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ह्वादिगण (जुहोत्यादि) (तृतीय गण) परिचय, महत्व, धातु सूची, उपयोग

ह्वादिगण (जुहोत्यादि) (तृतीय गण) परिचय, महत्व, धातु सूची, उपयोग

 संस्कृत धातुरूप – ह्वादिगण (जुहोत्यादि)

संस्कृत व्याकरण के दस गणों में से एक है ह्वादिगण, जिसे जुहोत्यादि गण भी कहा जाता है। इस गण का नाम इसकी पहली धातु हु (अर्थ: अर्पण करना, हवि देना) से लिया गया है। ह्वादिगण संस्कृत के धार्मिक और वैदिक साहित्य में विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इसमें वे धातुएं आती हैं जो यज्ञ, अर्पण, और संबंधित क्रियाओं का वर्णन करती हैं।


ह्वादिगण (जुहोत्यादि) का परिचय

ह्वादिगण, पाणिनि की अष्टाध्यायी में उल्लिखित धातुओं का एक समूह है, जिसमें मुख्यतः आत्मनेपदी धातुएं सम्मिलित हैं। इस गण की धातुएं अर्पण, देना, और त्याग जैसे भावों को व्यक्त करती हैं।

ह्वादिगण का विशेष महत्व धार्मिक अनुष्ठानों और वैदिक साहित्य में है, क्योंकि इसका उपयोग यज्ञ और अर्पण से संबंधित क्रियाओं को व्यक्त करने के लिए होता है।


ह्वादिगण (जुहोत्यादि) की विशेषताएं

  1. आत्मनेपदी प्रकृति: इस गण की अधिकांश धातुएं आत्मनेपदी होती हैं, जिनसे क्रिया का फल स्वयं कर्ता को प्राप्त होता है।
  2. वैदिक महत्व: यज्ञ और धार्मिक क्रियाओं से जुड़ी धातुओं के कारण यह गण वैदिक साहित्य में प्रमुखता से उपयोग होता है।
  3. गुण विकार: धातुओं के रूप में गुण परिवर्तन (स्वर परिवर्तन) देखने को मिलता है।

ह्वादिगण (जुहोत्यादि) की धातु सूची

नीचे ह्वादिगण की प्रमुख धातुएं और उनके अर्थ दिए गए हैं:

ह्वादिगण या जुहोत्यादि गण संस्कृत के तृतीय गण में आता है। इस गण की धातुएँ विशेष रूप से परस्मैपदी होती हैं। इन धातुओं का प्रयोग अग्निहोत्र, यज्ञ, देना, ग्रहण करना आदि क्रियाओं के लिए होता है। यहाँ तृतीय गण की धातुओं की सूची हिंदी अर्थ और उदाहरण के साथ तालिका में दी गई है:


संस्कृत धातुहिंदी अर्थउदाहरण (लट् लकार)
जुह्अर्पण करना, होम करनासः जुहोति (वह होम करता है)।
दिह्लेपनासः दिहति (वह लेप करता है)।
मुह्मूर्छित होनासः मुह्यति (वह मूर्छित होता है)।
ग्रह्ग्रहण करनासः गृह्णाति (वह ग्रहण करता है)।
शुच्शुद्ध होनासः शुचति (वह शुद्ध होता है)।
द्रुह्द्वेष करनासः द्रुहोति (वह द्वेष करता है)।
लिप्चिपकानासः लिम्पति (वह चिपकाता है)।
स्पृह्इच्छा करनासः स्पृहयति (वह इच्छा करता है)।

ह्वादिगण की धातुओं का विशेष प्रयोग

  1. ह्वादिगण की धातुएँ मुख्यतः यज्ञ और अर्पण संबंधी क्रियाओं में प्रयुक्त होती हैं।
  2. इन धातुओं का रूप लट् लकार (वर्तमान काल), लङ्ग् लकार (भूतकाल), और लोट् लकार (आज्ञा) में भिन्न-भिन्न प्रकार से बनता है।
  3. ये धातुएँ सामान्यतः परस्मैपदी होती हैं, इसलिए इनके रूपों में ति, सि, और मि आदि प्रत्यय लगते हैं।

धातु "जुह्" (होम करना) के रूप (लट् लकार)

पुरुषएकवचनद्विवचनबहुवचन
प्रथमजुहोतिजुहोत:जुहोति
मध्यमजुहोसिजुहोथ:जुहोथ
उत्तमजुहोमिजुहोव:जुहोम:

ह्वादिगण (जुहोत्यादि) के लकार रूप

ह्वादिगण की धातुएं संस्कृत के विभिन्‍न लकारों में उपयोग की जाती हैं। उदाहरण:

  1. लट् लकार (वर्तमान काल):

    • जुहोति (वह अर्पण करता है)
    • तिष्ठति (वह खड़ा होता है)
  2. लङ् लकार (भूतकाल):

    • जुहुत (उसने अर्पण किया)
    • अतिष्ठत् (वह खड़ा था)
  3. लृट् लकार (भविष्यकाल):

    • जुहोष्यति (वह अर्पण करेगा)
    • स्थास्यति (वह खड़ा होगा)

ह्वादिगण (जुहोत्यादि) का व्यावहारिक उपयोग

ह्वादिगण की धातुओं का मुख्य उपयोग वैदिक अनुष्ठानों और धार्मिक ग्रंथों में होता है।

  • हु धातु: यज्ञ और अर्पण की क्रियाओं में प्रयोग होती है।
  • स्था धातु: शारीरिक या मानसिक स्थिरता व्यक्त करने के लिए।
  • दा धातु: भिक्षा, दान, और देने के भाव को दर्शाने के लिए।


॥ अथ जुहोत्यादिगणः ॥

हु दानादनयोः ।

हु-देना और खाना ।

सूत्रम्- जुहोत्यादिभ्यः श्रुः | 2/4/75

वृत्ति: शपः ः म्यात् ।

हिन्दी अर्थ - जुहोत्यादिगण की धातुओं से परे शप् का श्रु ( लोप ) हो।

सूत्रम्- लौ । 6/1/10

वृत्ति:- धातोर्द्वे स्तः । जुहोति जुहुतः ।

हिन्दी अर्थ - श्रु परे होने पर अर्थात् जहाँ शप् को श्रु हुआ है, वहाँ धातु

को द्वित्व हो ।

77

स्पर्धाप्रकाश

जुहोति यहाँ श्रु हुआ है अतः द्वित्व होता है तब हु+हु+ति इस दशा में पूर्वखण्ड अभ्यास को कुहोधुः मे चवर्ग झ और अभ्यासे चर्च से जरा जकार तथा उत्तरखण्ड में सार्वधातुक गुण होकर जुहोति रूप सिद्ध हुआ। जुहुतः तस् के अपित सार्वधातुक होने से ङिद्वत् हो जाने के कारण गुण नहीं होता। अतः जुहुतः रूप बनता है।

सूत्रम्- अदभ्यस्तात् । 7/1/4

वृत्तिः झस्यात् स्यात् । हुनुवोः इति यण जुह्वति । हिन्दी अर्थ - अभ्यस्त से परे झ को अत् आदेश हो ।

जुह्वति- हु धातु से परे झ को प्रकृत सूत्र से अत् आदेश होता है। जुहु + अति इस दशा में उवङ प्राप्त होता है। विशेष विहित होने से उसको बाधकर हुनुवोः सार्वधातुके से यण होकर जुह्वति रूप बनता है ।

सूत्रम्- भी-ह्री-भृ-हुवां वच्च । 3/1/39

वृत्तिः एभ्यो लिटि आम् वा स्यात् आमि श्लाविव कार्य च। जुहवाञ्चकार, जुहाव होता, होष्यति । जुहोतु जुहुतात्, जुहुताम, जुह्वतुः, जुहुधि, जुहवानि । अजुहोत्, अजुहुताम् ।

हिन्दी अर्थ - भी, ह्री, भृ और हु (हवन करना) इन धातुओं से आम् प्रत्यय हो लिट् परे होने पर विकल्प से, तथा लु के विषय में जो कार्य ( द्वित्व) होता है वह भी हो ।

लुट् में- होता, होतारौ, होतारः इत्यादि रूप बनते हैं। यहाँ धातु के अनिट् होने से इट् आगम नहीं होता धातु के उकार को आधर्धातुक गुण हो जाता है। लृट् में- होष्यति, होष्यतः, होष्यन्ति आदि रूप सिद्ध होते हैं । लोट् में- लट् के समान शप् का लु और द्वित्व आदि कार्य होंगे। जुहुधि- यह सिप् का रूप है। सिप को हि होता है और उसको हुझल्भ्यो हेर्धिः सेधि आदेश होकर रूप बनता है। जुहवानि - उत्तम में आट् के पित् होने से हुभ्रुवोः सार्वधातुके के यण् को बाधकर गुण और अवादेश होकर जुहवानि, जुहवाव, जुहवाम रूप बनते हैं। लङ् में- तिप् का अजुहोत् और तस् का अजुहुताम् रूप बनता है।

सूत्रम् - जुसि च । 7/3/83

वृत्ति:- इगन्ताङ्गस्य गुणोऽजादौ जुसि । अजुहवुः । जुहुयात् । हूयात् । अहौषीत, अहोष्यत् ।

27

संस्कृतप्रतिस

हिन्दी अर्थ - इगन्न अङ्ग का गुण हो अजादि तुम पर होन पर लिंङ में पास और लुड़ में सिंच के कारण जुम अजादि नहीं रहता अत वहाँ यण न हो, इस के लिये यह विशेषण दिया

गया है। अजुहवु:- अजुहु + उस इस दशा में रखंड आदेश का बाधकर प्रकृत सूत्र से गुण होने पर अब आदेश होकर रूप सिद्ध होना है। जुहुयात् विधिलिड में जुहुयात. जुहुयाताम जूह आदि रूप बनते हूयात्- आशीर्लिङ मे अकृत्सार्वधातुकयोः दीर्घ से दीर्घ होकर हुयात. हूयास्ताम, हुयासु आदि रूप सिद्ध होत है। अहौषीत् लुड मे सिचिवृद्धिपरस्मैपदेषु से उकार का वृद्धि होती है । अनिट् धातु है अत अहौषीत, अहौष्टाम, अहोषु इत्यादि रूप बनते है। इ में अहोष्यत् अहोष्यताम् अहोष्यन् आदि रूप बनते है ।



निष्कर्ष

ह्वादिगण (जुहोत्यादि गण) संस्कृत भाषा और वैदिक परंपरा का अभिन्न हिस्सा है। इसका अध्ययन धार्मिक और व्याकरणिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यज्ञ, ध्यान, और अर्पण से संबंधित क्रियाओं को व्यक्त करने वाली इन धातुओं का ज्ञान संस्कृत के वैदिक पक्ष को समझने की कुंजी है।

ह्वादिगण की धातुएं न केवल भाषा की संरचना को गहराई देती हैं, बल्कि यह वैदिक परंपराओं और संस्कृत साहित्य की समृद्धि को भी उजागर करती हैं।

मम विषये! About the author

ASHISH JOSHI
नाम : संस्कृत ज्ञान समूह(Ashish joshi) स्थान: थरा , बनासकांठा ,गुजरात , भारत | कार्य : अध्ययन , अध्यापन/ यजन , याजन / आदान , प्रदानं । योग्यता : शास्त्री(.B.A) , शिक्षाशास्त्री(B.ED), आचार्य(M. A) , contact on whatsapp : 9662941910

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