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कठ उपनिषद्

कठ उपनिषद्
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 कठ उपनिषद्

कठ उपनिषद्

कठोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह कृष्ण यजुर्वेद की 'कठ' शाखा से संबद्ध है । इसमें (2) अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं । इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है । यह उपनिषद आत्म-विषयक आख्यायिका से आरम्भ होती है। प्रमुख रूप से यम नचिकेता के प्रश्न प्रतिप्रश्न के रूप में है। वाजश्रवा लौकिक कीर्ति की इच्छा से विश्वजित याग का अनुष्ठान करते हैं। 

याजक अपनी समग्र सम्पत्ति का दान कर दे यह इस यज्ञ की प्रमुख विधि है । इस विधि का अनुसरण करते हुए उसने अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी । वह निर्धन था इसलिए उसके पास कुछ गायें पीतोदक (जो जल पी चुकी हैं ) जग्धतृण (जो घास खा चुकी हैं अर्थात जिनमें घास खाने की सामर्थ्य नहीं है ) दुग्धदोहा (जिनका दूध दुह लिया गया है) निरिन्द्रिय (जिनकी प्रजनन शक्ति समाप्त हो गयी है ) और दुर्बल थीं। पिता उन गायों को यदि दान करते हैं तो निश्चय ही पुण्य नहीं प्राप्त होगा, जिससे किया जा रहा यज्ञ विफल न हो वैसा मुझे करना चाहिए यह सोचकर उसका पुत्र नचिकेता अपने पिता से, 'मुझे किसे दोगे' ऐसा दो तीन बार पूछता है । तब क्रोधित होकर पिता 'यम को दूंगा' ऐसा बोला।

॥ प्रथम अध्याय ॥

प्रथम वल्ली- ( मंत्र- 29, 

सामान्य परिचय

  • दो मार्ग श्रेय (धीर), प्रेय (मन्द) ● -
  • गौतमवंशीय महर्षि 'अरुण' के पुत्र 'वाजश्रवा'/ 'उद्दालक' ने विश्वजित यज्ञ किया था।
  • 'उद्दालक' 'नवकृत्वोपदेश' करता है,
  • उद्दालक का पुत्र नचिकेता,
  • शिष्य और पुत्रों की तीन श्रेणियाँ उत्तम, मध्यम, अधम । 

नचिकेता के तीन वर -

  • (1) पितृपरितोष (2) अग्निविद्या (3) आत्मविद्या मृत्युरहस्य । 
  • 'सूर्यपुत्र' 'वैवस्वतोदकम्' प्रयोग हुआ है- यमराज के लिये।

कठोपनिषद् की प्रमुख सूक्तियाँ

  • सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः - नचिकेता
  •  येयं प्रेते विचिकित्सामनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीतिचैके - नचिकेता
  • न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:- नचिकेता

द्वितीय वल्ली

  • अन्यच्छ्रेयोऽन्यद्रुतैवप्रेयः- यम ।

अविद्या वालों का स्वरूप

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः,
स्वयं धीराः पण्डितमन्यमानाः,
दन्द्रम्यमाणाः परियन्तिमूढा,
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ - 
यम

नचिकेता की बुद्धिप्रशंसा

नैषा तर्केण मतिरापनेया, प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय श्रेष्ठ। - यम ।

परमात्मा को जानने का फल

अध्यात्म योगाधिगमेन देवं,
मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति -
यम ।

ब्रह्मतत्व वर्णन

“सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति,

तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति,

तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्"- यम

आत्मा स्वरूप वर्णन

“न जायते म्रियते वा विपश्चि,
नायं कुतश्चित्र बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो,
न हन्यते हन्यमाने शरीरे" ॥
यम ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते- यम ।

परमात्मा स्वरूप वर्णन

अणोरणीयान्महतो महीया ,
नात्माम्य जन्तोर्निहितो गुहायाम। 
तमऋतुः पश्यति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥
यम,

परमात्मा की महिमा को जानने वाले पुरुष का स्वभावमहान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति यम । 

  • मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।
  • नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन यम । 
  • यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत औदनः। मृत्युर्यस्योपसेचन क इत्था वेद यत्र सः ।।

ब्राह्मण क्षत्रिय- भोजन, मृत्यु- उपमेचन ।

तृतीय वल्ली

मंत्र- (17) पञ्चाग्नि- गृहस्थ ।

इस वल्ली में परमात्मा को प्राप्त करने के लिये उचित साधनों का वर्णन किया गया है।

  • ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे । 

आत्मानं रथिनं विद्धिः शरीरं रथमेव तु

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।। (प्रग्रह- लगान) 

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। (हयान घोड़े)

इन्द्रियों को असत् मार्ग से रोककर भगवान् की ओर लगाने का प्रकार

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः

नसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।।

महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ।

पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ।

परमात्मा के स्वरूप का वर्णन तथा उसकी प्राप्ति का महत्व

  • "उत्तिष्ठत जाग्रत वरान्निबोधत प्राप्य क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति” | 
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
आनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं,
निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥

(ध्रुवं सत्य तक, निचाय्य जानकर ) । 

  • एतद्धयेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धयेवाक्षरं परम् । 
  • एतदालम्बनं श्रेष्ठम्, एतदालम्बनं परम् ।

॥ द्वितीय अध्याय ।

प्रथम वल्ली

मंत्र (15)

परमेश्वर सभी आत्मा में विद्यमान है कोई विरला ही उसे देख सकता है

“पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभू
तस्मात्पराङ्घश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष
दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।”

परब्रह्म वर्णन

“य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।

(मध्वदं कर्मफलदाता)

  • ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।
  • यः पूर्वं तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत । 
  • या प्राणेन सम्भवत्यदितिर्देवतामयी।

काष्ठ में छिपी अग्नि के समान ब्रह्म छिपा हुआ है

  • अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः।
  • यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति। 

ब्रह्म सर्वत्र है

  • यदेवेहं तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।

 शुद्ध मन से परमात्मा प्राप्त करने योग्य है

मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किञ्चन ।
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्ये आत्मनि तिष्ठति।
यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति ।।
यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति । 
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ।।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।

द्वितीय वल्ली- 

मंत्र - 15

ब्रह्म का सरल शरीर एकादश द्वार वाला

  • पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः ।
  • अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः । 
  • देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते।। 
  • योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।

परब्रह्म की व्यापकता और निर्लेपता वर्णन

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो ।
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।

(इसी प्रकार वायु और सूर्य का भी वर्णन है।) → 

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा,
एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा
स्तेषां सुखं शाश्वते नेतरेषाम् ।।
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतना
नामिको बहूनां यो विदधाति कामान। 
न तत्र सूर्यो भाति न भाति चन्द्रतारक, 
नेना विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । 
तमेव भान्तमनुभाति सर्व 
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥

तृतीय वल्ली- 

( मंत्र- 18 )

  • ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः।
  • तदेवं शुक्रं तद ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।
  • भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः । भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥
  • यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके। 
  • यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।
  • न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य, न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।

योगधारणा से मन और इन्द्रियों को रोककर परमात्मा को प्राप्त करने का दूसरा साधन

यदापञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। 
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।। 
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा । 
अस्तीत्येवोपलव्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः।

संशयरहित दृढ़निश्चय महिमा

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः ।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम्।।

मरने के बाद जीवात्मागति

  • शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिः सृतैका। ( हृदय की 101 नाडियाँ हैं, जिनमें एक सुषुम्ना परमात्मा में तथा 100 नाना योनियों में हैं।)
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा
सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जदिवेषीकां धैर्येण
तं विद्याच्छुक्रममृतं विद्याच्छुक्रममृतमिति।।

योगो हि प्रभवाप्ययौ ।
स्वर्गे लोके न भयं किञ्चिनास्ति।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः ।
अथ मर्त्यो ऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समनुते ।।


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उपनिषद् साहित्य :-

11 श्वेरश्वेतर


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नाम : संस्कृत ज्ञान समूह(Ashish joshi) स्थान: थरा , बनासकांठा ,गुजरात , भारत | कार्य : अध्ययन , अध्यापन/ यजन , याजन / आदान , प्रदानं । योग्यता : शास्त्री(.B.A) , शिक्षाशास्त्री(B.ED), आचार्य(M. A) , contact on whatsapp : 9662941910

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