संस्कृत धातुरूप – दिवादिगण
संस्कृत व्याकरण में धातु शब्द निर्माण का आधार है। पाणिनि द्वारा संरचित अष्टाध्यायी में सभी धातुओं को 10 गणों में वर्गीकृत किया गया है। इनमें चौथा गण है दिवादिगण, जो अपनी विशेषताओं और उपयोगिता के कारण व्याकरण में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस गण का नाम इसकी पहली धातु दिव् (अर्थ: खेलना, चमकना) के आधार पर रखा गया है।
दिवादिगण का परिचय
दिवादिगण की धातुएं मुख्यतः आत्मनेपदी होती हैं, अर्थात् क्रिया का फल स्वयं कर्ता को प्राप्त होता है। इन धातुओं से बनने वाले शब्दों और क्रियापदों का उपयोग अक्सर वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत में किया जाता है। इस गण की धातुएं मुख्य रूप से खेल, चमक, और सौंदर्य से जुड़े अर्थों को व्यक्त करती हैं।
दिवादिगण की विशेषताएं
- धातुओं की प्रकृति: दिवादिगण में आने वाली धातुएं अधिकतर सौंदर्य, प्रकाश, और खेल से संबंधित हैं।
- आत्मनेपदी धातुएं: इस गण में आत्मनेपदी धातुओं का बहुमत है।
- गुण विकार: दिवादिगण की धातुओं में स्वर परिवर्तन (गुण) का स्पष्ट रूप देखने को मिलता है।
- वैदिक महत्व: इस गण की धातुएं वैदिक साहित्य में भावनात्मक और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के लिए उपयोग की जाती हैं।
दिवादिगण की धातु सूची
नीचे दिवादिगण की प्रमुख धातुएं और उनके अर्थ दिए गए हैं:
दिवादिगण (चतुर्थ गण) में वे धातुएँ आती हैं जिनका अर्थ सामान्यतः चमकना, खेलना, क्रीड़ा करना आदि से जुड़ा होता है। इस गण की धातुएँ सामान्य रूप से आत्मनेपदी होती हैं, अर्थात् इनके क्रिया रूप आत्मनेपदी प्रत्ययों के साथ बनते हैं। यहाँ दिवादिगण की धातुओं की सूची हिंदी अर्थ और उदाहरण के साथ प्रस्तुत की गई है:
संस्कृत धातु | हिंदी अर्थ | उदाहरण (लट् लकार) |
---|---|---|
दिव् | चमकना | सूर्यः दिव्यते (सूर्य चमकता है)। |
क्रीड् | खेलना | बालः क्रीडते (बालक खेलता है)। |
नृत् | नृत्य करना | नर्तकी नृत्यते (नर्तकी नृत्य करती है)। |
स्पर्ध् | स्पर्धा करना | सः स्पर्धते (वह स्पर्धा करता है)। |
जुष् | आनंद लेना | सः जुष्यते (वह आनंद लेता है)। |
तुष् | संतुष्ट होना | सः तुष्यते (वह संतुष्ट होता है)। |
मुद् | प्रसन्न होना | सः मुद्यते (वह प्रसन्न होता है)। |
सिध् | सिद्ध होना | कार्यं सिध्यते (कार्य सिद्ध होता है)। |
हृष् | हर्षित होना | सः हृष्यते (वह हर्षित होता है)। |
मृष् | सहन करना | सः मृष्यते (वह सहन करता है)। |
वृत् | घिरना | वृत्तं वर्तते (वह चक्कर खाता है)। |
विशेषताएँ:
- दिवादिगण की धातुएँ आत्मनेपदी होने के कारण इनके रूप आत्मनेपदी प्रत्ययों से बनते हैं।
- इस गण की धातुएँ लट् लकार (वर्तमान काल), लङ्ग् लकार (भूतकाल) और लोट् लकार (आज्ञा) में प्रयुक्त होती हैं।
- दिवादिगण की धातुएँ संस्कृत साहित्य में भावात्मक क्रियाओं के लिए प्रायः प्रयोग होती हैं।
धातु "दिव्" (चमकना) के रूप (लट् लकार)
पुरुष | एकवचन | द्विवचन | बहुवचन |
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प्रथम | दिव्यते | दिव्येते | दिव्यन्ते |
मध्यम | दिव्यसे | दिव्येथे | दिव्यध्वे |
उत्तम | दिव्ये | दिव्यावहे | दिव्यामहे |
दिवादिगण के लकार रूप
दिवादिगण की धातुएं संस्कृत के विभिन्न लकारों में प्रयोग की जाती हैं। उदाहरण:
-
लट् लकार (वर्तमान काल):
- दीव्यते (वह खेलता है)
- मोदते (वह आनंदित होता है)
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लङ् लकार (भूतकाल):
- अदिवत (उसने खेला)
- अमोदत (वह आनंदित हुआ)
-
लृट् लकार (भविष्यकाल):
- दिविष्यते (वह खेलेगा)
- मोदिष्यते (वह आनंदित होगा)
दिवादिगण का व्यावहारिक उपयोग
दिवादिगण की धातुएं मुख्यतः जीवन के आनंद, क्रिया, और सौंदर्य से संबंधित हैं।
- दिव्: इस धातु का उपयोग चमक और दिव्यता को व्यक्त करने के लिए होता है।
- मुद्: आनंद और प्रसन्नता के संदर्भ में उपयोगी।
- श्रि: शरण और स्थिरता व्यक्त करने के लिए प्रयोग होती है।
संस्कृत साहित्य में, दिवादिगण की धातुओं से निर्मित शब्द सौंदर्य और गहराई को व्यक्त करने में सहायक होते हैं।
निष्कर्ष
दिवादिगण संस्कृत व्याकरण का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो क्रियाओं के सौंदर्य और भावनात्मक अभिव्यक्ति को दर्शाता है। इस गण की धातुएं न केवल शास्त्रीय साहित्य में उपयोगी हैं, बल्कि वैदिक रचनाओं में भी इनका विशेष महत्व है। दिवादिगण का अध्ययन संस्कृत भाषा की गहराई और विविधता को समझने के लिए आवश्यक है।
दिवादिगण की धातुएं हमें यह सिखाती हैं कि भाषा के माध्यम से भावनाओं, गतिविधियों, और सौंदर्य को कैसे व्यक्त किया जा सकता है। यह संस्कृत की संरचना और उसके सांस्कृतिक महत्व को उजागर करने का एक सुंदर माध्यम है।