UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस
बृहदारण्यक उपनिषत् शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा एक उपनिषद है। यह शतपथ ब्राह्मण के 14वें कांड का अन्तिम भाग है। इसमें 6 अध्याय हैं और उपखंडों (ब्राह्मणों) में विभक्त हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् अद्वैत वेदांत और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है। उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार इसके 3 काण्ड (मधुकाण्ड, मुनिकाण्ड, खिलकाण्ड), 6 अध्याय, 47 ब्राह्मण और प्रलंबित 435 पदों का शांति पाठ 'ऊँ पूर्णमदः' इत्यादि है और ब्रह्मा इसकी संप्रदाय परपरा के प्रवर्तक हैं। यह अति प्राचीन है और इसमें जीव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्म (ईश्वर) के बारे में कई बातें कहीं गईं है। दार्शनिक रूप से महत्वपूर्ण इस उपनिषद पर आदि शंकराचार्य ने भी टीका लिखी थी। यह शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ का एक खंड है और इसको शतपथ ब्राह्मण के पाठ में सम्मिलित किया जाता है।
यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सद्गमय, नेति नेति जैसे विषय हैं। इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है जो अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्तिपूर्ण है। इसके नाम का अर्थ 'बृहद ज्ञान वाला' या 'घने जंगलों में लिखा गया' उपनिषद है। इसमें तत्त्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म तथा उपासनाओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है।
इस उपनिषद् का ब्रह्मनिरूपणात्मक अधिकांश उन व्याख्याओं का समुच्चय है जिनसे अजातशत्रु ने गार्ग्य बालाकि की, जैवलि प्रवाहण ने श्वेतकेतु की, याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी और जनक की तथा जनक के यज्ञ में समवेत गार्गी और जारत्कारव आर्तभाग इत्यादि आठ मनीषियों की ब्रह्मजिज्ञासा निवृत्त की थी।
इस उपनिषद् के अनुसार सृष्टि के पहले केवल ब्रह्म था। वह अव्याकृत था। उसने अहंकार किया जिससे उसने व्याकृत सृष्टि उत्पन्न की; दो पैरवाले, चार पैरवाले, पुर उसने बनाए और उनमें पक्षी बनकर पैठ गया। उसने अपनी माया से बहुत रूप धारण किए और इस प्रकार नाना रूप से भासमान ब्रह्माण्ड की रचना करके उसमें नखाग्र से शिक्षा तक अनुप्रविष्ट हो गया। शरीर में जो आत्मा है वही ब्रह्मांड में व्याप्त है और हमें जो नाना प्रकार का भान होता है वह ब्रह्म रूप है।
पृथ्वी, जल, और अग्नि उसी के मूर्त एवं वायु तथा आकाश अमूर्त रूप हैं। स्त्री, संतान अथवा जिस किसी से मनुष्य प्रेम करता है वह वस्तुत: अपने लिए करता है। अस्तु, यह आत्मा क्या है, इसे ढूँढना चाहिए, ज्ञानियों से इसके विषय में सुनना, इसका मनन करना और समाधि में साक्षात्कार करना ही परम पुरुषार्थ है। 'चक्षुर्वै सत्यम्' अर्थात् आँख देखी बात सत्य मानने की लोकधारणा के विचार से जगत् सत्य है, परंतु वह प्रत्यक्षतः अनित्य और परिवर्तनशील है और निश्चय ही उसके मूल में स्थित तत्व नित्य और अविकारी है।
अतएव मूल तत्व को 'सत्य का सत्य' अथवा अमृत कहते हैं। नाशवान् 'सत्य' से अमृत ढँका हुआ है। अज्ञान अर्थात् आत्मस्वरूप को न जानने के कारण मनुष्य संसार के नाना प्रकार के व्यापारों में लिपटा हुआ सांसारिक वित्त आदि नाशवान पदार्थों से अक्षय सुख की व्यर्थ आशा करता है। कामनामय होने से जिस उद्देश्य की वह कामना करता है तद्रूप हो जाता है, पुण्य कर्मों से पुण्यवान् और पाप कर्मों से पापी होता और मृत्यु काल में उसके प्राण उत्क्रमण करके कर्मानुसार मृत्युलोक, पितृलोक अथवा देवलोक प्राप्त करते हैं। जिस देवता की वह उपासना करता है मानो उसी का पशु हो जाता है। यह अज्ञान आत्मा की 'महती विनष्टि' (सब से बड़ी क्षति) है।
आत्मा और ब्रह्म एक हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जिसे नानात्व दिखता है वह मृत्यु से मृत्यु की ओर बढ़ता है। आत्मा महान, अनंत, अपार, अविनाशी, अनुच्छित्तिधर्मा और विज्ञानधन है। नमक की डली पानी में घुल जाने पर एकरस हो जाने से जैसे नमक और पानी का अभेद हो जाता है, ब्रह्मात्मैक्य तद्रूप अभेदात्मक है। जिस समय साधक को यह अपरोक्षानुभूति हो जाती है कि मैं ब्रह्म हूँ और भूतात्माएँ और मैं एक हूँ उसके द्रष्टा और दृष्टि ज्ञाता और ज्ञेय इत्यादि भेद विलीन हो जाते हैं, और वह 'ब्रह्म भवतिय एवं वेद ब्रह्मभूत हो जाता उसके प्राण उत्क्रमण नहीं करते, वह यहीं जीवन्मुक्त हो जाता है।
वह विधि निषेध के परे है। उसे संन्यास लेकर भैक्ष्यचर्या करनी चाहिए। यह ज्ञान की परमावधि, आत्मा की परम गति और परमानंद है जिसका अंश प्राणियों का जीवनस्त्रोत है। यह शोक-मोह-रहित, विज्वर और विलक्षण आनंद की स्थिति है जिससे ब्रह्म को 'विज्ञानमानंदंब्रह्म' कहा गया है। यह स्वरूप मन और इंद्रियों के अगोचर और केवल समाधि में प्रत्यक्षानुभूति का विषय एवं नामरूप से परे होने के कारण, ब्रह्म का 'नेति नेति' शब्दों द्वारा अंतिम निर्देश है। आत्मसाक्षात्कार के लिए वेदानुबंधन, यज्ञ, दान और तपोपवासादि से चित्तशुद्धि करके सूर्य, चंद्र, विद्युत्, आकाश, वायु, जल इत्यादि अथवा प्राणरूप से ब्रह्म की उपासना का निर्देश करते हुए आत्मचिंतन सर्वश्रेष्ठ उपासना बतलाई गई है।
शान्ति मन्त्र- इस उपनिषद का शान्तिपाठ निम्न है: निम्नलिखित श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद के आरम्भ और अन्त में आता है
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
पवमान मंत्र इस उपनिषद् का प्रसिद्ध श्लोक निम्नलिखित है
ॐ असतो मा सद्गमय ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥
शुक्ल यजुर्वेद"-काण्व शाखा भाग- 3, "
1. मधुकाण्ड - 2,
2. याज्ञवल्क्य काण्ड-2,
3. खिल काण्ड - 2,
प्रत्येक में दो-दो अध्याय कुल छः अध्याय प्रत्येक अध्याय ब्राह्मणों में विभाजित है
प्रथम अध्याय 6 ब्राह्मण
द्वितीय अध्याय 6 ब्राह्मण
तृतीय अध्याय 9 ब्राह्मण
चतुर्थ अध्याय 6 ब्राह्मण
पञ्चम अध्याय 15 ब्राह्मण
षष्ठ अध्याय - 15 ब्राह्मण
मैत्रेयी याज्ञवल्क्य, गार्ग्य- अजातशत्रु, याज्ञवल्क्यजनक, वाचक्रवी याज्ञवल्क्य, याज्ञवल्क्य-गार्गी, (वचक्रुकी पुत्री = गार्गी) कात्यायनी मैत्रेयी, चेकितानेय ब्रह्मदत्त आख्यायिका ।
(1) जाग्रत (2) स्वप्न (3) सुषुप्ति (4) जन्म (5) मरण (6) मोक्ष
अश्व के अवयवों में कालादि सृष्टि
"उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः । सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणो व्यात्तमग्निर्वैश्वानरः संवत्सर आत्माश्वस्य मेध्यस्य । द्यौः पृष्ठमन्तरिक्षमुदरं पृथिवी पाजस्यं दिशः पार्श्वे अवान्तरदिशः पर्शव ऋतवोऽङ्गानि मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यहोरात्राणि प्रतिष्ठा नक्षत्राण्यस्थीनि नभो मांसानि । ऊवध्यं सिकताः सिन्धवो गुदा यकृच्च क्लोमानश्च पर्वता ओषधयश्च वनस्पतयश्च लोमान्युद्यन्पूर्वार्धो निम्लोचञ्जघनार्धो यद्विजृम्भते तद्विद्योतते यद्विधूनुते तत्स्तनयति यन्मेहति तद्वर्षति वागेवास्य वाक् ॥ 1 ॥
शिर- उषा, चक्षु- सूर्य, प्राण वायु, मुख अग्नि वैश्वानर, शरीर वर्ष, आत्मा संवत्सर, पीठ-द्यौ, पेट-अन्तरिक्ष, छाती- पृथिवी, अंग- ऋतु, पर्व- मास, अर्धमास, लोमऔषधि वनस्पति, पाद- पृथ्वी,
प्रजापति के दो पुत्र
(1) देव (2) असुर
याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां कात्यायनी (सामान्य) ।
(1) मैत्रेयी (ब्रह्मवादिनी) (2)
प्राण से बृहस्पति की उपपत्ति
ब्रह्म एक है, मन से ही दृश्य
कर्मफल अवश्यंभावी
मन, वाणी प्राण (3) सार
आत्मा में ब्रह्म का निवास
आत्मा ब्रह्म एक
आत्मा ज्योतिर्मय
ब्रह्म में संसार ओतप्रोत है
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म।
अहं ब्रह्मास्मि ।
नेति नेति।
ॐ खं ब्रह्म ।
पूर्णमदः पूर्णमिदं ।
स एष मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।
आत्मैवेदमग्र आसीत्।
विज्ञातसमरे केन विजानीयात् ।
आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति (अजात-> गार्ग्य)।
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म (शाकल्य > याज्ञवल्क्य ) ।
अमृतञ्च स्थितञ्च यच्च सच्च त्यच्च।
उत्तब्धं वागेव गीथोच्च गीथा चेति सउद्गीथः ।
वाचं धेनुमुपासीत।
अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिरिति।