संस्कृत धातुरूप – ह्वादिगण (जुहोत्यादि)
संस्कृत व्याकरण के दस गणों में से एक है ह्वादिगण, जिसे जुहोत्यादि गण भी कहा जाता है। इस गण का नाम इसकी पहली धातु हु (अर्थ: अर्पण करना, हवि देना) से लिया गया है। ह्वादिगण संस्कृत के धार्मिक और वैदिक साहित्य में विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इसमें वे धातुएं आती हैं जो यज्ञ, अर्पण, और संबंधित क्रियाओं का वर्णन करती हैं।
ह्वादिगण (जुहोत्यादि) का परिचय
ह्वादिगण, पाणिनि की अष्टाध्यायी में उल्लिखित धातुओं का एक समूह है, जिसमें मुख्यतः आत्मनेपदी धातुएं सम्मिलित हैं। इस गण की धातुएं अर्पण, देना, और त्याग जैसे भावों को व्यक्त करती हैं।
ह्वादिगण का विशेष महत्व धार्मिक अनुष्ठानों और वैदिक साहित्य में है, क्योंकि इसका उपयोग यज्ञ और अर्पण से संबंधित क्रियाओं को व्यक्त करने के लिए होता है।
ह्वादिगण (जुहोत्यादि) की विशेषताएं
- आत्मनेपदी प्रकृति: इस गण की अधिकांश धातुएं आत्मनेपदी होती हैं, जिनसे क्रिया का फल स्वयं कर्ता को प्राप्त होता है।
- वैदिक महत्व: यज्ञ और धार्मिक क्रियाओं से जुड़ी धातुओं के कारण यह गण वैदिक साहित्य में प्रमुखता से उपयोग होता है।
- गुण विकार: धातुओं के रूप में गुण परिवर्तन (स्वर परिवर्तन) देखने को मिलता है।
ह्वादिगण (जुहोत्यादि) की धातु सूची
नीचे ह्वादिगण की प्रमुख धातुएं और उनके अर्थ दिए गए हैं:
ह्वादिगण या जुहोत्यादि गण संस्कृत के तृतीय गण में आता है। इस गण की धातुएँ विशेष रूप से परस्मैपदी होती हैं। इन धातुओं का प्रयोग अग्निहोत्र, यज्ञ, देना, ग्रहण करना आदि क्रियाओं के लिए होता है। यहाँ तृतीय गण की धातुओं की सूची हिंदी अर्थ और उदाहरण के साथ तालिका में दी गई है:
संस्कृत धातु | हिंदी अर्थ | उदाहरण (लट् लकार) |
---|---|---|
जुह् | अर्पण करना, होम करना | सः जुहोति (वह होम करता है)। |
दिह् | लेपना | सः दिहति (वह लेप करता है)। |
मुह् | मूर्छित होना | सः मुह्यति (वह मूर्छित होता है)। |
ग्रह् | ग्रहण करना | सः गृह्णाति (वह ग्रहण करता है)। |
शुच् | शुद्ध होना | सः शुचति (वह शुद्ध होता है)। |
द्रुह् | द्वेष करना | सः द्रुहोति (वह द्वेष करता है)। |
लिप् | चिपकाना | सः लिम्पति (वह चिपकाता है)। |
स्पृह् | इच्छा करना | सः स्पृहयति (वह इच्छा करता है)। |
ह्वादिगण की धातुओं का विशेष प्रयोग
- ह्वादिगण की धातुएँ मुख्यतः यज्ञ और अर्पण संबंधी क्रियाओं में प्रयुक्त होती हैं।
- इन धातुओं का रूप लट् लकार (वर्तमान काल), लङ्ग् लकार (भूतकाल), और लोट् लकार (आज्ञा) में भिन्न-भिन्न प्रकार से बनता है।
- ये धातुएँ सामान्यतः परस्मैपदी होती हैं, इसलिए इनके रूपों में ति, सि, और मि आदि प्रत्यय लगते हैं।
धातु "जुह्" (होम करना) के रूप (लट् लकार)
पुरुष | एकवचन | द्विवचन | बहुवचन |
---|---|---|---|
प्रथम | जुहोति | जुहोत: | जुहोति |
मध्यम | जुहोसि | जुहोथ: | जुहोथ |
उत्तम | जुहोमि | जुहोव: | जुहोम: |
ह्वादिगण (जुहोत्यादि) के लकार रूप
ह्वादिगण की धातुएं संस्कृत के विभिन्न लकारों में उपयोग की जाती हैं। उदाहरण:
-
लट् लकार (वर्तमान काल):
- जुहोति (वह अर्पण करता है)
- तिष्ठति (वह खड़ा होता है)
-
लङ् लकार (भूतकाल):
- जुहुत (उसने अर्पण किया)
- अतिष्ठत् (वह खड़ा था)
-
लृट् लकार (भविष्यकाल):
- जुहोष्यति (वह अर्पण करेगा)
- स्थास्यति (वह खड़ा होगा)
ह्वादिगण (जुहोत्यादि) का व्यावहारिक उपयोग
ह्वादिगण की धातुओं का मुख्य उपयोग वैदिक अनुष्ठानों और धार्मिक ग्रंथों में होता है।
- हु धातु: यज्ञ और अर्पण की क्रियाओं में प्रयोग होती है।
- स्था धातु: शारीरिक या मानसिक स्थिरता व्यक्त करने के लिए।
- दा धातु: भिक्षा, दान, और देने के भाव को दर्शाने के लिए।
निष्कर्ष
ह्वादिगण (जुहोत्यादि गण) संस्कृत भाषा और वैदिक परंपरा का अभिन्न हिस्सा है। इसका अध्ययन धार्मिक और व्याकरणिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यज्ञ, ध्यान, और अर्पण से संबंधित क्रियाओं को व्यक्त करने वाली इन धातुओं का ज्ञान संस्कृत के वैदिक पक्ष को समझने की कुंजी है।
ह्वादिगण की धातुएं न केवल भाषा की संरचना को गहराई देती हैं, बल्कि यह वैदिक परंपराओं और संस्कृत साहित्य की समृद्धि को भी उजागर करती हैं।