पुरुरवा-उर्वशी संवाद
पुरुरवा-उर्वशी संवाद
- मंत्र - 18, ऋग्वेद - 10 / 95, ऋषि -पुरुरवा / उर्वशी, स्वर- धैवत, देवता- उर्वशी और पुरुरवा ऐळ, छन्द त्रिष्टुप, पुरुरवा - उर्वशी, ऋग्वेद के दशम मण्डल का 95 वाँ सूक्त है जिसमें कुल 18 मन्त्र हैं।
इसमें पुरुरवा और उर्वशी की प्रेम कथा वर्णित है। पुरुरवा एक मनुष्य है और उर्वशी एक अप्सरा। दोनों चार वर्ष तक एक साथ रहते हैं। उनके आयुष नामक एक पुत्र भी होता है किन्तु उसके पश्चात् शाप के प्रभाव से उर्वशी के मिलन की यह अवधि समाप्त हो जाती है और वह एकाएक लुप्त हो जाती है। शोक विह्वल और उसे खोजने में प्रयत्नशील पुरुरवा, सरोवर के तट पर सखियों के साथ उर्वशी को देखता है। वह उसे साथ चलने के लिए कहता है किन्तु पुरुरवा से शाप की बात बतलाकर उर्वशी अपनी असमर्थता प्रकट करती है और लुप्त हो जाती है।
यह संवाद शतपथ ब्राह्मण, विष्णुपुराण और महाभारत में भी प्राप्त होता है। इसी संवाद को कालिदास ने अपने नाटक 'विक्रमोर्वशीय' का कथानक बनाया। पुरुरवा - उर्वशी संवाद सूक्त के मत्र निम्नलिखित हैं। उल्लेखनीय है कि श्लोक 147 से 152 तक, जो कि ऋग्वेद में उल्लिखित नहीं हैं लेकिन कथा के क्रमभङ्ग को बनाए रखने के लिए, बृहद्देवता 7/147-152 (पुरुरवा-उर्वशी वृत्त) के आधार पर दिया गया है। ऋग्वेदस्थ मूल संवाद-सूक्त 1-18 तक हैं ।
UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस
॥ पुरुरवा - उर्वशी संवाद ॥
हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्राकृण्वावहै नु।न नौ मत्रा अनुदितास एते मयस्करन् परतरे चनाहन् ।।1।।
किमेता वाचा कृणवातवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।पुरुरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वातइवाहमस्मि ।।2।।
इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।अवीरे ऋतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ।।3।।
सा वसु दधती श्वसुराय वय उषो यदि वष्यन्तिगृहात् ।अस्तं ननक्षे यस्मिञ्चाकन्दिवा नक्तं नथिता वैतसेन ॥4॥
त्रिः स्म माहः श्रथयो वैतसनोत स्म मेऽव्यत्यै पृणासि ।पुरुरवोऽनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्वस्तदासीः॥15॥
या सुजूर्णिः श्रेणिः सुम्न आपिहृदेचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्युः ।ता अञ्जयोऽरुणयो न सनुः श्रिये गावो न धेनवोऽनवन्त ॥6॥
समस्मिञ्जायमान आसत ना उतेमवर्धन्नद्यः स्वगूर्ताः ।महे यत्त्वा पुरुरवो रणायावर्धयन् दस्युहत्याय देवाः ॥7॥
सचा यदासु जहतीष्वत्कममानुषीषु मानुषो निषेवे।अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसन्रथस्पृशो नाश्वाः ।।8।।
यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभिः क्रतुभिर्न पुंक्ते।ता आतयो न तन्वः शुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीडयो दन्दशानाः ।।9।।
विद्युन्न या पतन्ती दविद्योद्भरन्ती मे अप्या काम्यानि ।जनिष्टो अपो नर्यः सुजातः प्रोर्वशी तिरत दीर्घमायुः ॥10॥
जशिष इत्था गोपीध्याय हि दद्याथ तत्पुरुरवो म जः |आशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ।।11।।
कदा सूनुः पितरं जात इच्छाच्चकन्नाश्रु वर्तयद्विजानन्।को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्निः श्वशुरेषु दीदयत ।। 12 ।।
प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्वे शिवायै ।प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यास्तं नहि मूर मापः ।। 13।।
सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ ।अधा शयीत निरृतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्युः ।। 14।।
पुरुरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्।नवै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता ।।15।।
यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्रीः शरदश्चतस्रः ।घृतस्य स्तोकं सकृदहन् आश्न तादेवेदं तातृपाणा चरामि ।।16।।
अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः ।उप त्वा रातिः सुकृतस्य तिष्ठान्त्रि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे।।17।।
इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः ।प्रजा ते देवान् हविषा यजाति स्वर्ग उत्वमपि मादयासे ।। 18॥