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ऋग्वैदिक वरुण सूक्त

ऋग्वैदिक वरुण सूक्त
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 ऋग्वैदिक वरुण सूक्त

वरुण सूक्त (1.25)

ऋषि- शुन: शेप,

सूक्त - 12

यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम् । 

मिनीमसि द्यविद्यवि ॥1॥ 

मा नो वधाय हलवे जिहीळानस्य रीरधः । 

मा हृणानस्य मन्यवे ॥ 2 ॥ 

विमृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम् । 

गीर्भिर्वरुण सीमहि ॥3॥ 

परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। 

वयो न वसतीरुप ॥4॥ 

कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे । 

मृळीकायोरुचक्षसम् ॥5॥ 

तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः । 

धृतव्रताय दाशुषे |॥6॥ 

वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम् । 

वेद नावः समुद्रियः ॥ 7 ॥ 

वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः । 

वेदा य उपजायते ॥ 8 ॥

वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः । 

वेदा ये अध्यासते ॥9॥ 

नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा । 

साम्राज्याय सुऋतु ॥10॥ 

अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति । 

कृतानि या च कर्त्वा ॥11॥ 

स नो विश्वाहा सुऋतुरादित्यः सुपथा करत् । 

प्रण आयूंषि तारिषत् ॥12॥ 

बिभ्रद्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम् । 

परि स्पशो नि षेदिरे ॥13॥

न य दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुहाणो जनानाम्। 

न देवमभिमातयः ॥14॥ 

उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या । 

अस्माकमुदरेष्वा ॥15॥ 

परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु । 

इच्छन्तीरुरुचक्षसम् ॥16॥ 

मं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम् । 

होतेव क्षदसे प्रियम् ॥17॥ 

दर्श नु विश्वदर्शतं दर्श रथमधि क्षमि । 

एता जुषत मे गिरः ॥ 18 ॥ 

इमं में वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय । 

त्वामवस्युरा चके ॥19॥ 

त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि । 

स यामनि प्रति श्रुधि ॥20॥ 

उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चूत । 

अवाधमानि जीवसे ॥21॥

ऋग्वैदिक वरुण सूक्त शब्दार्थ

विशः - प्रजाजन, 

द्यविद्यवि - प्रतिदिन, 

मिनिमसि - प्रमाद से उल्लंघन करना, 

जिहीळ- अनादर, 

हृणान - क्रोध, 

मन्यवे- क्रोध का पात्र, 

रीरध - वध का विषय, 

मुळीकाय - सुख प्राप्त करने के लिये, 

गीर्भिः - स्तुतियों द्वारा, 

विसीमहि- प्रसन्न करना, 

वस्य:- धन से युक्त जीवन, 

विमन्यवः - क्रोधरहित बुद्धियां, 

वयः- पक्षी, 

क्षत्रश्रियं- शासकीय शक्ति से शोभायमान, 

उरुचक्षुसम्- त्रिकालदर्शी, 

वीनम्- पक्षी, 

ऋष्वस्य- दर्शनीय,

 पस्त्या- प्रजा, 

सुक्रतुः -  श्रेष्ठ कर्मों को करने वाला, 

चिकित्वान्- ज्ञानी मनुष्य, 

द्रापिम्- कवच को, 

वस्त - ढकना, 

स्पशः- चमत्कार किरणें, 

अभिमातयः- पापी लोग, 

यशः - अन्न,

(यशश्चक्रे असाम्या) ग्मः - पृथ्वी लोक, 

यामनि- मार्ग में, 

राजसि- प्रकाशित होना। -

ऋग्वैदिक वरुण सूक्त प्रमुख सन्दर्भ

  • यह न्याय का देवता है। यह 'धर्मपति' 'नैतिकाध्यक्ष' क्षत्रिय वर्ण का देवता है।
  • यह (पस्त्या) जल में बैठकर अपने साम्राज्य का संचालन करता है।
  • जलोदर व्याधि का कारण वरुण।

विशेषण- असुर, क्षत्रिय, धृतव्रत, ऋतगोपा, अमृतस्यगोपा, उरुचक्षः, दूतदक्षः, उरुशंस, सहस्त्र नेत्र, स्वराट, मायावी।

ऋग्वेदः 


About the Author

नाम : संस्कृत ज्ञान समूह(Ashish joshi) स्थान: थरा , बनासकांठा ,गुजरात , भारत | कार्य : अध्ययन , अध्यापन/ यजन , याजन / आदान , प्रदानं । योग्यता : शास्त्री(.B.A) , शिक्षाशास्त्री(B.ED), आचार्य(M. A) , contact on whatsapp : 9662941910

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