यम-यमी संवाद

 यम-यमी संवाद 

  • मंत्र- 14, ऋग्वेद- 10/10, ऋषि- यमी वैवस्वती यमवैवस्वत, स्वर - धैवत, -देवता यम वैवस्वत, यमी वैवस्वती, छन्द-त्रिष्टुप्, यम-यमी ऋग्वेद के दशम मण्डल का दसवाँ सूक्त है जिसमे कुल 14 मन्त्र हैं। 

यह एक विलक्षण संवाद सूक्त है। यम यमी एक जुड़वाँ भाई-बहन हैं। यमी अपने भाई यम को अनेक प्रलोभन देकर उसके सामने उससे विवाह करने का प्रस्ताव रखती है लेकिन यम अपनी बहन के इस प्रस्ताव की निन्दा करता है क्योकि यह सगोत्र सम्बन्ध अनैसर्गिक और महर्षियों के विधानों के विरुद्ध है। वह इसे अनुचित बताकर अस्वीकार कर देता है। यमी अपने भाई के कथन का यह कहकर तिरस्कार कर देती है कि देवता चाहते हैं कि मनुष्य जाति की अभिवृद्धि के लिए यम अपनी बहन के साथ सम्बन्ध स्थापित करे। लेकिन यम पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सम्भवतः इसी कारण से न केवल हिन्दुओं में अपितु संसार के किसी भी कोने में सगोत्र भाई-बहन का विवाह अनुचित समझा जाता है। इस सूक्त की प्रतिपादन शैली रमणीय है। यम-यमी संवाद सूक्त के मत्र निम्नलिखित हैं

UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस

॥ यम-यमी संवाद ॥

ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू विदर्णवं जगन्वान्। 
पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥1॥ 

यमी अपने सहोदर भाई यम से कहती है-विस्तृत समुद्र के मध्य द्वीप में आकर, इस निर्जन प्रदेश में मैं तुम्हारा सहवास (मिलन) चाहती हूँ, क्योंकि माता की गर्भावस्था से ही तुम मेरे साथी हो । विधाता ने मन ही मन समझा है कि तुम्हारे द्वारा मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ नाती होगा।

न ते सखा सख्यं वष्टयेतत् सलक्ष्मा यद्विपुरुषा भवाति । 
महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परिख्यन् ।।2।। 

यम ने कहा- यमी, तुम्हारा साथी यम, तुम्हारे साथ ऐसा सम्पर्क नहीं चाहता; क्योकि तुम सहोदरा भगिनी हो, अतः अगन्तव्या हो। यह निर्जनप्रदेश नहीं है, क्योंकि धुलोक को धारण करने वाले महान् बलशाली प्रजापति के पुत्रगण (देवताओं के चर) सब कुछ देखते हैं।

उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित् त्यजसं मर्त्यस्य ।
नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्वमा विविश्याः ।।3।।

यमी ने कहा- यद्यपि मनुष्य के लिए ऐसा समर्ग निषिद्ध है, तो भी देवता लोग इच्छापूर्वक ऐसा संसर्ग करते हैं। अत: मेरी इच्छानुकूल तुम भी करो। पुत्र जन्मदाता पति के समान मेरे शरीर में पैठो (मेरा सम्भोग करो ।

न यत्पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम। 
गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ।। 4 ।। 

यम ने उत्तर दिया- हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया। हम सत्यवक्ता हैं। कभी मिथ्या कथन नहीं किया है। अन्तरिक्ष में स्थित गन्धर्व या जल के धारक आदित्य तथा अन्तरिक्ष में रहने वाली योषा (सूर्यस्त्रीसरण्यू) हमारे माता-पिता है। अतः हम सहोदर बन्धु हैं। ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं है।

गर्भे नु नौ जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः ।
नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथ्वी उत द्यौः ।।5।।

 यमी ने कहा- रूपकर्ता, शुभाशुभ प्रेरक, सर्वात्मक, दिव्य और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दम्पति बना दिया है। प्रजापति का कर्म कोई लुप्त नहीं कर सकता। हमारे इस सम्बन्ध को द्यावापृथ्वी भी जानते हैं।

को अस्य वेद प्रथमस्याह्नः क ई ददर्श क इह प्रवोचत् ।
बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु ब्रव आह्वो वीच्या नृन्।।6।।

यमी ने पुनः कहा-प्रथम दिन (संगमन) की बात कौन जानता है? किसने उसे देखा है? किसने उसका प्रकाश किया है? मित्र और वरुण का यह जो महान् धाम (अहोरात्र) है, उसके बारे में हे मोक्ष, बन्धनकर्ता यम! तुम क्या जानते हो?

यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय ।
जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिहेव रथ्येव चक्रा।। 7 ।। 

यमी ने कहा- जैसे एक शैया पर पत्नी, पति के साथ अपनी देह का उद्घाटन करती है, वैसे ही तुम्हारे पास में अपने शरीर को प्रकाशित कर देती हूँ, तुम मेरी अभिलाषा करो, आओ हम दोनों एक स्थान पर शयन करें। रथ के दोनों चक्कों के समान एक कार्य में प्रवृत्त हों।

न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति ।
अन्येन मदाहनो याहि तूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा।। 8 ।। 

यम ने उत्तर दिया-देवों में जो गुप्तचर हैं, वे रात दिन विचरण करते हैं। उनकी आँखे कभी बन्द नहीं होती। दुःखदायिनी यमी ! शीघ्र दूसरे के पास जाओ, और रथ के चक्कों के समान उसके साथ एक कार्य करो।

रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्येत् सूर्यस्यचक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात् ।
दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि ।। 9 ||

यम ने पुनः कहा- दिन-रात में यम के लिए जो कल्पित भाग हैं, उसे यजमान दें। सूर्य का तेज यम के लिए उदित हो । परस्पर सम्बद्ध दिन, धुलोक और भूलोक यम के बन्धु हैं। यमी, यम भ्राता के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को धारण करे।

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि।
उप बर्वृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ।। 10।। 

यम ने पुनः कहा- भविष्य में ऐसा युग आएगा, जिसमें भगिनियाँ अपने बन्धुत्व विहीन भ्राता को पति बनाएंगी। सुन्दरी! मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे को पति बनाओ। वह वीर्य सिंचन करेगा, उस समय उसे बाहुओं में आलिङ्गन करना।

किं भ्रातासद्यदनाथं भवाति किमु स्वसा यत्रिऋतिर्निगच्छात् 
काममूता वह्वेतद्रापामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि।।11।।

यमी ने कहा- वह कैसा भ्राता है, जिसके रहते भगिनी अनाथा हो जाए, और भगिनी ही क्या है, जिसके रहते भ्राता का दुःख दूर न हो ? मै काममूर्च्छिता होकर नाना प्रकार से बोल रही हूँ; यह विचार करके भली-भाँति मेरा सम्भोग करो।

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात्।
अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ।।12।।

यम ने उत्तर दिया-हे यमी! मैं तुम्हारे शरीर से अपना शरीर मिलाना नहीं चाहता। जो भ्राता, भगिनी का सम्भोग करता है, उसे लोग पापी कहते हैं। सुन्दरी ! मुझे छोड़कर अन्य के साथ आमोद-प्रमोद करो। तुम्हारा भ्राता तुम्हारे साथ मैथुन करना नहीं चाहता।

बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम।
अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम्।।13।। 

यमी ने कहा- हाय यम; तुम दुर्बल हो। तुम्हारे मन और हृदय को मैं कुछ नहीं समझ सकती; जैसे-रस्सी घोड़े को बाँधती है, तथा लता जैसे वृक्ष इन का आलिङ्गन करती है; वैसे ही अन्य स्त्री तुम्हे अनायास ही आलिङ्गन करती है; परन्तु तुम मुझे नहीं चाहते हो।

अन्यमू षु त्वं यम्यन्य उ त्वां परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम्। 
तस्य वा त्वं मन इच्छा स वा तवाऽधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम्।।14।। 

यम ने यमी से कहा- तुम भी अन्य पुरुष का ही भली-भाँति आलिङ्गन करो; जैसे-लता. वृक्ष का आलिङ्गन करती है, वैसे ही अन्य पुरुष तुम्हें आलिङ्गित करे। तुम उसी का मन हरण करो। अपने सहवास का प्रबन्ध उसी के साथ करो। इसी में मङ्गल होगा।