वेद का अंग ज्योतिष

ज्योतिष वेद का अंग (आंख) :-

वैदिक साहित्य में वेद के छह अङ्ग बताये गए हैं। वह ईस प्रकार है - शिक्षा कल्प निरुक्त छंद ज्योतिष व्याकरण । 

यह ज्योतिष शास्त्र काल विज्ञापक शास्त्र है। मुहूर्त देखकर किये जाने वाले यज्ञादि क्रिया विशेष फल की इच्छा से होते है , ओर उस मुहूर्त को जानने के लिए ज्योतिष शास्त्र उपयुक्त है, इसलिए ज्योतिष शास्त्र का वेद के अंग के रूप में स्वीकार हुआ। ऐसा आर्च ज्योतिष में कहा गया है -- 

" वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः,

 कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः ।

तस्मादिदं कालविधानशास्त्र,

 यो ज्यौतिषं वेद स-वेद यज्ञान् ।।"

 ( आर्चज्योतिषम् ३६


Ved ka anga jyotish

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ज्योतिष का अर्थ है -

 'ज्योतिर्विज्ञान' । सूर्य, चन्द्र ग्रह, नक्षत्र आदि आकाशीय पदार्थों की गणना ज्योतिर्मय पदार्थों में है । इनसे संबद्ध विज्ञान को ज्योतिष या ज्योतिर्विज्ञान (Astronomy) कहते हैं। 'लगध' ने इसको 'ज्योतिषाम अयनम् (श्लोक 3) अर्थात् नक्षत्रों आदि की गति का विवेचन करने वाला शास्त्र कहा है । लगध ने ज्योतिष के लिए एक दूसरा शब्द दिया है 'कालज्ञानशास्त्र / कालविज्ञान शास्त्र' ( कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि, श्लोक 2) । इसमें कालचक्र, संवत्सरचक्र तथा कालसंबन्धी तथ्यों का विवेचन किया जाता हैं। इस प्रकार ज्योतिष में कालविज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान दोनों का समन्वय है ।

ज्योतिष का महत्त्व

वेदों में यज्ञ का सर्वाधिक महत्त्व है । यज्ञों के लिए समय निर्धारित हैं। वेदाङ्ग ज्योतिष में कहा गया है कि जिस प्रकार मोर की शिखा और सर्पों की मणि सिर के सर्वोपरि स्थान में हैं, उसी प्रकार गणित (गणितज्योतिष) सारे वेदांगों में मूर्धन्य है ।

“यथा शिखा मयूराणां, नागानां मणयो यथा ।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां, गणितं मूर्धनिस्थितम् ।।

पाणिनि ने इसे विराट् पुरुष के नेत्र का स्थान दिया हैं, क्योंकि यह यज्ञादि के लिए मार्गदर्शन करता है ।

‘ज्योतिषामयनं चक्षुः' । (पा. शिक्षा 41 )

( वेदांग याजुष ज्योतिष)

वेदों से सम्बन्धित अनुक्रमणियां -

अनुक्रमणियां = वेदों की रक्षा के लिये प्रमुख उपाय । : शौनककृत (5) अनुक्रमणियां हैं

(1) आर्षानुक्रमणी

(2) छन्दोऽनुक्रमणी

(3) देवतानुक्रमणी 

(4) अनुवाक अनुक्रमणी

(5) सूक्तानुक्रमणी (ऋग्वेद) ।

शौनक की अन्य कृतियां

( 1 ) ऋग्विधान (ऋक्षण), 

(2) बृहद्देवता (8 अध्याय), 

(3) चरणव्यूह।

चरणव्यूहग्रन्थ का विषय है वेदशाखापर्यालोचन। 

कात्यायन कृत अनुक्रमणियां - सर्वानुक्रमणी (5 अध्याय- ऋग्वेद), शुक्ल यजु सर्वानुक्रमसूत्र (माध्यन्दिनी शाखा )

माधवभट्ट कृत अनुक्रमणियां - ऋग्वेदानुक्रमणी (ऋग्वेद) 

सामवेद की अनुक्रमणियां - सामवेद में श्रौतयाग से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जो सामवेद की अनुक्रमणी का कार्य सिद्ध करते हैं । कल्पानुपदसूत्र उपग्रन्थसूत्र, अनुपदसूत्र निदानसूत्र, उपनिदानसूत्र, पंचविधानसूत्र, लघु ऋक्तत्रसंग्रह, सामसप्त लक्षण। -

अथर्ववेद की अनुक्रमणी- वृहत्सर्वानुक्रमणी।

अथर्ववेद के ग्रन्थ 

(1) पञ्चपटलिका 

(2) दन्त्योष्टविधि । 

अथर्ववेदीय महत्वपूर्ण ग्रन्थ कौशिक सूत्र, वैतानसूत्र, नक्षत्रकल्प चरणव्यूह मूत्र, शौनक आंगिरस कल्प, शान्तिकल्प।

नीतिमंजरी- द्याद्विवेद, इसमें ऋग्वेद के आख्यानों का संकलन है ।

      चारो वेदों के ज्योतिष शास्त्र भी अलग अलग है , उनमे साम वेद का ज्योतिष शास्त्र उपलब्ध नहीं है, अन्य तीन वेदों के ज्योतिष शास्त्र उपलब्ध है।--

(१) ऋग्वेद का ज्योतिष :-

आर्चज्योतिष, षट्त्रिंशत्पद्यात्मकम् ।

(२) यजुर्वेदस्य ज्योतिषम् -

 याजुषज्यौतिषम् , ऊनचत्वारिंशत्पद्यात्मकम् । 

(३) अथर्ववेदस्य ज्योतिषम् -

 आथर्वणज्योतिषम् , द्विषष्ट्युत्तरशतपद्या त्मकम् । 

  इन तीनो ज्योतिष के प्रणेता " लगध "

नामक आचार्य है । वहा यजुर्वेदीय -

" याजुष ज्योतिष " के दो भाष्य मिलते है , एक है समाकर रचित प्राचीनम्, दूसरा सुधाकर द्विवेदी कृत नवीनं। इस जोतिष शास्त्र के तीन सोपान या विभाग है जिन्हें तीन स्कन्ध कहे जाते है, कहा है --

" सिद्धान्तसंहिताहोरा, 

रूपं स्कन्धत्रयात्मकम् । 

  वेदस्य निर्मलं चक्षु,

  ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ।।"

ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कन्ध :- 

(१) सिद्धांत

(२) संहिता

(3) होरा ।

इनके प्रवर्तक में अठारह महर्षियों के नाम प्रसिद्ध है -- 

" सूर्यः पितामहो व्यासो 

वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः । 

कश्यपो नारदो गर्गो 

मरीचिमनुरङ्गिराः ।। 

लोमशः पुलिशश्चैव  
च्यवनो यवनो भृगुः । 
शौनकोऽष्टादशश्चैते  
ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः ।। "

प्रसिद्ध कुछ ज्योतिष ग्रंथकार :-

१) आर्यभट्ट :- 

५०० ई. - आर्यभट्टीयम् ।

२) वराहमिहिर :-

६०० ई. - पंच सिद्धान्तिका, बृहज्जातक, लघुजातक ।

३) ब्रह्मगुप्त :- 
७०० ई. - ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः , खण्डखाद्य , ध्यानग्रह ।
४) लल्ल :-
 ७०० ई. - रत्नकोशः , धीवृद्धियन्त्र । 
५) उत्पलाचार्य :-
१००० ई. - वाराहमिहिर के ग्रंथो की टीका ।
६) श्रीपति :-
 ११०० ई . - सिद्धान्तशेखर - धीकोटिकरण - रत्नमाला जातकपद्धतयः ।
७) भोजदेव :- 
११०० ई. - राजमृगाङ्ककरण ।
८) भास्कराचार्य -
 १११४-११४० ई. - सिद्धान्तशिरोमणिः , करणकुतूहल । 
९) केशव :-
 १५०० ई. - ग्रहकौतुक - मुहूर्ततत्त्व - जातकपद्धति  । 
१०) गणेश :-
 १५५० ई. - ग्रहलाघवम् । 
११) कमलाकर :-
 १६५० ई. - सिद्धान्ततत्त्वविवेकः । 

इनके अलावा भी बहोत से ग्रंथ जैसे -

लघुपाराशरी , 

बृहत्पाराशरी , 

जैमिनिसूत्रम् , 

भृगुः संहिता , 

मीनराजजातकप्रभृतय आषंग्रन्थाः ।

 लघुजातकम् , 

बृहज्जातकम् , 

सारावलिः , 

जातकाभरणम् , 

जातकपद्धतिः , 

जातकसारः , 

जातकालङ्कारः , 

पद्म जातकम् , 

होरारत्नम् , 

होराकौस्तुभम् आदि ग्रंथ इस शास्त्र को समृद्ध करते है ।

ओर साथ ही केरल में प्रतिपादित ग्रंथ  1 प्रश्न ग्रंथ, 2 रमल ग्रंथ, 3 ताजिक ग्रंथ जैसे ग्रंथ इस शास्त्र के पोषक है ।

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  ज्यौतिषम् वेदस्य अंगम् :- 
    
    इदं कालविज्ञापकं शास्त्रम् । मुहूर्त शोधयित्वा क्रियमाणा यज्ञादिक्रिया विशेषाः फलाय कल्पन्ते , नान्यथा , तन्महूर्तज्ञानञ्च ज्यौतिषायत्तमतोऽस्य ज्योतिषशास्त्रस्य वेदाङ्गत्वं स्वीकृतम् । उक्तञ्चायमर्थ आर्चज्योतिषे , यथा --
' वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः
 कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः ।
 तस्मादिदं कालविधानशास्त्र यो ज्यौतिषं वेद स वेद यज्ञान् ।।'
 ( आर्चज्योतिषम् ३६ )
   चतुर्णामपि वेदानां पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्रमासीत् , तेषु सामवेदस्य ज्योतिषशास्त्र नोपलभ्यते , त्रयाणामितरेषां वेदानां ज्यौतिषाण्यवाप्यन्ते ।
 ( १ ) ऋग्वेदस्य ज्योतिषम् - आचंज्यौतिषम् , षट्त्रिंशत्पद्यात्मकम् । ( २ )यजुर्वेदस्य ज्योतिषम् - याजुषज्यौतिषम् , ऊनचत्वारिंशत्पद्यात्मकम् । 
( ३ ) अथर्ववेदस्य ज्योतिषम् - आथर्वणज्योतिषम् , द्विषष्ट्युत्तरशतपद्या त्मकम् । 
  
  एतेषां त्रयाणामपि ज्यौतिषाणां प्रणेता लगधो नामाचार्यः । तत्र याजुष ज्योतिषस्य प्रामाणिक भाष्यद्वयमपि प्राप्यते , एक सोमाकरविरचितं प्राचीनम्, द्वितीयं सुधाकरद्विवेदिकृतं नवोनम् । एतस्य ज्योतिषशास्त्रस्य त्रीणि वानि , तदिदं शास्त्रं त्रिस्कन्धमुच्यते । 
 
एतत्प्रवर्तका अष्टादश महर्षयः |

 प्रसिद्धाः कतिचन ज्योतिषग्रन्थकाराः 
नामानि  -  कालाः   -   ग्रन्थाः  
१. आर्यभटः ५०० ई ० आर्यभटीयम्
 २. वराहमिहिरः ६०० ई ० पञ्चसिद्धान्तिका , बृहज्जातकं लघुजातकञ्च 
३. ब्रह्मगुप्तः ७०० ई ० ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः , खण्डखाद्य , ध्यानग्रहश्च ७०० ई ० रत्नकोशः , धीवृद्धियन्त्रञ्च । 
५. उत्पलाचार्यः १००० ई ० वाराहमिहिरग्रन्थानां टीकाः ।
 ६. श्रीपतिः ११०० ई ० सिद्धान्तशेखर - धीकोटिकरण - रत्नमाला जातकपद्धतयः ।
 ७ भोजदेवः ११०० ई ० राजमृगाङ्ककरणम् 
८. भास्कराचार्यः १११४-११४० ई ० सिद्धान्तशिरोमणिः , करणकुतूहलञ्च । 
९ केशवः १५०० ई ० ग्रहकौतुक - मुहूर्ततत्त्व -  । 
१०. गणेशः १५५० ई ० ग्रहलाघवम् । 
११. कमलाकरः १६५० ई . सिद्धान्ततत्त्वविवेकः । 
      एतदतिरिक्ता अपि - लघुपाराशरी , बृहत्पाराशरी , जैमिनिसूत्रम् , भृगुः संहिता , मीनराजजातकप्रभृतय आषंग्रन्थाः , लघुजातकम् , बृहज्जातकम् , सारावलिः , जातकाभरणम् , जातकपद्धतिः , जातकसारः , जातकालङ्कारः , पद्म जातकम् , होरारत्नम् , होराकौस्तुभम् इत्यादयः पुरुषप्रणीतग्रन्थाश्च शास्त्रमिद समृद्धं कुर्वन्ति ।