UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस
श्वेताश्वतर उपनिषद जो ईशादि दस प्रधान उपनिषदों के अनंतर एकादश एवं शेष उपनिषदों में अग्रणी है कृष्ण यजुर्वेद का अंग है। छह अध्याय और 113 मंत्रों के इस उपनिषद को यह नाम इसके प्रवक्ता श्वेताश्वतर ऋषि के कारण प्राप्त है। मुमुक्षु संन्यासियों के कारण ब्रह्म क्या है अथवा इस सृष्टि का कारण ब्रह्म है अथवा अन्य कुछ हम कहाँ से आए, किस आधार पर ठहरे हैं, हमारी अंतिम स्थिति क्या होगी, हमारे मुख दुःख का हेतु क्या है, इत्यादि प्रश्नों के समाधान में ऋषि ने जीव, जगत् और ब्रह्म के स्वरूप तथा ब्रह्मप्राप्ति के साधन बतलाए हैं और यह उपनिषद् सीधे यौगिक अवधारणाओं की व्याख्या करता है।
उनके मतानुसार कुछ मनीषियों का काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथिवी आदि भूत अथवा पुरुष को कारण मानना भ्रांतिमूलक है। ध्यान योग की स्वानुभूति से प्रत्यक्ष देखा गया है कि सब का कारण ब्रह्म की शक्ति है और वही इन कथित कारणों की अधिष्ठात्री है (1.3 ) । इस शक्ति को ही प्रकृति, प्रधान अथवा माया की अभिधा प्राप्त है। यह अज और अनादि है, परंतु परमात्मा के अधीन और उससे अस्वतंत्र है। ब्रह्म का स्वरूप केवल निर्गुण, सगुणनिर्गुण और सगुण बतलाया गया है। जहाँ सगुणनिर्गुण रूप से विरोधाभास दिखानेवाले विशेषणों से युक्त परमेश्वर के वर्णन और स्तुतियाँ मिलती हैं, दो तीन मंत्रों में हाथ में बाण लिए हुए मंगलमय शरीरधारी रुद्र की ब्रह्मभाव से प्रार्थना भी पाई जाती है ब्रह्म का श्रेष्ठ रूप निर्गुण, त्रिगुणातीत, अज, ध्रुव, इंद्रियातीत, निरिंद्रिय, अवर्ण और अकल है। वह न सत् है, न असत्, जहाँ न रात्रि है न दिन, वह त्रिकालातीत है ।
मंत्र- 16 शिववर्णन, सांख्य, योग, वेदान्त आदि दर्शनों का वर्णन।
ध्यान, परमात्मा के साक्षात्कार का परम उपाय अपने गुणों से परमात्मा का साक्षात्कार
ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् यः ।
कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः।।
इस विस्तृत ब्रह्मचक्र में जीवात्मा घुमाया जाता है
अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे | ( हंस:- जीवात्मा)
परमात्मा स्वरूप तथा उसे जानने का फल
संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाज्ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।।
ईश्वर, जीव, प्रकृति ये तीनों परमात्मा स्वरूप हैं
अनन्तश्वात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता, त्रयं यदा विन्दते ब्रह्मतत्।
वहेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिर्न, दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः ।।
परमात्मा हृदय रूपी गुफा में छिपा है
तिलषु तैल दधनीव सर्पिरापः स्त्रोतः स्वरणीषु चाग्निः ।
एवमात्माऽऽत्मनि गृह्यतेऽसौ सत्येनैन तपसा योऽनुपश्यति॥
ज्ञाज्ञों द्वावजौ ईशानीशावजा ह्येका भोक्तृभोगार्थयुक्तः ।
भोक्ता भोग्य प्रेरितार च मत्वा त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ।
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्।
मंत्र- 17,
सही योगाभ्यास की पहचान
योग की प्रथम सिद्धि
ब्रह्म सर्वत्र है
यो देवो अग्नौ यो अप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।
य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः ।।
मंत्र- 21,
सभी इन्द्रियों से रहित सभी विषयों को जानने वाला
सर्वेन्द्रियगुणाभास सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
नवद्वारे पुरे देही हंसो लोलायते बहिः ।।
परमात्मा का स्वरूप
वेदाहमेतं अजरं पुराण सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनों हि प्रवदन्ति नित्यम्॥
मंत्र- 22,
परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हृदय के समीप
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये, विश्वस्य स्त्रष्टारमनेकरूपम्। (कलिल- हृदय)
मंत्र- 14,
जीवात्मा का स्वरूप
वालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः च चानन्त्याय कल्पते ।।
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद् यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।
मंत्र- 23,