रारम्भ में अधिकांश विद्वानों ने उसके इस मत को प्रामाणिक माना। बाद में कुछ ही ऐसे विद्वान थे जो मैक्समूलर के समर्थक बने रहे। अधिकांश ने अपनी धारणा बदल ली और उसके मत की काफ़ी आलोचना की।

मैक्समूलर ने गौतम बुद्ध के आविर्भाव का अपना आधार माना है। बुद्ध ने वैदिकी हिंसा का खंडन किया है, अतः वैदिक काल बुद्ध के जन्म से पूर्व होना चाहिए। इस आधार पर उन्होंने वैदिक काल को चार भागों में विभक्त किया है

(क) 1200 ई.पू. से 1000 ई.पू.। यह छन्द काल है। इसमें निविद आदि स्फुट वैदिक मन्त्रों की रचनाएँ हुईं ।

(ख) 1000 ई.पू. से 800 ई.पू.। यह मन्त्र काल है । इसमें वैदिक संहिताओं की रचना हुई और उनका संकलन हुआ।

(ग) 800 ई.पू. से 600 ई.पू. । यह ब्राह्मणकाल है। इसमें ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई ।

(घ) 600 ई.पू. से 400 ई.पू. यह सूत्रकाल है। इसमें श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों आदि की रचना हुई ।

कुछ समय तक यह मत अत्यन्त प्रचलित रहा, किन्तु बाद में स्वयं मैक्समूलर ने इस मत को अमान्य कर दिया। 1400 ई.पू. के बोगाज़कोई के शिलालेख की प्राप्ति के बाद यह मत सर्वथा निरस्त हो गया ।

२) ए. बेबर

ए. बेबर जर्मन के विद्वान हैं इनका कथन है "वेदों का समय निश्चित नहीं किया जा सकता । वे उस तिथि के बने हुए हैं जहाँ तक पहुँचने के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नहीं है। वर्तमान प्रमाण हम लोगों को उस समय के उन्नत शिखर तक पहुँचाने में असमर्थ हैं"। प्रो. वेबर कहते हैं कि "वेदों के समय को कम से कम 1200 ई.पू. या 1500 ई.पू. के बाद का कथमपि स्वीकार नहीं किया जा सकता" । प्रो. वेबर ने अपनी पुस्तक "History of indian literature" में यहाँ तक लिख दिया है कि वेदों का काल निर्धारण के लिए प्रयत्न करना सर्वथा बेकार है "Any such of attempt of defining the relic antiquity is absolutely fruitless" .

३) जैकोबी

प्रसिद्ध जर्मन वैदिक विद्वान् श्री याकोबी ने भी ज्योतिष को आधार माना है। उन्होंने ध्रुव तारा को अपना लक्ष्य बनाया है विवाह संस्कार में 'ध्रुवं पश्य' विधि है। ध्रुव तारा भी अपने स्थान से पीछे हटता है । उस आधार पर विचार करके उन्होंने ऋग्वेद का समय (4500-2500 ई.पू.) माना है ।

४ ) डॉ. अविनाश चंद्रदास का मत :-

 इन महानुभाव ने वेदों में निर्दिष्ट अनेक भूगर्भ शास्त्रीय तत्व विशेष से आर्यावर्त की चारो दिशाओ , चारो समुद्रों की स्थिति को आधार करके गणना द्वारा वेद का समय 25000 संवत्सर पूर्व मानते है । और इस मत को इन्होंने " ऋग्वेदिक इंडिया " नामक पुस्तक में प्रतिपादित किया है।

3) शंकर बालकृष्ण दिक्षित के मतसे :-

वैदिक संहिताओं मैं नक्षत्र निर्देशक बहोत से वर्णन मिलते हैं।

शतपथ ब्राह्मण मैं लिखा है कि -

' एक द्वे त्रीणि चत्वारि वा अन्यानि नक्षत्राणि , अर्थता एव भूयिष्ठा यत् कृत्तिकास्तद् भूमानमेव एतदुपैति , तस्मात्कृत्तिकास्वादधीत । एताह वै प्राच्या दिशो न च्यवन्ते , सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्या दिशश्च्यवन्ते । ' 

( शतपथ ०२।१२ ) 
यहा कहते है कि शतपथब्राह्मण के रचना के समय पर कृत्तिका नियमानुसार पूर्व दिशामे उदितथा, अभी कृतिका पूर्वसे ईशान ओर उत्तर के बिंदु पर उदित होता है । 
दीक्षित महोदय की इस गणना के अनुसार इस तरह की ग्रह स्थिति 3000 ई.पू. हो रही है, इसलिए वही काल शतपथ का निर्माण काल है। तैतरीय संहिता शतपथ से प्राचीन है, ओर ऋग्वेद तैत्तरीय संहिता से भी प्राचीन है, अतः  ऋग्वेद का काल 3500 ई.पू. है । ओर अभी के समय अनुसार 5500 वर्ष पूर्व ऋग्वेद की प्राचीनता है।

५ ) बाल गंगाधर तिलक के मतसे वेदरचना का काल :- 

बालगंगाधर तिलक महोदय ने बहोत ही अच्छी तरह से ज्योतिषीय गणना ओर बहोत चिंतन करकर वैदिक काल को चार विभागों में बाटा है।
1. अदितिकाल :- 6000 ई.पू. से 4000 ई.पू. तक, इस काल मे उपास्य देवताओ के नाम, गुण, चरित आदि का बोध हो ऐसी गद्य ओर पद्य मय मंत्रो की रचना हुई जो यज्ञ में प्रयोजित होते है।
2. मृगशिर काल :- 4000 ई.पू. से 2500 ई.पू. तक, इस काल मे ऋग्वेदके मंत्रो का प्रणयन हुआ।
3. कृत्तिका काल :- 2500 ई.पू. से 1400 ई.पू. तक, इस काल मे शतपथब्राह्मण, तैत्तिरीय संहिता का प्रणयन हुआ।
4. अंतिम काल :- 1400 ई.पू. से 500 ई.पू. तक, इस काल मे श्रौतसूत्र , गृह्यसूत्र, दर्शनसूत्र आदि ग्रंथों की रचना हुई । और इनके विरोध के रूप में बौद्ध धर्म का उदय हुआ। 

अभी के शोधकर्ताओं के शोध के फल स्वरूप तिलकमहोदय के मत का पुष्टिकरण दिख रहा है । 1907 ई. वर्ष में  
' डॉ. हूगो विलकर ' महाशय ने अभी के   " टर्की " देश मे एक शिलालेख प्राप्त किया है, उस शिलालेख से पता चलता है कि वहा पश्चिम - एशिया के वहां टर्की देश मे दिनोमें से किसी प्राचीन जाती का निवास होगा । वहां एक जाति का नाम 'हित्तीति' ओर दूसरी का नाम 'मितानी' था। इन दोनों जातिके राजाओ ने किसी विवाद के निवारण हेतु संधि की थी । उस संधि मैं दोनों पक्षो को संधिके रक्षण हेतु देवताओं के नाम बताने थे , तब वहां 'मितानी' जातिके देवताओ के नाम मित्र, वरुण, इंद्र थे । यह देवता आर्यो के है। इसीलिए प्रतीत होता है कि आर्य ही कुछ वहां भी बसे होंगे। 
इस शिलालेख का समय 1400 ई.पू. है। इसीलिए वैदिक सभ्यता का उदय 1400 ई. पूर्वका मानते है । 
वस्तुतः यह सब अभी निर्णीत समय नही है । केवल आशा के रूप में ही है।।

एम. विण्टरनित्स

अपने इतिहास में विन्टरनित्स ने सभी मतों की विस्तृत आलोचना के बाद अपना समन्वयात्मक मत दिया है कि वैदिक काल 2500 ई.पू. से 500 ई.पू. तक माना जा सकता है । इस प्रकार ऋग्वेद का समय 2500 ई.पू. है ।

भारतीय परम्परागत विचार

(1) श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती 

आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों आदि के सन्दर्भों के द्वारा प्रतिपादित किया है कि वेदों का उद्भव परमात्मा से सृष्टि के प्रारम्भ में हुआ। उसने अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद को प्रकट किया। उससे ही अथर्ववेद भी प्रकट हुआ।

(2) श्री अविनाशचन्द्र दास

 श्री दास ने ऋग्वेद में प्राप्त भूगोल एवं भूगर्भ- संबन्धी साक्ष्य के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल 25 हजार वर्ष ई. पूर्व माना है । ऋग्वेद के एक मंत्र में वर्णन है कि सरस्वती नदी पर्वत (हिमालय) से निकलकर समुद्र में मिलती है। पुरातत्त्व की गणना के अनुसार यह समुद्र राजस्थान में था। अब उस सरस्वती नदी और राजस्थान के समुद्र का लोप हो गया है । यह घटना 25 हजार वर्ष ई. पू. की है। उस समय दोनों की सत्ता थी । अतः ऋग्वेद इससे पूर्व बन चुका था । -

(3) श्री शंकर वालकृष्ण दीक्षित 

श्री दीक्षित ने उर्युक्त रूप से 'शतपथ ब्राह्मण' का समय 2500 ई.पू. मानकर चारों वेदों की रचना के लिए 1000 वर्ष का समय मानकर ऋग्वेद का रचनाकाल 3500 ई.पू. माना है ।

प्रमुख विद्वानों के अनुसार वेदों का काल

मत प्रतिपादक

आधार 

रचनाकाल

दयानन्द सरस्वती 

वेद-मंत्र 

सृष्टि का प्रारम्भ 

दीनानाथशास्त्रीचुलेट 

ज्योतिष 

3 लाख वर्ष पूर्व 

अविनाशचन्द्र दास 

भूगर्भ, भूगोल, सरस्वती नदी 

25000 ई.पू. 

नारायणभवनरावपावगी 

भूगर्भ ज्योतिष 

7000 ई.पू.

बालगंगाधर तिलक

ज्योतिष, (वसन्तसम्पात) 

6000 ई.पू. 4000 ई.पू. 

डॉ. आर. जी भंडारकर 

वेदमंत्र 

6000 ई.पू. 

शकरबालकृष्ण दीक्षित 

ज्योतिष 

3500 ई.पू. 

एच. याकोबी 

ज्योतिष ध्रुव तारा 

4500-2500 ई.पू.

विन्टरनित्स 

मितानीशिलालेख 

2500-500 ई.पू. 

वेबर 

गौतमबुद्ध अविर्भाव 

1500-1200 ई.पू. 

मैक्समूलर

बौद्धसाहित्य 

छन्दकाल- 1200, मत्रकाल1000, ब्राह्मणकाल-800, सूत्रकाल- 600 ई.पू.

निष्कर्ष - 4000-1000 ई.पू. वेदों का रचना काल माना गया है।


इन्हें भी देखें :-
ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्ववेद

संस्कृते वेदानां रचनायाः कालः  

प्राचीना भारतीया विद्वांसो वेदानपौरुषेयान् मन्यन्ते , तेषां मते वेदरचना कालविचारो निरर्थको दुरर्थकश्च । पाश्चात्त्या विद्वांसो यथाबुद्धिवैभवं वेदरच नाकालं निर्धारयन्ति , पाश्चात्त्यविचारसरणिविदो भारतीया अपि तेनैव मार्गेण वेदकालं निर्णेतुं यतन्ते । अत्र तद्विषयका कतिचन विचाराः प्रस्तूयन्ते ।
 

( १ ) मैक्समूलरमतम् :-

    मैक्समूलरमहोदयस्य मतेन ऋग्वेदस्य रचना ११५० ई ० पू ० समीपे जाता । बुद्धधर्मोदयात् प्रागेव च ब्राह्मणग्रन्था अपि व्यरच्यन्त । बुद्धेन ब्राह्मणग्रन्थेषु विवेचितानामेव यागविधीनां कट्वी आलोचना क्रियते स्म , अपि चोपनिषत्समर्थित कतिपयतत्त्वजातमात्मसात् क्रियते स्म ' अतो बुद्धात् पूर्वतना ( ५०० ई ० पू ० ) एव ब्राह्मणोपनिषद्भागाः सम्भवन्ति । वैदिकसाहित्ये चत्वारि युगानि - छन्दोयगम् मन्त्रयुगम् , ब्राह्मणयुगम् , सूत्रयुगञ्च । प्रत्येकयुगविकासे तेन वर्षशतद्वयं कालः कल्पितः , तदनुसारेण बुद्धात् ६०० वर्षतः पूर्व छन्दोयुगस्यास्तित्वं समायाति । अतः ऋग्वेदस्य रचना ११५० ई ० पू ० समायात् पश्चात्कालिको न सम्भवतीति सम्प्रति ऋग्वेदस्य जातस्य ३२०० वर्षाणि जातानीति कथयितुं शक्यमिति तदाशयः । 
    मैक्समूलरमहोदयेनायं कालः सम्भाव्यरूपेणोक्तो न तु निश्वयरूपेण , परं तदनुसारिणः पाश्चात्त्यास्तदीयैरेव तर्क : कालममुं निश्चयरूपेण कथयितुं प्रवृत्ताः ।
 

( २ ) डॉ ० अविनाशचन्द्रदासमतम्

    अयं महानुभावः वेदे निर्दिष्टानि अनेकानि भूगर्भशास्त्रीयतत्त्वानि विशेषतः आर्यावर्त्ततश्चतुदिक्षु चतुःसमुद्रीस्थितिमाधारी कृत्य गणनाद्वारा वेदस्य समयं २५ सहस्रसंवत्सरपूर्व मन्यते । इदमीयं मतम् ' ऋग्वेदिक इण्डिया ' ( Rigvedic India ) नामके पुस्तके व्यक्ततयाऽनेन प्रतिपादितम् । 

( ३ ) वेदस्थितज्यौतिषतत्त्वाधारं मतम्

 भारते षड् ऋतवो भवन्ति । अमी ऋतवः सूर्यसंक्रमणनिमित्तकाः इदमपि प्रसिद्धं यत् प्राचीनकालादधुनापर्यन्तममी ऋतवः पश्चात्सर्पन्ति , अर्थात् पूर्व यत्र नक्षत्रे यस्यारुदयो जायते स्म सम्प्रति स एव स्ततः पूर्ववतिनि नक्षत्रान्तरे उदितो भवति । पुराकाले वसन्तो वर्षादिरभवत् , अत एव तस्य प्रशस्ततया भगवद्विभूतिभाव उक्तो गीतायां - ' ऋतूनां कुसुमाकरः ' इति । सम्प्रति वसन्त सम्पातः मीनसङ्क्रान्तिकालादारभते , मीनसङ्क्रान्तिश्च पूर्वभाद्रपदनक्षत्रस्य चतुर्थचरणे भवति । सेयं स्थिति क्षत्राणां क्रमशः पश्चात्सर्पणेनोत्पन्ना । पूर्व कदाचिद् वसन्तसम्पातः उतरभाद्रपद - रेवती - अश्विनो - भरणी - कृत्तिका - मृग- शिरःप्रभृतिषु नक्षत्रेष्वासीत् , ततः पश्चात्सर्पन्नयं वसन्तसम्पातः साम्प्रतिकी स्थितिमनुप्रपन्नः ।
    ज्योतिर्विदः सूर्यस्य संक्रमणवृतं २७ नक्षत्रेषु विभजन्ति , पूर्ण संक्रमण वृत्तम् ३६० अंशानामस्ति । तत् प्रत्येक नक्षत्रम् ३६० + २७ = १३३ अंशानां चापं निर्माति । संक्रमणबिन्दुश्च ७२ वर्षेषु एकमशं विहायापरमंशं प्रसर्पति । एवम् एकस्मानक्षत्रात् संक्रमणबिन्दुः परं नक्षत्रं याति , तत्र ७२४१३३ = ९ ७२ वर्षात्मकः कालो लगति । सम्प्रति वसन्तसम्पातः पूर्वभाद्रपदनक्षत्रस्य चतुर्थ चरणे भवति , यदा चायं कृत्तिकानक्षत्रे भवति स्म ततो वर्तमानस्थितेः प्राप्तये ४३ नक्षत्राणि लक्षितानि , यदि एकत्र नक्षत्रे लखनीय ९ ७२ वर्षात्मकलापेक्षा तदा ४६ नक्षत्रातिक्रमे ९ ७२४४४३७४ वर्षात्मकः कालोऽवश्यमपेक्षितः स्यात् । तदेवं वेदोक्तज्योतिषतत्त्वानुसारेण वेदानां २५०० ई ० पू ० पूर्वकालि कता प्रतीता भवति ।
 

( ४ ) शङ्करबालकृष्णदीक्षितमतम् 

वैदिकीषु संहिताषु नक्षत्रनिर्देशकानि बहूनि वर्णनानि प्राप्यन्ते । शतपथ ब्राह्मणे लिखितम्--
     ' एक द्वे त्रीणि चत्वारि वा अन्यानि नक्षत्राणि , अर्थता एव भूयिष्ठा यत् कृत्तिकास्तद् भूमानमेव एतदुपैति , तस्मात्कृत्तिकास्वादधीत । एताह वै प्राच्या दिशो न च्यवन्ते , सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्या दिशश्च्यवन्ते । ' 
( शतपथ ०२।१२ ) 
एतेनेदमुक्तं भवति यत् शतपथब्राह्मणरचनाकाले कृत्तिका नियमेन प्राच्या मासन् , सम्प्रत्येताः कृत्तिकाः पूर्वदिग्बिन्दुतः ईषदुत्तरस्यां दिशि उदयं यान्ति । दीक्षितमहोदयस्य गणनया तादृशी ग्रहस्थितिः ३००० ई ० पू ० काले सम्भवति । अतः स एव शतपथस्य निर्माण - कालः । तैत्तिरीयसंहिता शतपथात् प्राचीना , ऋग्वेदश्च तैत्तिरीयसंहिताया अपि प्राचीनः , ऋग्वेदः ३५०० ई ० पू ० काले प्रणीत इति सम्भवति । एवञ्च सम्प्रति ऋग्वेदः ५५०० वर्षप्राचीन इति निश्चीयते । 

( ५ ) बालगङ्गाधरतिलकमतम्

 तिलकस्य मते वेदकाल इतोऽपि किञ्चित् प्राचीनः सिद्धयति । तेन हि मृगशिरोनक्षत्रे वसन्तसम्पातस्य साधकानि बहूनि वेदवाक्यानि संगृहीतानि ।
तैत्तिरीयसंहितायामुच्यते फाल्गुनी पूर्णिमा वर्षादिः । तिलकमतं इदमनुकूलं यतो यदि पूर्णचन्द्रः फल्गुन्यां तदा सूर्येण मृगशिरसि भवितव्यमेव , तदेव च वसन्त सम्पातो भावी । 
    मृगशिरसि वसन्तसम्पातस्य कालः पूर्वोक्तकृत्तिकाकालात् प्रायः २००० वर्ष पूर्व सम्भवति , यतो मृगशिरसः कृत्तिकापर्यन्तं पश्चात् सर्पणे सहस्रद्वयाब्दी अपेक्ष्यते । एकस्मान्नक्षत्रान्नक्षत्रान्तरोपसर्पणे ९ ७० वर्षाणि लगन्तीति पूर्वमुक्त मेव । अतो येषु मन्त्रेषु मृगशिरसि वसन्तसम्पातस्योल्लेखो विद्यते ते मन्त्राः ४५०० ई ० पू ० समयतोऽर्वाचीना न सम्भवन्ति । तिलकेन मृगशिरसोऽपि पूर्व पुनर्वसो वसन्तसम्पातस्य बोधकानि वेदवचनानि प्राप्तानि , ततस्ततोऽपि पूर्वतनः कालो वेदमन्त्राणां साधयितुं शक्यते । सर्वमिदं विचार्य तिलकमहोदयेन वैदिककालश्चतुर्धा विभक्तः
 १. अदितिकालः –६००० ई ० पूर्वतः ४००० पू ० पर्यन्तम् । अत्र काले उपास्यदेवनामगुणमुख्यचरितादिबोधका गद्यपद्यमया मन्त्रा रचिताः ये यज्ञेषु प्रयुज्यन्ते स्म । 
२. मृगशिरः कालः -४००० ई ० पूर्वतः २५०० ई ० पू ० पर्यन्तम् । अत्रैव महत्त्वशालिनि काले भूयांसो ऋग्वेदमन्त्रा व्यरच्यन्त । 
३. कृत्तिकाकालः -२५०० ई ० पूर्वतः १४०० ई ० पू ० पर्यन्तम् । अस्मिन् काले शतपथब्राह्मणतैत्तिरीयसंहितयोः प्रणयनमजायत ।
 ४. अन्तिमः कालः -१४०० ई ० पूर्वतः ५०० ई ० पू ० पर्यन्तम् । अत्र काले श्रौतसूत्रगृह्यसूत्रदर्शनसूत्रादीनामार्षग्रन्यानां रचना जाता तानेव विरोद्ध प्रतिक्रियारूपेण बौद्धधर्म उदितो बभूव । 
     सम्प्रतिकानि शोधकार्यफलान्यपि तिलकमहोदयस्य मतं पुष्टं कुर्वन्ति । १ ९ ०७ ई ० वर्षे ' डा ० हूगो विकलर ' महाशयेन वर्तमान टर्की देशे एकः शिला लेखोऽधिगतः । तेन शिलालेखेन ज्ञायते यत् पश्चिम - एशियावयवभूते तत्र टर्की देशे द्वयोः कयोश्चित् प्राचीनजात्योनिवास आसीत् । तत्र एकस्या जाते म ' हित्तिति ' इति अपरस्याश्च ' मितानि ' इत्यासीत् । अनयोर्द्वयोरपि जात्यो राजानी पारस्परिककलहस्य निवारणाय सन्धि चक्रतुः । तत्र सन्धौ द्वावपि पक्षी सन्धि संरक्षकतया देवनामानि निर्दिष्टवन्तौ । तत्र ' मितानि ' जातेदवेषु मित्रः वरुणः , इन्द्रः , नासत्यौ च निर्दिष्टाः । अमी देवा आर्याणामेव । अतः प्रतीयते यत् आर्या एव केचन तत्राप्यवसन् ।
     अस्य शिलालेखस्य समयः १४०० ई ० पू ० विद्यते । आर्याः प्राग् आर्यावर्ते स्वधर्म देवांश्च स्थिरयित्वेव क्वचन मता भवेयुः । अतः १४०० ई ० पूर्वतः प्रागेव वैदिकसभ्यताया उदयो मन्तव्यः , तदानींतनश्चैव वेदः सम्भवति । इत्थं वेदानां
काल : २००० ई ० पू ० सिद्धयति । अयं कालनिश्चयो तिलकस्य मत सन्निकृष्ट करोति , अतोऽत्र वयमपि श्रद्धालवः । वस्तुतस्तु सर्वमपीदं सम्प्रत्यवधि न निणर्णीतम् , केवलमाशास्यते यत् यदा
कदाचिदपि जाते निश्चो वेदाः प्रोदोरितकाल तोऽपि पूर्वकालिका एव सेत्स्यन्तीति ।



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नाम : संस्कृत ज्ञान समूह(Ashish joshi) स्थान: थरा , बनासकांठा ,गुजरात , भारत | कार्य : अध्ययन , अध्यापन/ यजन , याजन / आदान , प्रदानं । योग्यता : शास्त्री(.B.A) , शिक्षाशास्त्री(B.ED), आचार्य(M. A) , contact on whatsapp : 9662941910

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