निरुक्त वेद का एक अंग

वेद का अंग निरुक्त (कान)

वैदिक साहित्य में वेद के छह अङ्ग बताये गए हैं। वह ईस प्रकार है - शिक्षा कल्प निरुक्त छंद ज्योतिष व्याकरण 

निरुक्त का अर्थ : 

निरुक्त का अर्थ है - निर्वचन, व्युत्पत्ति । शब्द के मूलरूप का ज्ञान कराना, शब्द में प्रकृति-प्रत्यय का स्पष्टीकरण, धात्वर्थ और प्रत्ययार्थ का विशदीकरण, समानार्थक और नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है ।

यास्क का निरुक्त

यास्क का 'निरुक्त' ग्रन्थ ही संप्रति उपलब्ध है । इसमें 12 अध्याय हैं। अन्त में परिशिष्ट के रुप में दो अध्याय हैं । इस प्रकार यह 14 अध्यायों में विभक्त है ।

जो वेदों में सीधे उक्त नही है वह जान सके उस हेतु से जो पद रचे गए है वह " निरुक्त " कहे जाते है । यथा -- 

 " निरुच्यते निःशेषेणोपदिश्यते निर्वचनविधया तत्तदर्थबोधनाय पदजातं यत्र तन्निरुक्तम् " 

Nirukt types of veda

 जो कहा गया नही है उन पदों का अर्थ तो व्याकरण से भी सिद्ध होता है, फिर भी निरुक्त के अनुसार ही अर्थ कहने चाहिए इस तरह के मुनिके अनुशासन से व्याकरण के होते हुए भी यह शास्त्र भिन्न होता है । 

यास्क का कहना है ...

   " अथापीदमन्तरेण मन्त्रेष्वर्थप्रत्ययो न विद्यते । अर्थमप्रतियतो नात्यन्तं स्वर . संस्कारोद्देशः , तदिदं विद्यास्थाने व्याकरणस्य कात्स्न्यं स्वार्थसाधकञ्च । नहि निरुक्तार्थाविन् कश्चिन्मन्त्र निर्वक्तुमर्हतीति बृद्धानुशासनम् । निरुक्तप्रक्रिया नुरोधेनैव मन्त्रा निर्वक्तव्या नान्यथा । "

  यहा यह जानना चाहिए कि वर्ण उच्चारण प्रकार में मंत्र के घटक पदों के अर्थ जानने भगवान यास्क ने निरुक्त की रचना की - 

यह निरुक्त पांच प्रकार से विभाजित है ।(भर्तृहरि के मत से)

  • वर्णागम 
  • वर्णविपर्यय
  • वर्णविकार
  • वर्णनाश
  • धातुसे अर्थाभिनय
वेदमे निहित कठिन शब्दो के अर्थ को जानने के लिए निरुक्त उपयोगी शास्त्र है । पाणिनि से भी पूर्व के यास्क का समय काल ई. पू. 700 होगा ऐसा विद्वानों का अभिप्राय है ।
यास्क से पूर्व भी बहोत से निरुक्त कार हुए हैं जैसे -
  • औपमन्यव 
  • औदुम्बरायण
  • वार्ष्यायणी
  • गार्ग्य
  • आग्रायण
  • शाकपूणि
  • और्णनाभ
  • तैटीक
  • गालव
  • स्थौलोष्ठी
  • क्रौष्टुक
  • कात्थक्य
यहा यास्क के निरुक्त मे 14 (चौदह ) अध्याय है । बहोत कुछ लोगो का कहना यह भी है कि 12 (बारह) अध्यायों का यह शास्त्र है । 2 (दो) अध्याय बादमे इसमें जोड़े गए है।

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संस्कृते निरुक्तम् शास्त्रं

निरुच्यते निःशेषेणोपदिश्यते निर्वचनविधया तत्तदर्थबोधनाय पदजातं यत्र तन्निरुक्तम् । निर्वचनमुखेन पदानामर्थावगमो यद्यपि व्याकरणेनापि सिद्धति २ सं ० साहि
तथापि निरुक्तानुसारेणैव अर्धा निर्वक्तव्या इति मुन्यनुशासनाद् व्याकरण साध्यकतिपयकार्यविधायित्वाच्च शास्त्रमिदं पृथक् प्रणीतम् । तदुक्तं यास्केन- ' अथापीदमन्तरेण मन्त्रेष्वर्थप्रत्ययो न विद्यते । अर्थमप्रतियतो नात्यन्तं स्वर . संस्कारोद्देशः , तदिदं विद्यास्थाने व्याकरणस्य कात्स्न्यं स्वार्थसाधकञ्च । नहि निरुक्तार्थाविन् कश्चिन्मन्त्र निर्वक्तुमर्हतीति बृद्धानुशासनम् । निरुक्तप्रक्रिया नुरोधेनैव मन्त्रा निर्वक्तव्या नान्यथा ,'
   अत्रेदमवगन्तव्यम् - शिक्षया वर्णोच्चारणप्रकारे व्याकरणेन च पदसाधुत्वे ज्ञाते मन्त्रघटकपदानामर्थज्ञानाकाङ्क्षायां मन्त्रघटकार्थज्ञानाय भगवता यास्केन निरुक्तं प्रणीतम् । तच्च निरुक्तं पञ्चविधम् 
' वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरो वर्णविकारनाशी ।
 धातोस्तदर्थाभिनयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।।
 इति भर्तृहरिः । 
     वेदागतकठिनशब्दसंग्रहरूपो निघण्टुग्रन्थश्चिरादागच्छति स्म , तत्रैव यास्केन तयाख्याभूत निरुक्तं विरचितम् । निघण्टवो वेदा एव न वेदाङ्गानि , तद्व्याख्या भूतं यास्कप्रणीतम् । निरुक्तमेव वेदाङ्गमिति सम्प्रदायः । 
    उपलभ्यमानो निरुक्तग्रन्थो यास्कस्य कृतिः । पाणिनेः प्राचीनोऽयं यास्कः ७०० ई ० पू ० कालिकः स्यादिति विदुषामभिप्रायः । यास्कात्प्रागपि बहवो निरुक्तकारा आसन् । येषु द्वादश यास्केन स्मृताः - ' औपमन्यवः , औदुम्बरायणः , वार्ष्यायणिः , गार्ग्यः , आचायणः , शाकपूणिः , और्णनाभः , तैटीकः , गालवः , स्थौलोष्ठी , क्रौष्ट्रकः , कात्थक्यश्चेति ।
 ' अत्र यास्कनिरुक्त चतुर्दशाध्यायाः । बहवस्तु द्वादशाध्यायात्मकमेवेद ' शास्त्रम् अन्तिमी द्वावध्यायौ तु केनचित् पश्चाद्योजिताविस्याहुः । 

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