वेदों के गूढ अर्थी को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न पद्धतियाँ अपनाई है । इनका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
(1) आचार्य यास्क:
आचार्य यास्क प्रथम आचार्य है, जिन्होंने वेदों की व्याख्या के लिए आवश्यक नियमों का निर्देश किया है । प्रायः सभी परवर्ती आचार्यों ने यास्क के निर्देशों का पालन किया है । वेदों की व्याख्या करते समय इन नियमों का पालन करना चाहिए :
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(2) आचार्य सायण :
वेदों की व्याख्या करने वाले आचार्यों में आचार्य मायण का स्थान अग्रगण्य है । वे अकेले ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने सभी वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों आदि की भी व्याख्या की है। उन्होंने परम्परागत शैली को अपनाया है। तथा यज्ञ प्रक्रिया को सर्वत्र प्रधानता दी है। उन्होंने ब्राह्मण-ग्रन्थों और सूत्रग्रन्थों आदि को आधार बनाया है। निरुक्त की व्याख्या को भी अपनाया है। स्थान-स्थान पर आध्यात्मिक और दार्शनिक व्याख्या भी की है। वे वेदों में इतिहास मानते हैं । वेदों को अपौरुषेय और नित्य मानते हैं। लौकिक इतिहास मानने के कारण स्वामी दयानन्द जी ने इनकी कटु आलोचना की है। पाश्चात्य विद्वानों का आक्षेप है कि परवर्ती शंकराचार्य आदि द्वारा प्रतिपादित अद्वैत-सिद्धान्त आदि का वेदों की व्याख्या में उल्लेख विपर्यस्तता दोष (Anachronism) है। प्रो. रुडोल्फ रोथ ने सायण बहुत आलोचना की है और कई दोष निकाले हैं, परन्तु मैक्समूलर, विल्सन, गेल्डनर आदि विद्वान् सायण के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं और मानते हैं कि सायण के भाष्य के आधार पर ही वैदिक वाड्मय में उनकी काल-गति हो सकी है। वस्तुतः पाश्चात्त्य जगत् को वेदों का ज्ञान देने वाले आचार्य सायण ही हैं । की
(1) स्वामी दयानन्द सरस्वती : आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती आधुनिक युग में वेदों के पुनरुद्धारक माने जाते हैं उन्होंने नैरुक्त प्रक्रिया का आश्रय लेकर वेदों की नई व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने शुक यजुर्वेद संपूर्ण की संस्कृत और हिन्दी में व्याख्या की है। ऋग्वेद की व्याख्या मंडल 7 के 80 सूक्त तक ही कर सके असामयिक निधन से ऋग्वेद भाष्य पूरा नहीं हो सका । महर्षि दयानन्द के मन्तव्य एवं भाष्य की मुख्य विशेषताएँ ये है:
(2) पं. मधुसूदन ओझा : महामहोपाध्याय प. मधुसूदन ओझा वेदो क वैज्ञानिक व्याख्या करने वालों में अग्रगण्य हैं। उनका लन्दन में संस्कृत में दिया गया एक व्याख्यान बहुत प्रसिद्ध है "अति नूनं, नहि नहि अतिप्रत्नं रहस्यम्' अर्थात् अति नवीन रहस्य, नहीं, अपितु यह अति प्राचीन रहस्य है । यद्यपि उन्होंने किसी वेद या ब्राह्मण ग्रन्थ पर भाष्य नहीं लिखा है, परन्तु इन्होंने संस्कृत में 100 से अधिक ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी शिष्य परंपरा में विशेष उल्लेखनीय है पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी और मोतीलाल शर्मा । पं० गिरिधर शर्मा जी ने ओझा जी के विचारों का सुन्दर प्रतिपादन अपने ग्रन्थ 'वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति' में किया है श्री मोतीलाल शर्मा ने एक उच्चकोटि का ग्रन्थ 'दिग्देशकालमीमांसा' लिखा है ।
(3) डा. वासुदेवशरण अग्रवाल : महामनीषी डा. अग्रवाल श्री ओझा जी की व्याख्या-पद्धति के अनुयायी हैं। आपने वेदविद्या, वेदरश्मि, उरुज्योति आदि ग्रन्थ हिन्दी में लिखे हैं और इंग्लिश में "Vision in Long Darkness", Thousand syllabled speech, Vedic Lectures आदि ग्रन्थों के द्वारा वेदों की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक व्याख्या की है ।
(4) योगी अरविन्द : श्री अरविन्द घोष क्रान्तिकारी जीवन बिताने के बाद अरविन्द आश्रम, पांडिचेरी में योगसाधना में प्रवृत्त हुए। इन्होंने Veda, Hymns to the mystic Fire, On the Veda " आदि ग्रन्थ वेदों पर लिखे हैं। इन्होंने स्वामी दयानन्द के इन विचारों की पुष्टि की है कि 'सर्वज्ञानमयो हि सः' (मनु The secret of 2.7) अर्थात् वेदों में सभी ज्ञान-विज्ञान के सूत्र विद्यमान है । इनकी दृष्टि रहस्यवादी है । ये वेदों में अध्यात्मविद्या के गूढ रहस्यों की उपस्थिति मानते हैं। वेद आध्यात्मिक अनुभूतियों के कोश हैं। उन्होंने कुछ शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है 1. इन्द्र प्रबुद्ध मन का देवता है, वृत्र अज्ञान या अविद्या का प्रतीक है। 2. ऋत आध्यात्मिक सत्य है । 3. घृत घी ही नहीं, अपितु ज्ञान के प्रकाश का द्योतक है । इस प्रकार श्री अरविन्द ने वेदों की आध्यात्मिक एवं रहस्यवादी व्याख्या की है ।
(5) श्री सातवलेकर : वेदमूर्ति श्री पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर आधुनिक युग के सायण हैं। उन्होंने चारों वेदों, तैत्तिरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, दैवत संहिता आदि के विशुद्ध संस्करण निकाले हैं और चारों वेदों का हिन्दी में 'सुबोध भाष्य' प्रकाशित किया है ।
(6) डा. आनन्द कुमार स्वामी : डा. स्वामी आधुनिक कलाविद थे। उन्होंने 'A New approach to the Vedas' ग्रन्थ लिखा है। इसमें उन्होंने वेदों को सिद्धों की वाणी कहा है ।
(7) डा. विष्णुकुमार वर्मा : डा. वर्मा ने 'वैदिक सृष्टिउत्पत्तिरहस्य' नामक ग्रन्थ दो भागों में लिखा है। उन्होंने वैदिक विचारधारा का आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। डा. वर्मा ने वैदिक शब्दावली की विज्ञानपरक व्याख्या प्रस्तुत की है ।
पाश्चात्त्य विद्वानों ने वेदार्थ के अनुशीलन के लिए तुलनात्मक भाषाशास्त्र और इतिहास की आवश्यकता पर बल दिया है। इस पद्धति को ऐतिहासिक पद्धति (Historical Method) कहते हैं । इसके मूल में यह भावना निहित है कि भारोपीय भाषा परिवार एक है। संस्कृत, लेटिन, ग्रीक्, जर्मन, इंग्लिश् आदि एक ही भारोपीय भाषा से निकले हैं।
समस्त भारोपीय आर्य परिवार के व्यक्ति प्रारम्भ में एक ही स्थान पर रहते थे। मूल भारोपीय भाषा एक ही थी। धीरेधीरे आर्य परिवार के संगठन विभिन्न स्थानों पर गए। वे अपने साथ मूल धार्मिक भावनाओं को भी लेते गए। अतः उनके कर्मकांड, धार्मिक मान्यताओं एवं संस्कृतियों में मूलरूप से एकता है। इस एकत्व को आधार मानकर देवशास्त्र, कर्मकाण्ड आदि की तुलनात्मक व्याख्या की जा सकती है। इस मान्यता को अपनाकर प्रो. रुडोल्फ रोठ आदि विद्वानों ने वेदों की व्याख्या करने का प्रयत्न किया है।
यह पद्धति सैद्धान्तिक रूप से सर्वथा ग्राह्य है। भाषाविज्ञान के आधार पर अनेक वैदिक देवों का इतिहास ज्ञात होता है। कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी ज्ञात होते हैं। परन्तु इतने मात्र से वेदार्थ स्पष्ट होना संभव नहीं है। इस पद्धति के कुछ प्रमुख दोष ये हैं
(1) इस पद्धति से केवल देववाचक आदि कुछ शब्दों का स्पष्टीकरण होता है, अन्य का नहीं। ऐसे शब्द 10 प्रतिशत से अधिक नहीं है। शेष के लिए मार्ग अवरुद्ध है।
(2) इसमें वेदार्थ की गहराई में जाने का प्रयत्न नहीं किया गया है।
(3) वेदमंत्रों के आध्यात्मिक और दार्शनिक अर्थ की उपेक्षा की गयी है।
(4) इस पद्धति के द्वारा मंत्रों के अर्थ का अनर्थ किया गया है और मनगढ़न्त अर्थ दिए गए हैं। अत: वेदार्थ के लिए यह पद्धति स्वीकार्य नहीं है ।