UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस
तैत्तिरीयोपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में से एक है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है । शिक्षा वल्ली में 12 अनुवाक और 25 मंत्र ब्रह्मानंदवल्ली में 9 अनुवाक और 13 मंत्र तथा भृगुवल्ली में 19 अनुवाक और 15 मंत्र हैं- कुल 53 मंत्र हैं जो 40 अनुवाकों में व्यवस्थित है। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं। तैत्तरीय उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का 7, 8, 9 वाँ प्रपाठक है।
इस उपनिषद् के बहुत से भाष्यों, टीकाओं और वृत्तियों में शांकरभाष्य प्रधान है जिस पर आनंद तीर्थ और रंगरामानुज की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं एवं सायणाचार्य और आनंदतीर्थ के पृथक् भाष्य भी सुंदर हैं। ऐसा माना जाता है कि तैत्तिरीय संहिता व तैत्तिरीय उपनिषद् की रचना वर्तमान में हरियाणा के कैथल जिले में स्थित गाँव तितरम के आसपास हुई थी। वारुणी उपनिषद् में विशुद्ध ब्रह्मज्ञान का निरूपण है जिसकी उपलब्धि के लिये प्रथम शिक्षावल्ली में साधनरूप में ऋत और सत्य, स्वाध्याय और प्रवचन, शम और दम, अग्निहोत्र, अतिथिसेवा श्रद्धामय दान, मातापिता और गुरुजन सेवा और प्रजोत्पादन इत्यादि कर्मानुष्ठान की शिक्षा प्रधानतया दी गई है। इस में त्रिशंकु ऋषि के इस मत का समावेश है कि संसाररूपी वृक्ष का प्रेरक ब्रह्म है तथा रथीतर के पुत्र सत्यवचा के सत्यप्रधान, पौरुशिष्ट के तप: प्रधान एवं मुद्गलपुत्र नाक के स्वाध्याय प्रवचनात्मक तप विषयक मतों का समर्थन हुआ है। 11वें अनुवाक मे समावर्तन संस्कार के अवसर पर सत्य भाषण, गुरुजनों के सत्याचरण के अनुकरण और असदाचरण के परित्याग इत्यादि नैतिक धर्मों की शिष्य को आचार्य द्वारा दी गई शिक्षाएँ शाश्वत मूल्य रखती हैं।
ब्रह्मानंद और भृगुवल्लियों का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' मंत्र से होता है। ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिन्त्य कहा गया है। इस निर्गुण ब्रह्म का बोध उसके अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद इत्यादि सगुण प्रतीकों के क्रमश: चिंतन द्वारा वरुण ने भृगु को करा दिया है। इस उपनिषद् के मत में ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है। प्रजोत्पत्ति द्वारा बहुत होने की अपनी ईश्वरींय इच्छा से सृष्टि की रचना कर ब्रह्म उसमें जीवरूप में अनुप्रविष्ट होता है। ब्रह्मानंदवल्ली के सप्तम अनुवाक में जगत् की उत्पत्ति असत् से बतलाई गई है, किंतु 'असत्'
इस उपनिषद् का पारिभाषिक शब्द है जो अभावसूचक न होकर अव्याकृत ब्रह्म का बोधक है, एवं जगत् को मत नाम देकर उसे ब्रह्म का व्याकृत रूप बतलाया है। ब्रह्म रस अथवा आनंद स्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर समस्त सृष्टि पर्यंत जितना आनंद है उससे निरतिशय आनंद को वह श्रोत्रिय प्राप्त कर लेता है जिसकी समस्त कामनाएँ उपहत हो गई हैं और वह अभय हो जाता है।
इसमें 3 वल्लियां हैं
(1) शिक्षा वल्ली- 12 अनुवाक,
(2) ब्रह्मानन्द वल्ली- 9 अनुवाक
(3) भृगु वल्ली 10 अनुवाक,
शिक्षा के अंग- (6)
भाषाविज्ञान- शिक्षावल्ली में शिक्षा की व्याख्या करते भाषाविज्ञान से संबद्ध 6 शब्द दिए हैं- "वर्णः, स्वरः, मात्रा, बलम्, साम (सन्धि), सन्तानः । इत्युक्त: शीक्षाध्यायः”
वर्णों की सन्धि = "संहिता" कहलाती है। यह जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि को अपना विषय बनाती है तब उसे "महासंहिता" कहते हैं। संहिता के पाँच प्रकार
(1) स्वर (2) व्यञ्जन (3) स्वादि (4) विसर्ग (5) अनुस्वार।
महासंहिता/महासंधि के पांच आश्रय
(1) लोक (2) ज्योति (3) विद्या (4) प्रजा (5) आत्मा।
सह नौ ब्रह्मवर्चसम् श्रुत में गोपाय | (अनुवाक - 4 )
षष्ठ अनुवाकषष्ठ अनुवाक में 'सुषुम्ना' नाड़ी का वर्णन है। → आकाशशरीरं ब्रह्म।
"भूर्भुवः स्वरिति वा एतास्तिस्त्रो व्याहृतयः ।”
चौथी व्याहृति- महः (ब्रह्म) इसको सर्वप्रथम ( महाचमस) के पुत्र ने जाना था।
भूः- पृथिवी लोक, अग्नि ऋग्वेद प्राण।
भुवः- अन्तरिक्ष लोक, वायु, सामवेद, अपान ।
स्वः- स्वर्ग लोक, सूर्य, यजुर्वेद, व्यान, महः- आदित्य, चन्द्रमा, ब्रह्म अन्नम् इस नाम से 'ह' प्रसिद्ध है
लोकों की पङ्क्ति
ज्योतिसमुदायकीपतिः |
स्थूल पदार्थों की पङ्क्ति
प्राणों की पङ्क्ति
करणों की पङ्क्ति
धातुओं की पङ्कि
सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः । सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम् ।
मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव ।
यान्यास्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ।
त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
शन्नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।
यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः ।
ब्रह्मविद् आप्नोति परम्।
अन्न को सर्वौषध कहा गया है
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते ।
पञ्चकोश- अन्नमय- अन्न समस्त प्राणियों की उत्पत्ति आदि का कारण है, इसी पर सबकुछ निर्भर है, अत: यही सबसे श्रेष्ठ है । इस अन्नरसमय मनुष्यशरीर से भिन्न उसके भीतर रहने वाला प्राणमय पुरुष है। उस प्राणमय पुरुष का प्राण - शिरः, व्यान - दक्षिण पक्षः, अपान - उत्तरपक्षः, आकाश - आत्मा, पृथिवी - पुच्छं प्रतिष्ठा ।
तस्यैष एव शरीर आत्मा यः पूर्वस्य ।
तस्य - आनन्दमय, पूर्वस्य - विज्ञानमय, आनन्दमय = आत्मा
विज्ञानं यज्ञं तनुते ।
विज्ञानं देवाः सर्वे ।
ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते।
असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत।
रसो वै सः।
युवा स्यात् साधुयुवा।
भीषास्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूर्यः । भीषास्माद अग्निश्चेन्द्रश्च। मृत्युर्धावति पञ्चमः ।
ये ते शतं मानुषा आनन्दाः । स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामृत्।
स यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये स एकः ।
भृगुर्वै वारुणिः । वारुणि का पुत्र भृगु
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति ।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति ।
“अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् । अन्नाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। अन्नेन जातानि जीवन्ति। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तपो ब्रह्मेति” ।
इसी प्रकार (तप, प्राण, आनन्द, मन, विज्ञान का भी वर्णन है ।
अन्नं न निन्द्यात्। तद्वतम। प्राणो वा अन्नम्। शरीरमन्नादम्।
प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितं ।
शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः ।
अन्नं न परिचक्षीत।
अन्नं बहु कुर्वीत।
न कश्चन वसतौ प्रत्याचक्षीत।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन ।
श्रुतं मे गोपाय।
सोऽकामयत बहु म्यां प्रजायेयेति।
एप आदेश: एप उपदेशः एष वेदोपनिषद् |