UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस
यह प्रातिशाख्य ऋग्वेद का एकमात्र उपलब्ध प्रातिशाख्य है। इसके रचियता आचार्य `शौनक' है जो कि स्वयं ऋग्वेद की 'शैशिरीय' शाखा के अनुयायी थे। ऋ. प्रा. के उपोद्धात में शौनक ने प्रतिज्ञा की है कि वह शैशिरीय शाखा के उच्चारण सम्बंधी सम्पूर्ण ज्ञान के लिये इस प्रातिशाख्य शास्त्र का कथन करेंगे। इससे यह प्रतीत होता है कि वर्तमान ऋ. प्रा. शैशिरीय शाखा का है। शैशिरीय शाखा शाकल शाखा के अंतर्गत एक उपशाखा है परंतु इसकी संहिता उपलब्ध नहीं है। इसीलिये वर्तमान ऋ. प्रा. को शाकल शाखा का माना जाता है। अनुष्टुप. त्रिष्टुप् और जगती छन्दों में निबद्ध यह प्रातिशाख्य अध्याय पटल वर्ग और श्लोक के क्रम में प्राप्त है।
निष्कर्षतः विद्वानों के मतानुसार कहा जा सकता है कि वैदिक व्याकरण में सबसे पहले हुए ऋक् प्रातिशाख्य के समय की उच्चतम सीमा यास्क के समय 700 ई.पू. है और निम्नतम सीमा पाणिनि का समय 500 ई. पू. है। यह कहा जा सकता है कि प्रातिशाख्यों का समय यास्क के बाद तथा पाणिनि से पूर्व में है। अर्थात् प्रातिशाख्यों की रचना 700 ई. पू. तथा 500 ई. पू के मध्य में है। ऋक्प्रातिशाख्य और ऋक्प्रातिशाख्यकार के काल-निर्धारण विषय में प्राप्त हुये विद्वानों के विभिन्न मतों के आधार पर ऋक्प्रातिशाख्य का समय 600 ई. पू के आसपास माना जा सकता है। परंतु वैदिक वाङ्मय में प्रातिशाख्यों के महत्व को देखकर इनका काल निश्चित कर देना कोई सरल कार्य नहीं है अर्थात इस विषय पर अभी और अधिक शोध की आवश्यकता है किंतु तब तक विद्वानों के प्रमाण युक्त मतों का ही आश्रय लेकर ऋक्प्रातिशाख्य को 700 ई. पू. और 500 ई. पू के मध्य में ही माना गया है।
रचयिता - शौनक, पटल (अध्याय) (18) क्रमानुसार प्रथम कुछ अध्यायों के नाम 1. संज्ञा, 2. संहिता 3. स्वर 4. सन्धि 5 नति....।
यह 'ऋग्वेद' की 'शाकल' शाखा का प्रतिशाख्य है। इसे 'पार्षद' या 'पारिषद' मूत्र भी कहते हैं।
(1) उच्चट का भाष्य।
(2) विष्णुमित्र कृत (वृत्ति) ।
'अष्टो समानाक्षराण्यादित' (8) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ
'ततश्चत्वारि सन्ध्यक्षराणि' (4) ए, ऐ, ओ, औ - -
"जिह्वामूलीय उपध्मानीय अघोषसंज्ञका सन्ति ।” -
'अन्त्याः सप्त तेषामघोषा’ -(7) श, ष, स, जिह्वामूलीय फ्, , उपध्मानीय क्,
पुनश्च वर्गे प्रथमौ अघोषौ, अर्थात् क ख, च-छ, ट-ठ, त-थ, प-फ,
उपस्थापयन आह "अघोषे रेफ्यरेफी च”।
"युग्मौ सोष्माणौ" - वर्गे च द्वितीयचतुर्थो वर्णो सोष्माणौ। अर्थात् ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, ध, ध, फ, भा
प्रयोजनम् आह- "सोष्मातु पूर्वेण सहोच्यते” ।
उव्वट भाष्यानुसार “स्वर भक्तिस्तु रेफेन लकारेण वा सम्बद्धा भवति" "स्वर भक्ति: पूर्वभागमक्षराणाम्।” सा स्वरभक्तिः पूर्वं रेफं लकारं वा भजते। सा द्विविधा - -
1. दीर्घस्वरभक्ति:- अर्धमात्रा, (1/2)
2. हृस्वस्वरभक्तिः-अर्धोनमात्र उच्चारणकालः (1/4)
"स्पर्शा यमानुनासिकाः स्वान्परेषु” (कुँ खँ, मुँ, घुँ)
“स्पर्शसंज्ञोऽनुनासिकः” (इ,ञ,ण्,न,म्)
द्वयोः व्यञ्जनवर्णयोः सन्निपातः । यथा- (प्र) प्रवस्त्रिष्टुभामिषम्। (संयोगस्तु व्यञ्जनसन्निपातः) ।
“सम्बोधनात्मकस्य पदस्य अन्ते विद्यमानस्य ओकारस्य आमन्त्रित ओकार प्रगृह्य संज्ञा" ।
स्वर वर्ण के पूर्व में पञ्चम ऊष्म वर्ण (विसर्ग) हो तो वह रेफ़ित संज्ञक होता है। "उष्मोरेफी पञ्चमो नामिपूर्वः” । यथा (अग्निरश्मिना जन्मना)
(वाजमनेयि-प्रातिशाख्य), रचयिता कात्यायन, अध्याय 8, इसमें ( 10 ) प्राचीन आचार्यों के मतों का उल्लेख है। काण्व, काश्यप, गार्ग्य, माध्यन्दिन, शाकटायन, शाकल्य, शौनक इत्यादि।
(1) 'उब्बटकृत- 'मातृवेदनामक भाष्य
(2) 'अनन्तभट्ट' कृत 'पदार्थप्रकाशक' नामक भाष्य । संबंधित ग्रन्थ (1) प्रतिज्ञासूत्र (2) भाषिकसूत्र
खण्ड- 2 दोनों में 12, 12 अध्याय, सम्पूर्ण अध्याय = ( 24 )
(1) माहिषेय पदक्रमसदन भाष्य,
(2) सोमयार्य - त्रिभाष्यरत्न भाष्य,
(3) गोपालयज्वा वैदिकाभरण भाष्य।
(1) पुष्पसूत्र - प्रणेता पुष्प' ऋषि (10) प्रपाठक अध्याय + सामगान से सम्बन्धित इसमें 'ग्रामगेयगान' और 'अरण्य गेयगान' में प्रयुक्त सामों की विविध विधियों का विशदीकरण है। पुष्पसूत्र पर 'अजातशत्रु' की एक व्याख्या उपलब्ध है।
(2) ऋक्तत्र - यह 'सामवेद' की 'कौथुम' शाखा का प्रातिशाख्य है। इसे (ऋक्तत्र व्याकरण) भी कहते हैं। (5) प्रपाठक अध्याय 280 सूत्र,
(1) शौनकीय चतुरध्यायिका
लेखक- शौनक इसका इंग्लिश अनुवाद के सहित संस्करण "डॉ. ह्रिटनी" ने प्रकाशित किया था। अध्याय- 4,
(2) अथर्ववेद प्रतिशाख्य डॉ. सूर्यकान्त' ने इसका संस्करण 1940 में लाहौर से प्रकाशित किया था ।
11 श्वेरश्वेतर