वैदिक साहित्य में वेद के छह अङ्ग बताये गए हैं। वह ईस प्रकार है - शिक्षा , कल्प , निरुक्त , छंद , ज्योतिष , व्याकरण ।
निरुक्त का अर्थ है - निर्वचन, व्युत्पत्ति । शब्द के मूलरूप का ज्ञान कराना, शब्द में प्रकृति-प्रत्यय का स्पष्टीकरण, धात्वर्थ और प्रत्ययार्थ का विशदीकरण, समानार्थक और नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है ।
निरुक्त में "पर्यायवाची शब्दों की सूची" - इस भाग को निघण्टु कहते हैं। इसके अन्य अध्यायों में अनेकार्थी शब्द, शब्द उद्गम और शब्दमूलों का समास आदि लिखा है निरुक्त वैदिक साहित्य के शब्द-व्युत्पत्ति ( etymology) का विवेचन है। यह हिन्दू धर्म के छः वेदांगों में से एक है। इसमें मुख्यतः वेदों में आये हुए शब्दों की पुरानी व्युत्पत्ति का विवेचन है। निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे सूत्र दिये हुए है। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का सकलन (glossary) भी है। परम्परागत रूप से संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण (grammarian) यास्क को इसका जनक माना जाता है।
वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरक्त का प्रयोजन है। ऋग्वेदभाष्य भूमिका में सायण ने कहा है- “अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्" अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्ररूप में जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है वही निरुक्त है। शिक्षा प्रभृति छह वेदाग में निरुक्त की गणना है। पाणिनीय शिक्षा में "निरुक्तं श्रोत्रमुचयते" इस वाक्य में निरक्त को वेद का कान बतलाया है। यद्यपि इस शिक्षा में निरुक्त का क्रमप्राप्त चतुर्थ स्थान हैं तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं आभ्यतर तथा बाह्य विशेषताओ के कारण वेदों में यह प्रथम स्थान रखता है। निरक्त की जानकारी के बिना वेद के दुर्गम अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है।
काशिकावृत्ति के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है- वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णविकार (अक्षरों को बदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ध करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूर्णि मुनियों के शब्द व्युत्पत्ति के मतो विचारों का उल्लेख किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं।
यास्क का 'निरुक्त' ग्रन्थ ही संप्रति उपलब्ध है । इसमें 12 अध्याय हैं। अन्त में परिशिष्ट के रुप में दो अध्याय हैं । इस प्रकार यह 14 अध्यायों में विभक्त है ।
जो वेदों में सीधे उक्त नही है वह जान सके उस हेतु से जो पद रचे गए है वह " निरुक्त " कहे जाते है । यथा --
जो कहा गया नही है उन पदों का अर्थ तो व्याकरण से भी सिद्ध होता है, फिर भी निरुक्त के अनुसार ही अर्थ कहने चाहिए इस तरह के मुनिके अनुशासन से व्याकरण के होते हुए भी यह शास्त्र भिन्न होता है ।
यास्क का कहना है ...
" अथापीदमन्तरेण मन्त्रेष्वर्थप्रत्ययो न विद्यते । अर्थमप्रतियतो नात्यन्तं स्वर . संस्कारोद्देशः , तदिदं विद्यास्थाने व्याकरणस्य कात्स्न्यं स्वार्थसाधकञ्च । नहि निरुक्तार्थाविन् कश्चिन्मन्त्र निर्वक्तुमर्हतीति बृद्धानुशासनम् । निरुक्तप्रक्रिया नुरोधेनैव मन्त्रा निर्वक्तव्या नान्यथा । "
यहा यह जानना चाहिए कि वर्ण उच्चारण प्रकार में मंत्र के घटक पदों के अर्थ जानने भगवान यास्क ने निरुक्त की रचना की -
वर्तमान उपलब्ध निरुक्त, निघंटु की व्याख्या (commentary) है और वह यास्क रचित है। यास्क का योगदान इतना महान है कि उन्हें निरुक्तकार या निरुक्तकृत ("Maker of Nirukta") एवं निरक्तवत ("Author of Nirukta") भी कहा जाता है। यास्क ने अपने निरक्त में पूर्ववर्ती निरुक्तकार के रूप में औपमन्यव, औदुंबरायण, वार्ष्यायणि गार्ग्य, आग्रायण, शाकपूणि, और्णनाभ, गालव, स्थौलाष्ठीवि, कौष्टुकि और कात्थक्य के नाम उद्धृत किए हैं उनके ग्रंथ अब प्राप्त नहीं है। इससे सिद्ध है कि 12 निरुक्तकारों को यास्क जानते थे। 13वें निरुक्तकार स्वयं यास्क हैं। 14वाँ निरुक्तकार अथर्वपरिशिष्टों में से 48वे परिशिष्ट का रचयिता है। यह परिशिष्ट निरुक्त निघंटु स्वरूप है।
इसकी विशेषताओं में आकृष्ट होकर अनेक विद्वानों ने इस पर टीका लिखी है। इस समय उपलब्ध टीकाओं में स्कंदस्वामी की टीका सबसे प्राचीन है। शुक्लयजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण के भाष्य में हरिस्वामी ने स्कंदस्वामी को अपना गुरु कहा है। देवराज यज्वा द्वारा रचित रक व्याख्या का प्रकाशन गुरुमंडल ग्रंथमाला, कलकत्ता से 1952 हुआ है। ग्रंथ के प्रारंभ में इन्होंने एक विस्तृत भूमिका लिखी है। निरक्त पर व्याख्या रूप एक वृत्ति दुर्गाचार्य रचित उपलब्ध है। इन्होंने अपनी वृत्ति में निरुक्त के प्राय: सभी शब्दों का विवेचन किया है। इसका प्रकाशन आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथमाला, पूना में 1926 में और खेमराज श्रीकृष्णदाम, बबई में 1982 में हुआ है।
सत्यव्रत सामश्रमी ने इस विषय पर लेखनकार्य किया है। इसका प्रकाशन बिबु आर्थिका, कलकत्ता में 1911 में हुआ है। प्रा० राजवाड़ का इस विषय पर महत्वपूर्ण कार्य निरुक्त का मराठी अनुवाद है जा 1935 में प्रकाशित है। डॉ० सिद्धेश्वर वर्मा का यास्क निर्वाचन नामक ग्रंथ विश्वेश्वरानंद वैदिक शोध संस्थान हाशियारपुर में 1953 में प्रकाशित है। इसपर कुकुद झा बख्शी की संस्कृत टीका निर्णयसागर प्रेम, बबई से 1930 में प्रकाशित हैं। इसपर मिहिरचंद्र पुष्करणा ने एक टीका लिखी है जो पुरुषार्थ पुस्तकमाला कार्यालय, अमृतसर में 1945 में प्रकाशित है।
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निघण्टु की व्याख्या निरुक्त, निघण्टु = (5) अध्याय, (3) का
1-3. नैघण्टुक काण्ड - पर्याय शब्द,
4. ऐकपदिक/ नैगम काण्ड - कठिन शब्द,
5. दैवत काण्ड- देवतावाची,
निघण्टु में पांच अध्याय तथा निरुक्त में (14) अध्याय हैं जिनमें (12) अध्याय मुख्य हैं, दो अध्याय परिशिष्ट हैं ।
यास्क ने देवताओं के तीन भाग किए हैं (1) पृथ्वीस्थानीय (2) द्युस्थानीय (3) अन्तरिक्षस्थानीय।
यास्क की व्याख्यानविधि के तीन भेद :
समाम्नायः समाम्नातः । सः व्याख्यातव्यः । तमिमं समाम्नायं निघण्टव इत्याचक्षते । निघण्टवः कस्मात् ? निगमाः इमे भवन्ति छन्दोभ्यः समाहृत्य समाहृत्य समाम्नाताः । 'ते निगन्तवः एव सन्तः निगमनात् निघण्टव उच्यन्ते इति औपमन्यवः' । 'अपि वा आहननाद् एव स्युः । समाहता भवन्ति' । 'यद्वा समाहृता भवन्ति’ । -
शब्दों का समाम्नाय संकलित हुआ जिसकी व्याख्या करनी चाहिए इस संग्रह को कुछ लोग निघण्टु कहते हैं, यह निघण्टु कैसे कहलाया ये अर्थ बतलाने वाले हैं वेदों से चुन चुनकर ये संकलित किये गये हैं, ये अर्थ बतलाने वाले निगन्तु ही बनकर व्युत्पत्ति (निगमन) से निघण्टु कहलाए यह औपमन्यव का विचार है अथवा आहनन (विभाजित करना) के द्वारा यह निघण्टु शब्द बना है क्योंकि सभी शब्द समाहत (विभाजित) किए हुये हैं । अथवा जमा किये जाने के कारण इन्हे निघण्टु कहते हैं । -
चत्वारि पदजातानि
(1) नाम (2) आख्यात (3) उपसर्ग (4) निपात
आख्यात भावप्रधानमाख्यातम् । भाव, काल, कारक, संख्या नाम सत्वप्रधानानि नामानि । यदत्र उभे भावप्रधाने भवतः । जहाँ पर नाम आख्यात दोनों ही हो उस अवस्था में भाव (क्रिया) की प्रधानता होती है।
भाव की अवस्थाएं
(1) साध्यावस्था- इसमें भाव की प्रधानता होने पर - आख्यात क्रियावाचक होता है ।
(2) सिद्धावस्था- इसमें सत्व की प्रधानता होने पर नाम क्रियावाचक होता है । आख्यात में क्रिया सदैव रहती है- अमूर्त । नाम में क्रिया होती है- मूर्त।
पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातेनाचष्टे- व्रजति पचतीत्युपक्रमप्रभृत्यपवर्ग पर्यन्तम् ।
पूर्वापर के क्रम से होने वाले भाव को आख्यात नाम से पुकारते हैं जैसे- चलता है, पकाता है अर्थात् जिसमें आरम्भ से लेकर अन्त तक का कथन हो। ( उपक्रम आरम्भ, अपवर्ग- अन्त) ।
“क्रियासु बह्वीष्वभिसंश्रितो यः पूर्वापरीभूत इवैक एव
क्रियाभिनिर्वृत्तिवशेन सिद्ध आख्यातशब्देन तमर्थमाहुः” ।।
सत्त्वोपदेशनिरूपण
मूर्त्तं सत्त्वभूतं सत्त्वानामभिर्व्रज्या पक्तिरिति ।
अदः इति सत्वानामुपदेशः।
गौरश्वः पुरुषो हस्तीति । (सत्व- द्रव्य)
ठोस अर्थात् सिद्ध क्रिया के रूप में परिणत भाव को सत्व नाम से पुकारते हैं जैसे- गमन और पाक । अद (वह) से वस्तुओं का सामान्य उपदेश होता है । परन्तु विशेषतः सत्वोपदेश गो, अश्व, पुरुष, हाथी इनसे होता है ।
भावोपदेशनिरूपण
भवतीति भावस्य । आस्ते, शेते, व्रजति तिष्ठतीति । भवति ( होता है) से भाव (आख्यात) का सामान्योपदेश होता है, परन्तु विशेषोपदेश आस्ते, शेते, व्रजति, तिष्ठति इनसे होता है ।
शब्दनित्यत्व विमर्श
औदुम्बरायण मत- 'इन्द्रियनित्यं वचनमौदुम्बरायणः'। औदुम्बरायण के मत में शब्द की सत्ता इन्द्रियों तक ही है इसलिए इन्द्रिय के अनित्य होने से शब्द भी अनित्य है इनका मानना इस प्रकार है। इसमें इन्होंने निम्न तर्क दिए हैं
1. तत्र चतुष्ट्वं नोपपद्यते । शब्द को अनित्य मानने पर नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात ये चारों पद बेकार हो जाएंगे।
2. अयुगपत् उत्पन्नानां वा शब्दानां इतर इतरोपदेशः । शब्द अनित्य में शब्दों का मेल नहीं हो सकता क्योंकि वे भिन्न-भिन्न समयों में उत्पन्न होते हैं तथा नष्ट हो जाते है ।
3. शास्त्रकृतो योगश्च । प्रकृति और प्रत्यय भी अनित्य है इसलिए इनका व्याकरण शास्त्र में लिखा हुआ सयोग भी नहीं हो सकता।
यास्क मत 'व्याप्तिमत्वात् तु शब्दस्य' । यास्क मत में व्याप्तिमान होने से शब्द का नित्यत्व सिद्ध होता है ।
॥ षड् भावविकार ॥
षड् भावविकाराः भवन्तीति वार्ष्यायणिः -जायते, अस्ति, विपरिणमते वर्द्धते, अपक्षीयते, विनश्यतीति।
जायते -जायत इति पूर्वभावम्यादिमाचष्टे नापरभावमाचष्टे, न प्रतिषेधति । (जन्म लेना)
अस्ति -अस्तीत्युत्पन्नस्य सत्त्वस्यावधारणम् । (होना )
विपरिणमते -विपरिणमत इत्यप्रच्यवमानस्य तत्त्वाद्विकारम् । (बदलना)
वर्द्धते- वर्द्धत इति स्वाङ्गाभ्युच्चयं सांयोगिकानां वार्थानाम्- वर्द्धते विजयेनेति वा, वर्द्धते शरीरेणेति वा । ( वृद्धि होना, वृद्धि दो प्रकार की) शारीरिक, धन-धान्य ।
अपक्षीयते- अपक्षीयते इत्यतेनैव व्याख्यातः प्रतिलोमम् । (घटना दो प्रकार से) शारीरिक, धन-धान्य ।
विनश्यतीति विनश्यतीत्यपरभावस्यादिमाचष्टे, न पूर्वभावमाचष्टे न प्रतिषेधति। (नष्ट होना)
उपसर्गनिरूपणम्
शाकटायन मत- 'न निर्बद्धा उपसर्गा अर्थान्निराहुरिति शाकटायनः । नामाख्यातयोस्तु कर्मोपसंयोगद्योतका भवन्ति।
शाकटायन के मत में नाम, आख्यात से अलग होने पर उपसर्ग का अर्थ निश्चय नहीं कर सकते। लेकिन नाम और आख्यात का अन्य अर्थ से संयोग होता है ।
गार्ग्य के मत में उपसर्ग के बहुत तरह के अर्थ होते हैं। जैसे
उपसर्गों के स्वतंत्र अर्थ
1. आङ्- इत्यर्वागर्थे। (इधर अर्थ
2. प्र, परा- प्रपरेत्येतस्य प्रातिलोम्यम् । (आइ से उल्टा अर्थ )
3. अभि इत्याभिमुख्यम् (संमुखता) -
4. प्रति प्रतित्येतस्य प्रातिलोक्यम् (अभि से
5. अति सु- अति मु इत्यभिपूजितार्थे । (पूजार्थ)
7. निर्, दुर- निर्दुरित्येतयोः प्रातिलोम्यम्। (अति सु के विपरीत निर्धनः, दुर्ब्राह्मणः)
8. नि अब न्यवति विनिग्रहार्थीयो। (नियन्त्रण दबाने में) निगृह्णाति, अवगृह्णाति
9. उद् - उदित्यतया प्रातिलाम्यम (उपर वाले नि अब के विपरीत अर्थ को कहता है) उद्गृह्णाति, उत्थापयति।
10. सम् समित्येकीभावम। (एकत्र करने को संगृह्णाति)
11. वि, अप- व्यापत्यतस्य प्रातिलोम्यम् (जुदा करना सम का उल्टा) विगृह्णाति, अपगृह्णाति।
12. अनु सादृश्यापरभावम। (समानता और अनुगम) अनुरूपमिदम, अनुगच्छामि।
13. अपि अपीति संसर्गम् (संसर्ग) मधुनोऽपि स्यात्, देवदत्तमपि आनय
14. उप् उपेत्युपजनम। (आधिक्य) उपजायते, उप परार्द्धे हर्गुणाः,
15. परि - सर्वतोभावम्। (सब तरफ) परिधावति,
16. अधि उपरिभावम् / ऐश्वर्यं वा । (उपर / ईश्वर) अधितिष्ठति लोकम, अधिपतिः, -
इस प्रकार अनेकविध अर्थ में उपसर्ग होते हैं ।
निपात के तीन प्रकार -
(1) उपमार्थक
1. इव इवेति भाषायाम् अन्वाध्याये ( वेदे) च । इव यह निपात भाषा (लोक) में और वेद में भी होता है । वेद और लोक दोनों जगह उपमार्थ में होता है । वेद- इन्द्र इव। उदाहरण- लोक- अग्निरिव, तथा यह
2. न - नेति प्रतिषेधार्थीयो भाषायाम्। उभयमन्वध्यायम् । न यह निपात लोक में निषेधार्थक होता है परन्तु वेद में निषेध और उपमा दोनों अर्थ में होता है । (अन्वाध्यायम्-वेद) वेद के उदाहरण- निषेधार्थक- नेन्द्रं देवममंसत, उपमार्थक दुर्मदासो न सुरायाम्।
3. चित्- चिदित्येषोऽनेककर्मा (अनेकार्थ) । उदाहरण- पूजार्थ, उपमार्थक, अवकुत्सित् । यथा पूजार्थ आचार्यश्चिद् इदं ब्रूयात् । उपमार्थक- दधिचित्, अवकुत्सित् कुल्माषाश्चिदाहर । -
संस्कृतप्र
4. नु- नु इत्येषोऽनेककर्मा (अनेकार्थ) ।
(1) हेत्वर्थ (2) अनुप्रश्नार्थ (अनुपृष्ट ) (3) उपमार्थ
यथा- हेत्वर्थ- "इद नु करिष्यति” । उपमार्थ वृक्षस्य नु पुरुहूत वयाः । अनुप्रश्नार्थ कथं नु करिष्यति ।
(2) कर्मोपसंग्रहाः निपाताः
कर्मोपसंग्रह (अर्थसंयोजक) उसे कहते हैं जिसके आगमन से वस्तुओं का अलग-अलग होना निश्चित रहता है, किन्तु यह पार्थक्य सामान्य गणना के समान स्पष्ट नहीं रहता बल्कि समास के पदों को अलगअलग करने पर ही पृथक मालूम पड़ता है ।
कर्मोपसंग्रह के उदाहरण
- 1. च इति समुच्चयार्थः, (एक जगह करना, अहं च त्वं च वृत्रहन्) 2. आ इति समुच्चयार्थः, (देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च आ )
3. वा- विचारणार्थ:, ( हन्ताहं पृथिवीमिमां विदधानीह वेह वा)
4. अह, ह - विनिग्रहार्थीयौ, (अलग होने के अर्थ में)
5. उ – विनिग्रहार्थीय, पादपूरक भी (मृषा इमे वदन्ति, सत्यमु ते वदन्ति।)
6. हि 7. किल - - अनेककर्मा-3 (1) हेतुकथनं (2) अनुपृष्ट (3) ईर्ष्या विद्याप्रकर्षे,
8. मा प्रतिषेधे,
9. खलु- प्रतिषेधे, खलु कृत्वा, खलु कृतम्, (पादपूरक एवं खलु तत् बभूव)
10. शश्वत्- विचिकित्सार्थीयो भाषायाम् (संदेहार्थक)
- 11. नूनम् - विचिकित्सार्थीयो (पादपूरक भी) 12. सीम - परिग्रहार्थीयो वा (पादपूरण) 13. त्व विनिग्रहार्थीय सर्वनामानुदात्तम् 14. त्वत्- समुच्चयार्थे (पादपूरक)
(3) पादपूरणार्थक निपाताः
इत् न के साथ मिलकर परिभय अर्थ में प्रयुक्त होता है- 'न चेत् सुरां पिबन्ति।' पादपूरणार्थक निपात के उदाहरण
नूनम् (2) सीम (3) सीमतः (4) कम् (5) ईम् (6) इत् (7) उ (8) त्व (9) त्वत् । "कमीमिदु" = कम्, ईम, इत्, उ ।
॥ चतुर्थ पाद॥
शाकटायन मत- तत्र नामानि- आख्यातजानि इति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च”। सभी शब्द धातुओं से उत्पन्न हुए हैं ।
स्पर्धाप्रकाश
गार्ग्य / वैयाकरण मत- न सर्वाणीति गार्ग्या वैयाकरणानां चैके। इनके अनुसार सभी प्रातिपादिक धातुओं से उत्पन्न नहीं होते हैं ।
॥पञ्चम पाद ॥
निरुक्त अध्ययन प्रयोजन अनर्थका हि मत्रा:- कौत्स ( 7 ) 1. नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति । 2. अथापि ब्राह्मणेन रूपसम्पन्ना विधीयन्ते 'उरु प्रथम्वेति प्रथयति।' 'प्रोहाणीति प्रोहति । ' 3. अथाप्यनुपपन्नार्था भवन्ति । 'ओषधे त्रायस्वैनम् ।' 'स्वधिते मैनं हिंसीः ' इत्याह हिंसन् द्वितीयः । '
4. अथापि विप्रतिषिद्धार्था भवन्ति- 'एक एव रुद्रोऽवतस्थे न ‘असंख्याता सहस्त्रणि ये रुद्रा अधि भूम्याम् ।' 'अशत्रुरिन्द्रः ! जज्ञिषे।' 'शतं सेना अजयत् साकमिन्द्रः। ' इति।
5. अथापि जानन्तं सम्प्रेष्यति अग्नये समिध्यमानाय अनुब्रूहीति ।
6. अथाप्यह- '7. अथापि अविस्पष्टार्था भवन्ति- अम्यग्, यादृश्मिन्, जाग्यायि, काणुका इति।
अदितिः सर्वम् इति। "अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षम्।' '।
यास्क मत
अर्थवन्तः शब्दसामान्यात्। एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृग्यजुर्वाभिवदिति च ब्राह्मणम् । क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिः इति। “इहैव स्तं मा वियौष्टं विश्वमायुर्व्यश्रुतम् ।
क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वेगृहे ।।' (ऋ-सं-8, 3, 28, 2) इस मंत्र का विवाह के लिये विनियोग किया गया है। 1. यथो एतन्नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्तीति।
लौकिकेष्वप्येतद् । यथा- इन्द्राग्नी, पितापुत्रविति ।
2. यथो एतद् ब्राह्मणेन रूपसम्पन्ना विधीयत इति, उदितानुवादः स भवति ।
3. यथो एतदनुपपन्नार्था भवन्तीत्याम्नायवचनादहिंसा प्रतीयेत् । 4. यथो एतद् विप्रतिषिद्धार्था भवन्तीति, लौकिकेष्वप्येतद्। यथा असपत्रोऽयं ब्राह्मणोऽनमित्रो राजेति।
5. यथो एतद् जानन्तं सम्प्रेष्यतीति । 'जानन्तमभिवादयते' ‘जानते मधुपर्क प्राहेति । '
6. यथो एतददितिः सर्वमिति । लौकिकेष्वप्येतद् । यथा- एतददितिः सर्वमिति। लौकिकेष्वप्येतद् ।' यथा- सर्वरसा अनुप्राप्ताः पानीयमिति।
7. यथो एतदविस्पष्टार्था भवन्तीति। नैष स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यति पुरुषापराधः स भवति । यथा- जानदीषु विधातः पुरुषविशेषो भवति । पारोवर्यवित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविधः प्रशस्यो भवति ।
53
फर्फरीफा शत्रूणा विदारयितारौ। अम्यक् प्राप्नाति, यादृश्मिन् यादृशे जारयायि स्तूयते काणुका कान्तानि, जर्भरी भर्तागे, तुर्फ़री हन्तारौ ।
॥ षष्ठ पाद ॥
संस्कृतप्रति
निरुक्त अध्ययन के प्रयोजन
1. अथापीदमन्तरेण मन्त्रेष्वर्धप्रत्ययो न विद्यते । अर्थमप्रतियतो नात्यन्तं स्वरसंस्कारोद्देशः । तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्य
स्वार्थसाधकं च ।
2. अथापीदमन्तरेण पद-विभागो न विद्यते।
3. अथापि याज्ञे दैवतेन बहवः प्रदेशा भवन्ति, तदनेनोपेक्षितव्यम् । 4. अथापि ज्ञान प्रशंसा भवति ।
“साक्षात्कृतधर्माण: ऋषयो बभूवुः” । ऋषियों ने धर्म का साक्षात्कार किया था। (यह यास्क का कथन है।)
॥ द्वितीय अध्याय ॥ ॥ प्रथम पाद ॥
निर्वचन के सिद्धान्त
जिन शब्दों में स्वर और बनावट अर्थ से युक्त होकर अपने अधीनस्थ अर्थ सम्बन्धी प्रादेशिक विकार से सम्बद्ध हो उनका निर्वचन उसके अनुसार ही करें । निर्वचनम् निष्कृष्य विगृह्य वचनं निर्वचनम्। “वर्गागमो वर्ण- विपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्ण-विकार-नाशौ धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्” ।।
1. वर्णागम- आस्थत्, द्वारः, भरुजा ।
2. वर्णविपर्ययआदि विपर्ययः- ज्योतिः, घनः बिन्दु, बाट्यः। आद्यन्त विपर्ययः- स्तोका रञ्जुः सिकतास्तर्व्विति । (तर्क) अन्तविपर्ययः- ओघो, मेघो, नाघो, गाघो, वधूर्मध्विति ।
3. वर्णविकारउपधाविकारः- राजा, दण्डी ।
4. वर्णनाशआदिशेषःआदिलोपः- स्तः सन्ति । अन्तलोपः- गत्वा, गतम् । :- प्रत्तम्, अवत्तम्।
उपधालोपः- जग्मतुः, जग्मु वर्णलोपः तत्त्वा यामीति। (तं त्वा याचामि) द्वार द्विवर्णलोपः- तृचः। (तिम्ब ऋच. )
5. धात्वर्थातिशय
यज् धातु सम्प्रसारण इष्टम् इष्टवा। यज् धातु असम्प्रसारण यष्टुम्, यष्टव्यम् । दम् उपशमने दाम्यति, दमयति दान्तः, दमूना । कुछ धातुएं सम्प्रसारण रूप में कम प्रयोग वाली होती हैं- अतिः, मृदुः, पृथुः पृषतः, कुणारू । (लौकिक) से वैदिक कृदन्त शब्द दमूनाः, क्षेत्रसाधा । वैदिक से लौकिक कृदन्त शब्द - उष्णम् घृतम्। - -
निम्नलिखित शब्दों की व्युत्पत्तियां
1. आचार्यः- आचार्यः आचारं ग्राहयति, आचिनोत्यर्थान्, अचिनोति बुद्धिमिति वा ।
2. वीरः- वीरयति अमित्रम्। वेत्तेर्वा स्याद्गतिकर्मणः, वीरयतेर्वा । 3. हृदः - हृदो ह्रादते शब्दकर्मणः । हृदतेर्वा स्यात्, शीतिभावकर्मणः । 4. गौ - गौरिति पृथिव्या नामधेयम् । यद् दूरङ्गता भवति । यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति। गातेर्वा ओकारो नामकरणः ।
5. समुद्रः - समुद्रवन्त्यस्मादापः। समभिद्रवन्त्येनमापः। सम्मोदन्ते अस्मिन् भूतानि । समुदको भवति । समुनत्तीति वा ।
6. वृत्रः - वृत्रो वृणोतेर्वा, वर्ततेर्वा यद् वृणोत् तद्वृत्रस्य वृत्रत्वम् । यदवर्धत तद् वृत्रस्य वृत्रत्वम् ।
7. आदित्यः - आदत्ते रसान्, आदत्ते भासं ज्योतिषाम्, आदीप्तो भासेति वा, अदितेः पुत्र इति वा ।
8. उषस् उच्छतीति सत्या रात्रेरपरः कालः ।
9. मेघः - मेहतीति सिंचत्यसौ मेघः।
10. नदी नदना इमा भवन्ति शब्दवत्यः ।
11. उदक् - उन्नत्तीति उदक् । तद्वि यत्र गच्छति, तत्र उनति क्लेदयति। 12. वाक् - वक्तीति वाक् । वचेः उच्यतेऽनया इति वाक् ।
13. अश्वः - अश्नुतेऽध्वानम्। महाशनो भवतीति वा।
14. अग्निः- अग्रणीर्भवति। अग्रं यज्ञेषु प्रणीयते। अङ्गं नयति सङ्गमानः ।
अक्नोपनो भवति- “स्थौलाष्ठीवि"। न क्रोपयति न स्नेहयति। 15. जातवेदस- जातानि वेद, जातानि वा एनं विदुः । जाते विधत इति वा।
16. वैश्वानर - विश्वान् नरान् नयति। विश्वः एवं नरा नयन्तीति वा अपि वा वैश्वानरः एव स्यात् ।
17. निघण्टु - ते निगन्तव एव सन्तो निगमनाद् निघण्टबः उच्यन्ते इति औपमन्यवः । अपि वाऽऽहननादेव स्युः समाहता भवन्ति । यद्वा समाहृता भवन्ति । .
-
संस्कृतप्रति
॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
अथ दैवतकाण्डम्
॥ प्रथमः पादः ॥
तद् दैवतलक्षण- तद्यानि नामानि प्राधान्यस्तुतीनां देवतानां दैवतमित्याचक्षते। सा एषा देवतोपपरीक्षा । यत्कामऋषिः यस्यां देवतायम् आर्थपत्यम् इच्छन् स्तुतिं प्रयुङ्क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति । जिन नामों में मुख्य रूप से देवताओं का वर्णन है उनका सङ्ग्रह दैवत कहलाता है, इस काण्ड में देवताओं की पूरी परीक्षा का वर्णन है किसी मन्त्र में कोई काम न लेकर कोई ऋषि जिस देवता का प्रधान अर्थ चाहता है, स्तुति करता है उसी देवता का वह मन्त्र होता है ।
तास्त्रिविद्या ऋचः- परोक्षकृताः । प्रत्यक्षकृताः। आध्यात्मिक्याश्च ।
1. परोक्षकृताः- प्रथमपुरुष ।
"तत्र परोक्ष- कृताः सर्वाभिर्नामविभक्तिभिर्युज्यन्ते प्रथमपुरुषैश्च आख्यातस्य" । उदाहरणप्रथमा विभक्ति- इन्द्रो दिव इन्द्र ईशे पृथिव्याः । द्वितीया विभक्ति- इन्द्रमिद् गाथिनो बृहत् । इन्द्रेणैते तत्सवो वेविषाणाः। तृतीया विभक्ति चतुर्थी विभक्ति इन्द्राय साम गायत। पंचमी विभक्ति नेन्द्रादृते पवते धाम किञ्चन । - - षष्ठी विभक्ति- इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचम्। सप्तमी विभक्ति इन्द्रे कामा अवंसत ।
2. प्रत्यक्षकृताः- मध्यमपुरुष ।
"अथ प्रत्यक्षकृता मध्यमपुरुषयोगाः। त्वमिते चैतेन सर्वनाम्ना”। प्रत्यक्षतः कही गई ऋचाएं मध्यम पुरुष में होती हैं और तुम ( त्वम्) सर्वनाम से संयुक्त रहती हैं। उदाहरण- त्वमिन्द्र बलादधि । वि न इन्द्र मृधो जहि ।
प्रत्यक्षकृताः स्तोतारो भवन्ति । परोक्षकृतानि स्तोतव्यानि । कहीं-कहीं पर स्तुति करने वाले प्रत्यक्षतः कहे जाते हैं और स्तोतव्य वस्तुएं परोक्षत: कही जाती हैं। उदाहरणमा चिदन्यद्विशंसत । कण्वा अभि प्रगायत । उप प्रेत कुशिकाश्चेतयध्वम्।
3. आध्यात्मिक्य- उत्तमपुरुष ।
अथाध्यात्मिक्यः उत्तमपुरुषयोगाः । अहमिति चैतेन सर्वनाम्ना । स्वयं की कही गई ऋचाएं उत्तम पुरुष में होती हैं और मैं (अहम्) इस सर्वनाम
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में संयुक्त रहती हैं। उदाहरण- इन्द्रो वैकुण्ठ लवमुक्तम् वागाम्भृणीयम
(वाक् मूक्त) ।
परोक्षकृताः
आध्यात्मिका:
अल्पश:
प्रत्यक्षकृताश्च मन्त्रा
भूयिष्ठा ।
॥द्वितीयः पादः॥
तिस्त्र एव देवता इति नैरुक्ताः ।
(1) पृथ्वि स्थानीय देवता अग्नि, मोम, बृहस्पति, प्रजापति, विश्वकर्मा अदिति-दिति, देवियां, नदियां ।
(2) अन्तरिक्ष स्थानीय देवता इन्द्र, रुद्र, मरुत, पर्जन्य, वात, मातरिश्वा, आप, अपानपात्, त्रित आप्त्य, अहिर्बुध्य, वायु।
(3) द्युस्थानीय देवता- आदित्य, (ऋताधिपति) सविता, सूर्य, पृषा, पूषन, मित्र, वरुण, उपस, अर्यमा, अश्विनौ, द्यौ, विष्णु विवस्वत् "देवो दानाद् वा, दीपनाद् वा, द्योतनाद् वा, द्युस्थानो भवतीति वा”।
॥तृतीयः पादः॥
1. अग्नि भक्तीनि (साहचर्य) - पृथिवी लोकः । प्रातः सवनम् । वसन्तः (शरद ) । गायत्री (अनुष्टुप)। त्रिवृत्स्तोमः। रथन्तरं साम । अस्य संस्तविका देवाः इन्द्रः सोमः, वरुणः पर्जन्यः, ऋतवः । अस्य कर्म वहनं च हविषामावाहनं च देवतानाम् ।
2. इन्द्र भक्तीनि- अन्तरिक्षलोकः । माध्यन्दिनं सवनं । ग्रीष्मः (हेमन्त ) त्रिष्टुप् (पंक्ति) पञ्चदशस्तोमः । (त्रिणव) बृहत्साम (शाक्वर) । अस्य कर्म- रसानुप्रदानं वृत्रवधः । या च का च बलकृतिः इन्द्रकर्मैव तत् । अस्य संस्तविका देवाः- अग्निः सोमः, वरुणः, पृषा, बृहस्पतिः, ब्रह्मणस्पतिः, पर्वतः कुत्सः, विष्णुः वायुः, मित्र, वरुण । (शिशिर, अतिच्छन्द, त्रयस्त्रिंशदस्तोम, रैवत, साम)
3. आदित्य भक्तीनि- (द्युलोक)। तृतीयसवनम् । शिशिर वर्षा | जगती । सप्तदशस्तोमः । वैरुप साम ।
अस्य कर्म- रसादानं रश्मिभिश्च रसधारणम् ।
निरुक्त में चार प्रकार के देवतावाद
।
● ● (1) पौरुषविध्यम् (2) अपौरुषविध्यम् (3) कर्मार्थात्मोभयविध्यम् (4) नित्यमौभयविध्यम् शाकपूणिः सङ्कल्पयाञ्चक्रे सर्वा देवता जानामीति । अयमेवाग्निर्वैश्वानर इति शाकपूणिराचार्यो मन्यते ।। (शाकपूणि)
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निरुक्त के टीकाकारस्कन्दस्वामी- 500 ई., देवराजयज्वा 1300 ई., दुर्गाचार्य 1300 ई- (1. निरुक्तश्लोकवार्तिक 2. ऋज्वर्धवृत्ति) महेश्वर
निरुक्त का महत्व
संस्कृतप्रति
निरुक्त की उपादेयता को देखकर अनेक पाश्चात्य विद्वान् इस पर मुग्ध हुए है। उन्होंने भी इसपर लेखनकार्य किया है। सर्वप्रथम रॉथ ने 'जर्मन भाषा' में निरक्त की भूमिका का अनुवाद प्रकाशित किया है। जर्मन भाषा में लिखित इस अनुवाद का प्रो० मैकीशान ने आंग्ल अनुवाद किया है। यह बबई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित है। स्कोल्ड ने जर्मन देश में रहकर इस विषय पर अध्ययन किया है और इसी विषय पर प्रबंध लिखकर प्रकाशित किया है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने वैदिक भाष्यों और सत्यार्थ प्रकाश में वैदिक मंत्रों के अर्थ करने के लिए इस ग्रंथ का बहुत महारा लिया है। महर्षि औरोबिन्दो ने भी वेदों को समझने में निरूक्त की महत्वपूर्ण भूमिका का ज़िक्र किया है।
निरुक्त और व्याकरण में अन्तर
वैदिक संस्कृत की भाषा समझने के लिए व्याकरण का भी पाठन होता है और अष्टाध्यायी को इसका महत्तम ग्रंथ माना जाता है। निरुक्त में शब्दों के मूल का वर्णन है, यानि किस भावना के कारण घोड़े को अश्व कहा जाता है (आशु यानि तेज गति से जाने के कारण) इसका वर्णन है। जबकि व्याकरण में अश्वारूढ़ (अश्व पर आरोहित, घोड़े पर सवार) के मूल शब्दों से उत्पन्न भावना का वर्णन है। निरक्त में चूँकि मूलों का वर्णन है, अतः जिन शब्दों का वर्णन है वह छोटे (2-3 वर्ण) हैं, जबकि व्याकरण में लम्बे शब्दों और वाक्यों का भी वर्णन है, क्योंकि व्याकरण सन्धि-समास अलंकार आदि का विवेचन करता है।