संस्कृत धातुरूप – भ्वादिगण
संस्कृत भाषा में धातुरूप का विशेष महत्व है। यह धातु (मूल क्रिया) किसी भी शब्द और वाक्य का आधार होती है। पाणिनि के अष्टाध्यायी में कुल 10 गणों में विभाजित धातुओं का वर्णन है, जिनमें पहला और सबसे प्राचीन गण है भ्वादिगण। यह गण संस्कृत व्याकरण का मूल स्तंभ है, क्योंकि अधिकांश सामान्य धातुएं इसी गण में आती हैं।
भ्वादिगण का परिचय
"भ्वादिगण" नाम की उत्पत्ति इसकी पहली धातु भू (अर्थ: होना या अस्तित्व में आना) से हुई है। इस गण में कुल 219 धातुएं शामिल हैं, जिनसे असंख्य शब्द और भाव व्यक्त किए जा सकते हैं। भ्वादिगण की धातुएं मुख्यतः परस्मैपदी होती हैं, लेकिन कुछ आत्मनेपदी या उभयपदी भी होती हैं।
भ्वादिगण का महत्व
भ्वादिगण धातुओं से संस्कृत के मौलिक शब्द और वाक्य बनते हैं। इन धातुओं का उपयोग करके वर्तमान काल, भूतकाल, और भविष्यकाल के क्रियापद बनाए जाते हैं। साथ ही, भ्वादिगण की धातुएं संज्ञा और विशेषण के रूप में भी परिवर्तित होती हैं।
उदाहरण:
- भू (होना) से "भविष्यति" (वह होगा), "भूत" (जो हो चुका है)।
- गम् (जाना) से "गच्छति" (वह जाता है), "गमन" (जाना)।
भ्वादिगण की धातु सूची
भ्वादिगण की प्रमुख धातुओं की सूची और उनके अर्थ नीचे दी गई है:
भ्वादिगण (प्रथम गण) में वे धातुएं आती हैं जो सामान्यतः अकर्तरि कारके में प्रयोग होती हैं। ये धातुएँ तीनों लकारों में साधारण रूप से प्रयुक्त होती हैं। भ्वादिगण की धातुओं को समझने के लिए हमने उनकी हिंदी में व्याख्या और उदाहरण दिए हैं।
| संस्कृत धातु | हिंदी अर्थ | उदाहरण |
|---|
| भु | होना | सः भवति (वह होता है)। |
| खन् | खोदना | सः खनति (वह खोदता है)। |
| गम् | जाना | सः गच्छति (वह जाता है)। |
| स्था | खड़ा होना | सः तिष्ठति (वह खड़ा होता है)। |
| पत् | गिरना | पर्णं पतति (पत्ता गिरता है)। |
| जल् | जलना | दीपः ज्वलति (दीप जलता है)। |
| सृ | बहना | नदी स्रवति (नदी बहती है)। |
| हस् | हँसना | बालः हसति (बालक हँसता है)। |
| द्रु | दौड़ना | अश्वः धावति (घोड़ा दौड़ता है)। |
| वद् | बोलना | सः वदति (वह बोलता है)। |
| कृ | करना | सः करोति (वह करता है)। |
| पच् | पकाना | सः पचति (वह पकाता है)। |
| लिख् | लिखना | छात्रः लिखति (छात्र लिखता है)। |
| स्मृ | स्मरण करना | सः स्मरति (वह स्मरण करता है)। |
| धृ | धारण करना | सः धारयति (वह धारण करता है)। |
| हृ | लेना | सः हरति (वह लेता है)। |
| दह् | जलाना | अग्निः दहति (अग्नि जलाती है)। |
| विश् | प्रवेश करना | सः विशति (वह प्रवेश करता है)। |
| पिब् | पीना | सः पिबति (वह पीता है)। |
| मृ | मरना | सः म्रियते (वह मरता है)। |
भ्वादिगण धातुओं के लकार
भ्वादिगण की धातुएं संस्कृत के विभिन लकारों में प्रयोग होती हैं। उदाहरण के लिए:
-
लट् (वर्तमान काल)
- पठति (वह पढ़ता है)
- गच्छति (वह जाता है)
-
लङ् (भूतकाल)
- अपठत् (उसने पढ़ा)
- अगच्छत् (वह गया)
-
लृट् (भविष्यकाल)
- पठिष्यति (वह पढ़ेगा)
- गमिष्यति (वह जाएगा)
भ्वादिगण का व्यावहारिक उपयोग
भ्वादिगण की धातुएं न केवल संस्कृत साहित्य बल्कि आधुनिक भाषा विज्ञान में भी महत्वपूर्ण हैं। संस्कृत के ये धातुरूप भाषा की वैज्ञानिकता को दर्शाते हैं।
उदाहरण:
- नी धातु से बने "नायक" और "नायिका"।
- भू धातु से बने "भविष्य" और "भूतकाल"।
संस्कृतप्रति
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॥भ्वादिगणः ॥
धातु से तिङ् प्रत्यय लगाकर क्रिया रूप बनते है। अतः क्रिया रूपों को ही तिङ्न्त कहते है। रूप रचना की दृष्टि से क्रिया रूपों को दस भागों में बाँटा जाता है एक वर्ग की धातुओं को एक स्थान पर एकत्रित किया गया जिन्हें गण कहते हैं। इस प्रकरण में प्रथम गण अर्थात् भ्वादिगण की धातुओं के रूपों का विवरण दिया जाएगा।
"लट्- लिट्- लुट्- लेट्- लोट्- लङ्- लिङ् (वि. आ.)- लुङ्- लङ्- एषु पंचमो लकारश्छन्दोमात्रगोचरः” ।
व्याख्याः- लट् आदि दश लकार हैं। एषु इति इनमें पाँचवां-लेट् लकार केवल वेद का विषय है अर्थात इसका प्रयोग वेद में ही होता है, लोक में नहीं। इन शब्दों में लकार होने के कारण इनको लकार कहा जाता है। इनमें पहले छः टित् हैं और अन्तिम चार ङित् । ये लकार धातुओं के आगे प्रयुक्त होते हैं। इनके द्वारा धातुवाच्य क्रिया के काल आदि का बोध होता है।
ये लकार सामान्यतः निम्नलिखित अर्थों में प्रयुक्त होते हैं-
1- लट्- वर्तमान काल ।
2- लिट्- परोक्ष अनद्यतन भूतकाल ।
3- लुट्- अनद्यतन भविष्यत् काल ।
4- लट्- सामान्य भविष्यत् ।
5- लेट् शर्त लगाना और शङ्का ।
6- लोट्- विधि (प्रेरणा आज्ञा देना) आदि।
7- लङ्- अनद्यतन भूतकाल ।
8- लिङ्- (क) विधिलिंग - विधि आदि।
(ख) आशीलिंग- आशीर्वाद ।
9- लुङ्- सामान्य भूत।
10- ऌङ्- हेतुहेतुमद्भाव के अर्थ में जब क्रिया की सिद्धि हो ।
लकारों के अर्थ को स्पष्टतया समझने के लिये निम्नलिखित पदार्थों का ज्ञान होना आवश्यक है- 'काल- समय को कहते हैं। क्रिया जिस समय में होती है वह क्रिया का काल कहता है'। काल तीन प्रकार का होता है- वर्तमान, भविष्यत् और भूत ।
वर्तमान काल- जो काल चल रहा है उसे वर्तमान काल कहते हैं। जिस काल में क्रिया प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है उसे वर्तमान कालिक क्रिया कहते हैं। जैसे- सः गच्छति - वह जाता है।
भविष्यत् काल- भविष्य में होने वाली क्रिया के काल को भविष्यत काल कहते हैं भविष्यत् काल वह है जिसमें क्रिया का दोना पाया अभि होना पाया जाय।
प्रकाश
जैसे- सः गमिष्यति वह जायगा। इस वाक्य में गम (जाना) क्रिया का आगे होना पाया जाता है। भूत काल- प्रत्यक्ष काल से पूर्व जो क्रिया समाप्त हो चुकी है, उसके काल को भूतकाल कहते हैं। जैसे- स अगमत्वह गया इस वाक्य में गमन जाना- क्रिया की समाप्ति पाई जाती है अतः वह भूतकाल प्रयोग है।
2
܀ अनद्यतन- उस काल को कहते हैं जो आज का न हो। आज बारह बजे रात के बाद दूसरी रात के बारह बजे तक अथवा प्रातःकाल से रात्रि की समाप्ति तक कहा जाता है। यदि इतने समय के अन्दर क्रिया हुई तो वह अद्यतन काल की कही जाती है और यदि इसके बाद हो तो अनद्यतन काल की। भूत और भविष्यत् दो काल अनद्यतन है।
܀ परोक्षः• उस काल को कहते हैं जिसमें क्रिया करनेवाले का प्रत्यक्ष में होना न पाया जाय जैसे- युधिष्ठिरो बभूव- युधिष्ठिर हुआ। इस वाक्य में होना क्रिया का करनेवाला युधिष्ठिर इस वाक्य के प्रयोग करनेवाले के प्रति प्रत्यक्ष नहीं वह युधिष्ठिर को देख नहीं रहा है। परोक्ष का सम्बन्ध केवल भूतकाल से होता है । वर्तमान परोक्ष नहीं होता और भविष्यत् सदा परोक्ष ही रहता है । इसलिये इसका सम्बन्ध केवल भूतकाल से ही है क्योंकि भूतकाल परोक्ष और अपरोक्ष दोनों प्रकार का होता है ।
इन पदार्थों के ज्ञान के अनन्तर स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान काल के लिये एक लट् लकार का भविष्यकाल के लिये लुट् और लट् इन दो लकारों का और भूत के लिये लुङ्, लङ्, लिट् इन तीनों का प्रयोग होता
लकारार्थ-कालबोधकचक्र काल लकार 1. वर्तमान लट् उदाहरण सः गच्छति 2. भविष्यत् (क) सामान्य ऌट् सः गमिष्यति (ख) अनद्यतन लुट् श्वः गन्ता कल जायगा 3. भूत (क) सामान्य लुङ सः अगमत् (ख) अनद्यतन लङ् सः अगच्छत (ग) परोक्ष अनद्यतन लिट् सः जगाम ।
संस्कृतप्रति
(लट् लकार)
सूत्रम्- लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः 3/4/69
वृत्ति:- लकाराः सकर्मकेभ्यः कर्मणि कर्तरि च स्युरकर्मकेभ्यो भावे कर्तरि चा
हिन्दी अर्थ - लकार सकर्मक धातुओं से कर्म और कर्ता तथा अकर्मक धातुओं से भाव और कर्ता में हों। इस सूत्र के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये- कर्ता, कर्म, भाव, सकर्मक और अकर्मक की परिभाषा लिखी जाती है। यहाँ यह जान लेना चाहिए कि प्रत्येक धातु के दो अर्थ होते हैं फल और व्यापार । व्यापार का जो आश्रय होगा वह कर्ता और फल का आश्रय कर्म कहा जाता है।
कर्ता - धातु के द्वारा वाच्य व्यापार के आश्रय तथा व्यापार में स्वतंत्र रूप से जो विवक्षित हो उसे कर्ता कहते हैं।
कर्म- धातुवाच्य फल के आश्रय को कर्म कहते हैं।
भाव- धातुवाच्य व्यापार को कहते हैं।
सकर्मक धातु- उन धातुओं को कहते हैं जिसके फल और व्यापार के आश्रय भिन्न-भिन्न हो । जैसे- पच् धातु । इसका फल गलना चावलों में और पाक व्यापार देवदत्त आदि में रहता है। अतः फल और व्यापार के मित्र मित्र अधिकरणों में रहने में पच् धातु सकर्मक है।
अकर्मक धातु- उन्हें कहते हैं जिनके फल और व्यापार एक ही आश्रय में रहते हो । जैसे- शीङ् धातु । इसका फल आराम और व्यापार लेट जाना आदि एक ही आश्रय कर्ता में रहते हैं।
यहाँ वाच्य को समझ लेना अत्यावश्यक है-
वाच्य- क्रिया के प्रकार को कहते हैं जिनके द्वारा यह जानना होता है कि लकार किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह तीन प्रकार का है1. कर्तृवाच्य, 2. कर्मवाच्य, 3. भाववाच्य।
१- कर्तृवाच्य धातु के उस रूप को कहते हैं जिसमें लकार का संबंध कर्त्ता से हो अर्थात् लकार का अर्थ कर्ता हो । २- कर्मवाच्य धातु के उस रूप को कहते हैं जिसमें लकार का संबंध कर्म से हो अर्थात् लकार का अर्थ कर्म हो । ३- भाववाच्य धातु के उस रूप को कहते हैं जिसमें लकार का संबंध भाव अर्थात् क्रिया मात्र से हो अर्थात् लकार का अर्थ भाव है।
स्पर्धाप्रकाश
सूत्रम् - वर्तमाने लट् | 3/2/123 वृत्ति:- वर्तमान क्रियावृत्तेर्धातोर्लट् स्यात् । अटावितौ। उच्चारणसामर्थ्याद लस्य नेत्त्वम् । भू मत्तायाम् कर्तृविक्षायां भू +ऌ इति स्थिते । हिन्दी अर्थ - वर्तमान काल की क्रिया में धातु से लट् लकार हो। अटाविति:- लट् के अकार और टकार इत्संज्ञक है। उच्चारणेतिः- उच्चारण सामर्थ्य से लकार की इत्संज्ञा नहीं होती, अन्यथा फिर कुछ शेष न रहने से उच्चारण ही व्यर्थ हो जायगा । भू इतिः- भू धातु का सत्ता (होना) अर्थ है। कर्तृविवक्षायामिति- इसमें कर्ता की विवक्षा में कर्तवाव्य में लकार करने पर भू ल यह स्थिति हुई ।
सूत्रम्-तिप्-तस्-झि-सिप्-थस्-थ- मिप्-वस्-मस् तातांझ-थासाथां
ध्वम्-इड्वहिमहिङ् । 3/4/75 वृत्ति:- एतेऽष्टादश लादेशाः स्युः । हिन्दी अर्थ - तिप, तस्, झि, सिप् थस्, थ, मिप्, वस्, मस्, त, आताम्, झ,थास्, आथाम्, ध्वम्, इइ, वहि महिङ् ये अठारह लकारों के स्थान में आदेश हों।
सूत्रम्- लः परमैपदम् । 1/4 / 99 वृत्ति:- लादेशाः परस्मैपदसंज्ञाः स्युः । हिन्दी अर्थ- लकारों के स्थान में जो आदेश हों, वे परस्मैपद संज्ञा वाले हों अर्थात् उनकी परस्मैपदसंज्ञा हो। पिछले सूत्र से पूर्वोक्त अठारह आदेशों का लकारों के स्थान में विधान किया गया है अतः लादेश होने से इन सब की परस्मैपद संज्ञा प्राप्त हुई।
सूत्रम्- तङानावात्मनेपदम् । 1/4/100 वृत्ति:- तङ्गत्याहारः शानच्कानचौ चैतत्संज्ञाः स्युः । पूर्वसंज्ञापवादः । हिन्दी अर्थ - तङ्ग प्रत्याहार तथा शानच् और कानच् प्रत्ययों की आत्मनेपद संज्ञा हो ।
सूत्रम् - अनुदात्तङित आत्मनेपदम् । 1/3/12
वृत्ति:- अनुदात्तेतो डितश्च धातोरात्मनेनपदं स्यात
हिन्दी अर्थ - अनुदात्तेत ( जिसका अनुदात्त अच इत् हो) और ङित्
धातुओं से आत्मनेपद-तङ, शानच् और कानच प्रत्यय हों।
संस्कृतप्रतिर
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सूत्रम्- स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले । 1/3/72 वृत्ति: सवरिततो निश्च धातोरात्रपद स्यात् कर्तृगामिनि क्रियाफले । हिन्दी अर्थ - जिसका स्वरित अच इत हो और जित धातु से आमनेपद प्रत्यय हो, यदि क्रिया का फल कर्तृगामी हो ।
सूत्रम् - शेषात्कर्तरि परस्मैपदम् 11/3/75 वृत्ति: आत्मनेपदनिमित्तहीनाद धातोः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । हिन्दी अर्थ - आत्मनेपद के निमित्त में हीन धातु से कर्ता-कर्तृवाच्य में परस्मैपद हो ।
(एकवचनादिसंज्ञासूत्रम् )
सूत्रम् - तिङस्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमाः । 1/4/101 वृत्ति:- तिङ् उभयोः पदयोस्त्रयस्त्रिकाः क्रमाद एतत्संज्ञा स्युः । हिन्दी अर्थ - तिङ इति तिङ के दोनों पदों- आत्मनेपद और परस्मैपद के जो तीन तीन के समूह हैं, उनकी क्रम में प्रथम, मध्यम, और उत्तम संज्ञा होती है। आत्मनेपद और परस्मैपद के नौ नौ प्रत्यय हैं उन नौ प्रत्ययों के तीन वर्ग बने हुए हैं।
परस्मैपद- 1. वर्ग - तिप् तस् झि, 2. वर्ग- सिप, थस् थ 3. वर्ग- मिप, वस, मस्। आत्मनेपद- 1. वर्ग- त, आताम्, झ, 2. वर्ग- थास, आथाम् ध्वम्, 3. वर्ग- इट्, वहि महिङ् ।
1/4/102 वृत्ति:- लब्धप्रथमादिसंज्ञानि तिमीणि त्रीणि प्रत्येकमेकवचनादि संज्ञानि स्युः ।
सूत्रम्- तान्येकवचन द्विवचन बहुवचनान्येकशः ।
हिन्दी अर्थ - तिङ् के इन त्रिकों जिनकी प्रथम आदि संज्ञा की गई है। इनके तीन प्रत्ययों की क्रमशः एकवचन, द्विवचन और बहुवचन संज्ञा हो। इन सवका निम्नलिखित चक्र से स्पष्टता के लिये निरूपण किया जाता है-
परस्मैपद एकवचन, द्विवचन बहुवचन प्रथम- लिए तम झि मध्यम सिंप रास TWIT आत्मनेपद एकवचन द्विवचन बहुवचन प्रथम- त आताम झ मध्यम धाम आयाम ध्वम मांड
स्पर्धाप्रकाश
सूत्रम्- युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः 1 1/4/105 वृत्ति: तिवाच्यकारकवाचिनि युष्मदि मध्यम । प्रयुज्यमान प्रयुज्यमान च हिन्दी अर्थ - तिङ का वाच्य जो कारक कर्ता या कर्म उसी का वाचक यदि युष्मद शब्द हो, उसके उपपद रहते हुए उसका चाहे प्रयोग हुआ ही न हुआ हो, लकार के स्थान में मध्यममज्ञक तिइ प्रत्यय हो।
सूत्रम्- अस्मद्युत्तमः 11/4/107 वृत्ति: तथाभूतेऽस्मदि उत्तमः। हिन्दी अर्थ - ति का वाच्य यदि अम्मद शब्द हो, उसका चाहे प्रयोग हुआ हो चाहे न हुआ हो, ऐसी दशा में लकार के स्थान में उत्तमसंज्ञक तिङ प्रत्यय हो ।
सूत्रम् - शेषे प्रथमः | 1/4/108 वृत्ति:- मध्यमोत्तमयोरविषये प्रथमः स्यात् । हिन्दी अर्थ - मध्यम और उत्तम के विषय को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र लकार के स्थान में प्रथमसंज्ञक प्रत्यय हो।
भवति लट् लकार प्रथम पुरुष के एकवचन में लकार के स्थान में तिए यह परस्मैपद तिङ् प्रत्यय हुआ। "प" की हलन्त्यम् सूत्र से इत्संज्ञा और तस्य लोपः सूत्र से लोप हुआ तब भू + ति यह स्थिति
सूत्रम् - तिङ्- शित् सार्वधातुकम् । 3/4/113 वृत्ति:- तिङः शितश्च धात्वधिकारोक्ता एतत्संज्ञाः स्युः । हिन्दी अर्थ - धातोः सूत्र के अधिकार में कहे गये तिप और शित् प्रत्ययों की सार्वधातुक संज्ञा हो। भू + ति इस पूर्वोक्त स्थिति में भूति में तिङ की सार्वधातुकसंज्ञा हुई क्योंकि यह ति है।
सूत्रम् - कर्तरि शप् । 3 / 1 /68
वृत्ति:- कर्त्रर्थे सार्वधातुके परे धातोः शप् स्यात् ।
हिन्दी अर्थ - कर्ता अर्थवाले सार्वधातु के परे रहते धातु से शप हो। भू+ति में तिङ् ति सार्वधातुक है। कर्ता मे लकार होने से तथा उस लकार के स्थान में आदेश होने से इसका अर्थ कर्ता है। अत इसके परे रहते हुआ तब भू+ अ+ति यह स्थिति बनी। यहाँ यस्मात् सूत्र में धातु भू यह अङ्ग संज्ञा है। और यह अङ्ग हगन्त है।
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संस्कृतप्रति
सार्वधातुकार्धातुकयोः । 7/3/84
सूत्रम्वृत्ति:- अनयोः परयोगिन्ताङ्गस्य गुणः । अवादेश भवति। भवतः । हिन्दी अर्थ - सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय पर रहते इगन्त अङ्ग को गुण हो । अलोन्त्य परिभाषा के बल से अङ्ग के अन्त्य इक को गुण होगा भू+अ+ति यहाँ अङ्ग के अन्त्य ऊ को गुण ओ हुआ। अवादेश इतितब ओ को अव् आदेश होकर भवति रूप बना।
2
भवतः भू+तम् इस स्थिति में कर्तरि शप् सूत्र से शप् प्रत्यय, उसके शकार पकार की इत्संज्ञा सार्वधातुकार्धातुकयोः से उकार के स्थान में गुण ओकार एकादेश और ओकार के स्थान में अब आदेश तथा सकार के स्थान में रुत्व विसर्ग होने पर रूप सिद्ध हुआ।
सूत्रम् - झोन्तः । 7/1/3
वृत्तिः प्रत्ययावयवस्य झस्यान्तादेशः । अतो गुणे-भवन्ति । भवसि भवथः भवथ।
हिन्दी अर्थ - प्रत्यय के अवयव झ को अन्त आदेश हो ।
भवन्ति- प्रथम के बहुवचन में भू+झि इस अवस्था में पूर्ववत् शप, गुण और अवादेश हुए। प्रत्यय के अवयव झ को अन्त आदेश होकर भव+ अन्ति यह दशा हुई। इसमें अतो गुणे सूत्र से शप के अकार और अन्ति के अकार को पररूप एकादेश होने पर भवन्ति रूप सिद्ध हुआ । मध्यम के तीनों वचनों के रूप इसी प्रकार सिद्ध होंगे।
भवसि भू अ सि-भो असि । भवथः- भू अ थस् = भो अ थस् । भवथ भू अथ = भो अथ । भवामि, भवावः, भवामः- इनकी सिद्धि निम्नोक्त सूत्रों से होती है। जैसे-
(दीर्घविधिसूत्रम्)
सूत्रम् - अतो दीर्घौ यञि | 7/3/101
वृत्ति:- अतोऽङ्गस्य दीर्घौ यत्रादौ सार्वधातुके । भवामि भवावः भवामः । म भवति, तौ भवतः, ते भवन्ति । त्वं भवमि, यूवां भवथः, यूयं भवथ । अहं भवामि, आवां भवावः, वयं भवामः ।.
स्पर्धाप्रकाश
भवामि- उत्तम के एकवचन में भूमि यहाँ शप, गुण और अवादण होने पर भव मि इस अवस्था में या मकार आदि मिप सार्वधातुक परे होने से अङ्ग भव के अन्त्य अकार को दीर्घ आकार होकर भवामि यह सिद्ध हुआ।
भवावः- इसी प्रकार द्विवचन में भृ + अ+वस, भो+अ+वम् भवावः ।
भवामः बहुवचन में भू + अ + मम, भो+अ+मम, भव + अ + मम =
भवामः ।
प्रथमः- स भवति (वह होता है)।, तो भवतः (वे दो होते हैं)। ते भवन्तिः (वे बहुत होते हैं)।
मध्यमः- त्वं भवति तु होता है, यूवां भवथः- तुम दो होते हो, यूयं भवथ- तुम सब होते हो।
उत्तमः अहं भवामि-मैं होता हूँ, आवां भवावः हम दो होते हैं, वयं भवामः- हम बहुत होते हैं।
(लिट् लकार)
सूत्रम्- परोक्षे लिट् । 3/2/115
वृत्ति:- भूतानद्यतनपरोक्षार्थवृत्तेर्धातोलिट् स्यात् । लस्य तिबादयः ।
हिन्दी अर्थ - अनद्यतन भूत और परोक्ष की क्रिया अर्थ में यदि धातु हो तो उससे लिट् लकार हो।
इटो इतौ- लिट् इकार और टकार इत्संज्ञक है। केवल लकार बचता है। लस्य तिबादयः उसको तिप् आदि आदेश होंगे।
सूत्रम्- परस्मैपदानां णलतुसुस् थलथुसणल्वमाः । 3/4/82 वृत्ति:- लिटस्तिबादीनां नवानां गलादयः स्यु । भू अ इति स्थितौहिन्दी अर्थ - लिट् के स्थान में आदेश हुए परस्मैपद तिप् आदि नौ को क्रम से निम्नलिखित णलादि आदेश हो ।
मध्यमउत्तम- स्थानी आदेश स्थानी आदेश प्रथम- तिप णल तस् अतुम् सिप् थल थस् अथुस् थ मिप णऌ वस् स्थानी आदेश झि उस अ व मस म
भू अ इति- तिप् के स्थान में णल आदेश हुआ। णकार और लकार की इत्संज्ञा होकर लोप होने पर भू अ यह स्थिति हुई ।
संस्कृतप्रति
सूत्रम्- भुवो बुग लुडिटो | 6/4/88 वृत्ति वा वुगागम स्यात लुटारचि। हिन्दी अर्थ - भू धातु का बुक आगम हो, लुङ और लिट् का अच पर होने पर बुक में उक इत्मज्ञक है। अत कित होने से यह भृ के अन्त में होगा। यहाँ लिट् का अच अ (णल) परे है तब बुक आगम होने से भूव+अ ऐसी स्थिति बनी।
सूत्रम्- लिटि घातोरनभ्यासस्य । 6/1/8
वृत्ति:- लिटि परे अनभ्यासधात्वययवस्यैकाचः प्रथमस्य द्वे स्तः, आदि-भूतादच परस्य तु द्वितीयस्य । भूव भूव अ इति स्थिते- हिन्दी अर्थ - लिट पर रहते अभ्यास रहित अर्थात् जिसको द्वित्व न हुआ हो धातु के अवयव प्रथम एकाच को द्वित्व हो, यदि धातु अजादि हो तो आदिभूत अच से परे यदि संभव हो तो द्वितीय एकाच को हो। भूव् इति- इस व्यवस्था के अनुसार भूव अ यहाँ प्रथम एकाच भूव को द्वित्व होकर भव भूव् अ यह स्थिति हुई ।
सूत्रम्- पूर्वोभ्यासः । 6/1/4
वृत्ति:- अत्र ये द्वे विहिते, तयोः पूर्वोभ्याससंज्ञः स्यात् । हिन्दी अर्थ - यहाँ जिन रूपों का विधान किया गया है अर्थात् जो द्वित्व करके दो रूप बनाये गये हैं उनमें पूर्वरूप की अभ्यास संज्ञा हो ।
भूव+भूव् + अ यहाँ द्वित्व करके दो भूव बने हैं उनमें प्रथम भूव की अभ्याससंज्ञा हुई।
सूत्रम्- हलादिः शेषः । 7/4/60
वृत्ति:- अभ्यासस्यादिर्हल शिष्यते अन्ये हलो लुप्यन्ते । इति वलोपे । हिन्दी अर्थ - अभ्यास का आदि हल शेष रहता है, अन्य हलों का लोप हो जाता हैं। इति वलोपे:- भूव भूव् अ यहाँ अभ्यास में आदि हल भकार शेष रहा और उससे भिन्न हल व का लोप हुआ। तब भू+भूव् + अ यह स्थिति हुई।
सूत्रम्- ह्रस्वः । 7/4/59 वृत्ति:- अभ्यासस्याचो ह्रस्व स्यात् । हिन्दी अर्थ - अभ्यास के अच को ह्रस्व हो । भू+भूव + अ यहाँ अभ्यास के अच् ऊकार को इस सूत्र से ह्रस्व हो गया।
सूत्रम्- भवतेरः । 7/4/73
वृत्ति:- भवतेरभ्यासस्योकारस्य अः स्याल्लिटि ।
स्पर्धाप्रकाश
bb
हिन्दी अर्थ - धातु के अभ्यास के प्रकार का अंकार हो लिए पर होने पर। इस सूत्र से उकार का अकार करने पर म+ब+ अ यह दशा हुई।
सूत्रम्- अभ्यासे चर्च । 8/4/54
वृत्ति:- अभ्यास झला चर म्यु, जशश्च । झशा जण खया चर इति विवेक। बभूव बभूवतुः बभूवुः। हिन्दी अर्थ - अभ्यास में झलों के स्थान में चर हो और जश भी। झशामितिः- झशों को जश और खया का चर हो यह नियम है। प्रकृत में झल भकार चतुर्थ वर्ण को जश् तृतीय वर्ण बकार हुआ तब बभूव रूप सिद्ध हुआ।
बभूवतुः- बभूवुः- भृ अतुम, भूव अनुम, भूव भूव अतुम, भृ भूव अतुम, भु भृव अतुस, भ भव अतुस बभूवतुः । भू उस, भूव उम, भूव भृव् उस, भृव उम, भु भूव उम्, भ भूव उस बभूवुः ।
सूत्रम्- लिट् च । 3/4/115
वृत्ति:- लिडादशेस्तिङ् आर्धातुकसंज्ञः ।
हिन्दी अर्थ - लिट् के स्थान में आने वाले तिङ् की आर्धातुक संज्ञा हो।
सूत्रम्- आर्धातुकस्येड् वलादेः । 7 /2 / 35
वृत्ति:- वलोदेरार्धधातुकस्य इट् आगमः स्यात् । बभूविथ, बभूवथुः बभूव। बभूव बभुविव, बभूविम ।
हिन्दी अर्थ - वलादि आर्धधातु को इट् आगम हो ।
बभूविथ- भू+थ इस स्थिति में थ वलादि आर्धधातुक है। अतः उस को इट् आगम हो गया- इट् का इ शेष रहता है। तब भू+इ+थ ऐसी स्थिति बनने पर लिट् सम्बन्धी अच् परे होने से भुवो वुग्लुङिटो: सूत्र मे वुक आगम, उसके उक् की इत्संज्ञा और लोप भूव की लिटि धातोरनभ्यासस्य से द्वित्व हलादिः शेषः से अभ्यास के वकार का लोप, हस्व से अभ्यास के दीर्घ आकर को हस्व भवतेर से उकार को अकार आदेश होने पर अभ्यासे चर्च से भकार को बकार होकर रूप सिद्ध हुआ । - बभूविव बभूव व यहाँ वलादि आर्धातुक होने से व को इट् आगम होकर
भूविव रूप बना ।
बभूविम बभूव म यहाँ पूर्ववत डट होकर बभूविम रूप सिद्ध हुआ।
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संस्कृतप्रति
(लुट् लकार) सूत्रम्- अनद्यतने लुट् । 3/3/15 वृत्ति:- भविष्यदनद्यतनर्थे धातोः लुट् । हिन्दी अर्थ - अनद्यतन भविष्यत् के अर्थ में धातु से लुट् लकार हो ।
सूत्रम्- स्यतासी लृलुटोः । 3/1/33 वृत्ति:- धातोः स्य-तासी एतौ प्रत्ययौ स्तः, लृलुटोः परतः । शबाद्यपवादः । ऌ इति लगृङ्ग्रहणम्। हिन्दी अर्थ - धातु से लृट् और लुङ परे होने पर स्य और लुद पर होने पर तास प्रत्यय होते हैं । शबादीतिः यह विधि शप् आदि की बाधक है। ऌ इति लृ से लृङ् और लृट् दोनों का ग्रहण होता है। तब भू+तास् ति यह स्थिति बनी।
सूत्रम्- आर्धधातुकं शेषं । 2/4/114
वृत्ति:- तिङ्गिज्योन्य धातोः इति विहितः प्रत्यय एतत्संज्ञः स्यात् । इट् । हिन्दी अर्थ - तिङ् और शित् प्रत्ययों से भिन्न धातोः इस पचम्यन्त का उच्चारण कर विधान किये हुये प्रत्ययों की आर्धधातुक संज्ञा हो। तब भू+इ+तास्+ति इस दशा में सार्वधातुकार्धधातुकयोः से ऊ को गुण ओ और ओ को अव् आदेश होकर भवितास्+ति यह स्थिति हुई।
सूत्रम्- लुटः प्रथमस्य डा रौ- रसः । 2/4/85
वृत्ति:- लुटः प्रथमस्य डा रौ, रस् एते क्रमात्स्युः । ङित्वसामर्थ्याद्
अभस्यापि टेलोपः- भविता । हिन्दी अर्थ - लुट् के प्रथम पुरुष के प्रत्ययों के क्रम से डा, रौ और रस् आदेश हो, अर्थात् तिप् को डा, तस् को रौ और झि को रस् हो । डा में डकार की इत्संज्ञा होकर लोप हो जाता है। अतः यह ङित् कहा जाता है।
भविता भवितास्+ति इस स्थिति में प्रकृत सूत्र से ति के स्थान में डा आदेश हुआ। डकार की इत्संज्ञा और लोप होने पर पूर्वोक्त प्रकार से ङित्व के बल से टि आस का लोप होकर रूप सिद्ध हुआ ।
सूत्रम्- तास्-अस्त्योर्लोपः । 7/4/50
वृत्ति:- तासेरस्तेश्च लोपः स्यात् सादौ प्रत्यये परे ।
हिन्दी अर्थ - सकारादि प्रत्यय परे होने पर तास और अम् धातु का लोप हो । अलोन्त्य परिभाषा के बल से अन्त्य अल सकार का लोप होगा।
रिच । 7/4/51
2
सूत्रम्-
57
स्पर्धाप्रकाश
वृत्ति:- रादौ प्रत्यये तथा भवितारौ भवितारः । भवितासि, भवितास्थ, भवितास्थ, भवितास्मि भवितास्वः, भवितास्मः ।
हिन्दी अर्थ - रकारादि प्रत्यय परे होने पर भी पूर्ववत् ताम और अम का लोप हो ।
भवितारौः- भृ धातु के लुट के प्रथम पुरुष के द्विवचन में भू +तम इस स्थिति में पूर्वोक्त प्रकार से तास प्रत्यय, इट् आगम, धातु को आर्धर्धातुक निमित्तक गुण ओ आदेश, ओ को अब आदेश होने पर भवितास् तम् ऐसी स्थिति बन जाने पर तस् को रौ आदेश हुआ। तब रि च इस प्रकृत सूत्र से तास के सकार का लोप होने पर रूप सिद्ध हुआ । भवितारः- लुट् के प्रथम पुरुष के बहुवचन में पूर्वोक्त प्रकार से भविताम् + झि ऐसी स्थिति बन जाने पर झि को रस् आदेश हुआ और तब प्रकृत सूत्र से तास के सकार का लोप, सकार को रुत्व विसर्ग होने पर रूप सिद्ध हुआ। भवितासि - मध्यम के एकवचन में भवितास्+सि यहाँ सकारादि सि प्रत्यय परे होने से तास्-अस्त्योर्लोपः सूत्र से तास् के सकार का लोप होने पर रूप बना। द्विवचन में- भवितास्थः । बहुवचन में भवितास्थ । उत्तम में भवितास्मि भवितास्वः, भवितास्मः- ये रूप हैं।
(ऌट् लकार)
सूत्रम्- लृट् शेषे च । 3/3/13 वृत्ति:- भविष्यदर्थाद् धातोर्लट् स्यात् क्रियार्थायां क्रियायामसत्याम् सत्याम् । स्यः इट- हिन्दी अर्थ - भविष्यत्काल की क्रिया को बताने के लिए ऌट् लकार का प्रयोग होता है चाहे क्रियार्थ विद्यमान हो अथवा न हो। ऌट् लकार का प्रयोग सामान्य भविष्यत् काल की क्रिया को प्रकट करने के लिये आता है।
भविष्यति लृट् को यथाक्रम से तिबादि आदेश होंगे तिप् करने पर सर्व प्रथम, स्यतासी लृलुटोः से स्य होगा। स्य प्रत्यय आर्धधातुकं शेषः से आर्धधातुकसंज्ञक है, अतः वलादि आर्धधातुक होने से उसको आर्धधातुकस्येवलादे से इट् आगम हो जायगा । साथ ही सार्वधातुकार्धधातुकयोः से ऊकार को गुण ओकार और उसको अब आदेश होकर भविष्यति ऐसी स्थिति बन जाने पर स्य के सकार के स्थान में प्रत्यय का अवयव होने से मूर्धन्य प्रकार होकर भविष्यति रूप सिद्ध होता है।
संस्कृतप्रतिस्
261
(लोट् लकार)
सूत्रम्- लोट् च । 3/3/162
वृत्ति:- विध्याद्यर्थेषु धातोलोट् ।
हिन्दी अर्थ - विधि आदि अर्थ में धातु से लोट् लकार हो।
सूत्रम्- आशिषि लिङ् लोटौ । 3 / 3 / 173 हिन्दी अर्थ - आशीर्वाद अर्थ में भी लिङ्ग और लोट् लकार आते हैं। भृ धातु से विध्यादि अर्थों में लोट् लकार होने पर उसके स्थान में यथाक्रम मे ति आदि आदेश होकर भवति ऐसी स्थिति बिल्कुल लट् लकार के समान बनेगी।
सूत्रम्- एरुः । 3/4/86
वृत्ति:- लोट इकारस्य उ । भवतु । हिन्दी अर्थ - लोट् के इकार को उकार हो । भवतु- भू धातु से लोट के प्रथम पुरुष के एक वचन में उपर्युक्त प्रकार से, भवति बन जाने पर इस सूत्र से लोट (स्थानिक), ति में वर्तमान इकार को उकार करने से रूप सिद्ध हुआ ।
सूत्रम्- तुह्योस्तातङ् आशीष्यन्यतरस्याम् । 7/1/35
वृत्ति:- आशिषि तुह्योस्तातङ् वा परत्वात् सवदिशः- भवतात्। हिन्दी अर्थ - आशीर्वाद अर्थ में लोट् के तु और हि को विकल्प मे तात आदेश हो। तातड़ में तात शेष रहता है अ की इत्संज्ञा होकर लोप हो जाता है।
भवतात्- भवतु में सम्पूर्ण तु के स्थान में प्रकृत सूत्र से तात् आदेश होकर भवतात् रूप सिद्ध हुआ, पक्ष में भवतु भी रहेगा।
सूत्रम्- लोटो लङ्घत् । 3/4/85 वृत्ति:- लोटस्तामादयः, सलोपश्च । हिन्दी अर्थ - लोट् के स्थान में लड़ के समान ताम् आदि आदेश हों और उसके सकार का लोप होता है।
सूत्रम्- तस्-थस्-थ मिपां तां तं तामः । 3/4/101 वृत्ति:- ङित्चतुर्णा तामादयः क्रमात्स्युः । भवताम् । भवन्तु । हिन्दी अर्थ - ङित्-लङ, लिङ, लुङ् और लङ्-लकारों के चार तस्, थम, थ और मिप्-प्रत्ययों को क्रम से ताम्, तम् त, और अम् आदेश हो । क्रम से कहने से तम् को ताम्, धम को तम, थ को त और मिप को अम आदेश होगा।
प्रकाश
सूत्रम्- सेर्ह्यपिच । 3/4/87 वृत्ति:- लाट महि मो ऽपिच । भवताम् भृ धातु के लोट के द्विवचन में पूर्वोक्त प्रकार से बनी भव तम इस दशा में लगन अतिदेश के बल से प्रकृत सूत्र से नम के स्थान में नाम आदेश होकर भवताम रूप सिद्ध हुआ। भवन्तु झिका रूप है। लद के झि के रूप भवन्ति के समान ही सिद्ध होता है, केवल इकार को एक से उकार कार्य अधिक होता है। हिन्दी अर्थ - लोट् के, सि को हि आदेश हो और वह अपित हो। भव, भवतात्- मध्यम के एकवचन में यहाँ, मि को, हि आदेश हुआ। शेष कार्य शवादि लट् के समान होकर भव- हि यह स्थिति बनी। इसमें आशीर्वाद अर्थ में हि के स्थान में तातङ आदेश होकर भवतात रूप बन गया। तातङ के अभाव पक्ष में भव हि इस दशा में-
सूत्रम् - अतो हे: । 6/4/105
वृत्ति:- अतः परस्य हेर्लुक्। भव भवतात्। भवतम् भवत । हिन्दी अर्थ - अदन्त अङ से परे हि का लोप हो ।
3
भव + हि में अदन्त अङ्ग भव से परे हि का लोप हुआ तो भव रूप बना। तातङ् पक्ष में भवतात् । थम् को तम आदेश होने से भवतम् और थको त आदेश होने से भवत रूप बनते हैं।
सूत्रम् - मेर्नि। 3/4/89
वृत्ति:- लोटो मेर्निः स्यात् ।
हिन्दी अर्थ - लोट् के, मिप को नि आदेश हो ।
लोट् के उत्तम के एकवचन में मिए के मि को नि हो गया। शबादि कार्य भी पूर्ववत होंगे।
सूत्रम्- आइ उत्तमस्य पिच । 3/4/92
वृत्ति:- लोडुत्तमस्याट् स्यात् पिच्च । भवानि । हिन्योरुत्वं न, इत्योच्चारणसामर्थ्यात् ।
हिन्दी अर्थ - लोट् के उत्तम पुरुष के प्रत्ययों को आद आगम हो और वह पित हो।
भवानि - आटू होने पर भव + आ + नि यह स्थिति बनती है, यहाँ सवर्ण दीर्घ करने पर भवानि रूप सिद्ध होता है। हिन्योरिति हि ओर नि के इकार को एरु: सूत्र से उकार नहीं होता क्योंकि इनमें इकार का उच्चारण व्यर्थ हो जायगा।
'65
संस्कृतप्रति
सूत्रम्- ते प्राग् घातोः । 1/4 / 80 वृत्ति:- ते गत्युपसर्गसज्ञका धातोः प्रागेव प्रयोक्तव्याः । हिन्दी अर्थ - गति और उपसर्ग सज्ञावाले प्र आदि शब्दों का धातु से पहले ही प्रयोग करना चाहिये। जैसे- प्रभवति, पराभवति, अनुभवति इत्यादि। इन प्रयोगों में प्र परा और अनु उपसर्ग धातु से पहले प्रयुक्त हुए हैं।
सूत्रम् - आनि लोट् । 8 /4/16
वृत्ति:- उपसर्गस्थाद् निमित्तात् परस्य लोडादेशस्य, आनीत्यस्य नस्य णः स्यात् । प्रभवाणि ।
हिन्दी अर्थ - उपसर्ग में स्थित निमित्त से परे लोट् के स्थान में आनि के नकार को णकार हो । हुए आदेश
प्रभवाणि प्रभवानि यहाँ णत्व का निमित्त रकार, प्र उपसर्ग में है उस से परे, आनि के नकार को णकार होकर प्रभवाणि रूप बना।
वार्तिक- दुरः षत्वणत्वयोरुपसर्गत्वप्रतिषेधो वक्तव्यः। दुःस्थितिः। दुर्भवानि ।
हिन्दी अर्थ - दुर् को षत्व और णत्व के विषय में उपसर्ग का निषेध कहना
चाहिये अर्थात् षत्व और णत्व करना हो तो दुर् को उपसर्ग नहीं माना जाता।
वार्तिक- अन्तः शब्दस्याङ्-विधिणत्वेषूपसर्गत्वं वाच्यम । अन्तर्भवाणि । हिन्दी अर्थ - अन्तर शब्द को अङ्, कि विधि और णत्व के विषय में, उपसर्ग कहना चाहिये अर्थात इसकी उपसर्ग संज्ञा होती है।
अन्तर्भवाणि- यहाँ अन्तर शब्द की प्रकृत वार्तिक से उपसर्ग संज्ञा होने पर उस में स्थित रकार निमित्त से परे आनि के नकार से णत्व हुआ।
सूत्रम्- नित्यं ङितः । 3/4/99
वृत्ति:- सकारान्तस्य ङिदुत्तमस्य नित्यं लोपः । अलोन्त्यस्य - इति सलोपः- भवाव, भवाम|
हिन्दी अर्थ - ङित् लकारों-लङ, लुङ्, लिङ् और लृङ् के सकारान्त उत्तम का नित्य लोप हो । अलोन्त्यस्य इति- इस परिभाषा के बल से अन्त्य अल सकार का ही लोप इस सूत्र के द्वारा होता है। यद्यपि यह सूत्र ङित् लकारों के लिये विधान करता है तथापि लोटो लङ्घत् के अतिदेश से लोट् में भी प्रवृत्त होता है।
भवाव- वस् में शपादि और आट् कार्य करने पर भवाव+स् इस अवस्था में लोटो लङ्-वद् के अतिदेश से सकार का लोप होकर भवाव रूप सिद्ध हुआ।
भवाम- इसी प्रकार बहुवचन में भी रूप सिद्ध होता है।
69
स्पर्धाप्रकाश
(लङ् लकार)
सूत्रम्- लुङ्-लङ्- लडुदात्तः । ६/4/७1
वृत्ति:- लुङ् लङ्- लुङित्येतेषु परतो ऽङ्गस्य अडागमः स्यात्स चोदात्तः ।
हिन्दी अर्थ - लुङ्, लङ् और लृङ् परे होने पर अङ्ग को अडागम होता है और वह उदात्त भी होता है ।
सूत्रम् - अनद्यतने लङ् । 3/2/111
वृत्ति:- अनद्यतनभूतार्थवृत्तेर्धेतोर्लङ् स्यात् ।
हिन्दी अर्थ - अनद्यतन भूतकाल अर्थ में धातु से लङ् लकार होता है।
सूत्रम् - इतश्च । 3/4/100
वृत्ति:- ङितो लस्य परस्मैपदमिकारान्तं यत्तस्य लोपः स्यात् ।
(विधिर्लिङ् लकार)
सूत्रम् - विधि-निमन्त्रणामत्रणाधीष्ट संप्रश्न- प्रार्थनेषु लिङ् I
3/3/161
वृत्ति:- एष्वर्थेषु धातोर्लिङ् ।
हिन्दी अर्थ - 1 विधि, 2 निमन्त्रण, 3 आमंत्रण, 4 अधीष्ट, 5 संप्रश्न, 6 प्रार्थना इन अर्थों में धातु से लिङ् लकार होता है। विधि आदि इन छहों का अर्थ प्रेरणा है परन्तु सब प्रेरणाओं में भेद है-
विधिः- प्रेरणं विधि उस प्रेरणा को कहते हैं जिसे आज्ञा देना कहा जाता है। जैसे- भृत्यादेर्निकृष्टस्य प्रवर्तनम्- नौकरों और मजदूरों आदि अपने से निकृष्ट (छोटों) को कहा जाता है।
निमंत्रणम्- नियोगकरणम्, आवश्यके श्राद्ध भोजनादौ दौहित्रादेः प्रवर्तनम्। निमंत्रण उस प्रेरणा को कहते हैं जिसे टाला नहीं जा सकता, इसे आग्रह कह सकते हैं।
आमन्त्रणः- आमन्त्रणं कामचारानुज्ञा अर्थात् आमंत्रण में आमंत्रित व्यक्ति को आना न आना उसकी इच्छा पर निर्भर है।
अधीष्टः- उस प्रेरणा को कहते हैं जिसमें सत्कार हो । अधीष्टः सत्कारपूर्वको व्यापारः सत्कार पूर्वक किसी को कार्य में
लगाना।
संप्रश्न : उस प्रेरणा को कहते हैं जिसमें परामर्श लेने का भाव हो संप्रधारणम् संप्रश्नः- निश्चय के लिये कहना।
प्रार्थना:- उस प्रेरणा को कहते हैं जो अपने से बड़ों से की जाती है। प्रार्थनम्-याना ।
सूत्रम्- यासुट् परस्मैपदेषुदात्तो ङिच्च । 3/4/103
संस्कृतप्रतिस्
वृत्ति:- लिड परस्मैपदाना यामुइ आगमः, उदात्तो डिच । हिन्दी अर्थ - लिइ के परस्मैपद प्रत्ययो को, यासुट् आगम हो और वह उदात्त और डित भी हो। इससे भव+यास+त यह स्थिति हुई।
सूत्रम्- लिङः सलोपो ऽनन्त्यस्य । 7/2179 वृत्ति:- सार्वधातुकलिङो ऽनन्त्यस्य सस्य लोपः । इति प्राप्ते- हिन्दी अर्थ - सार्वधातुक लिङ् के अनन्त्य- जो अन्त में न हो सकार का लोप हो। भव+यास् + त् यहाँ सार्वधातुक लिङ् यास त् है, इसका सकार अन्त्य नही। अतः लोप प्राप्त हुआ।
27
सूत्रम् अतो येयः । 7 /2/80 वृत्ति:- अतः परस्य सार्वधातुकावयवस्य यास इत्यस्य इय् । गुणः । हिन्दी अर्थ - अदन्त अङ्ग से परे सार्वधातुक के अवयव, यास को, आदेश हो । इय
सूत्रम्- लोपो व्योर्वलि । 6/1/66
वृत्ति:- वलि वकारयकारयोर्लोपः स्यात् । भवेत्। भवेताम् । हिन्दी अर्थ - वल परे रहते वकार और यकार का लोप हो ।
भवेत्- भू धातु से ङित् के प्रथम के एकवचन में पूर्वोक्त प्रकार से, भवेय् त् इस स्थिति में वल तकार परे होने से यकार का लोप हुआ। भवेताम्- द्विवचन में भू तस्, भू अ तस्, भू अ ताम्, भव् अ यास् ताम्, भव इय् ताम्, भवे य् ताम् इस स्थिति में वल तकार परे होने से यकार का लोप होने पर रूप सिद्ध होता है।
सूत्रम्- झेर्जुस् । 3/4/108 वृत्ति:- लिङो झेर्जुस् स्यात् । भवेयुः । भवेः, भवेतम्, भवेत, भवेयम्, भवेव, भवेम । हिन्दी अर्थ - लिङ् के झि को जुस् आदेश हो ।
भवेयुः- लिङ् के प्रथम पुरुष के बहुवचन में, झि को प्रकृत सूत्र झि को जुस् आदेश होता है सकार के विसर्ग हो जाते हैं। शेष कार्य पूर्ववत् होते हैं ।
भवेः- लिङ् के मध्यम पुरुष के एक वचन में भवेय् स् ऐसी स्थिति में लोपो व्योर्वलि से यकार का लोप हो जाता है। सिप् के इकार का ङित् लकार होने से इतश्च सूत्र से पहले ही लोप हो जाता है। सकार को विसर्ग होते हैं।
भवेतम्- भवेय् तम्-भवेतम् । यकार का लोप हुआ।
भवेत- भवेय् त-भवेय् व भवेव । भवेम भवेय् मस्-भवेय् म-भवेम्। अन्तिम दो रूपों में नित्यं ङितः से सकार का और लोपो व्योर्वलिः से
:70
स्पर्धाप्रकाश
वकार का लोप होता है।
(आशीर्लिङ् लकार)
सूत्रम्- लिङ्-आशिषि । 3/4/116
वृत्ति:- आशिषि लिङस्तिङ आर्धधातुकसंज्ञः स्यात् ।
हिन्दी अर्थ - आशीर्वाद अर्थ में लिए के स्थान में आदेश हुए, तिङ् की
आर्धधातुक संज्ञा हो ।
सूत्रम्- किद्-आशिषि । 3/4/104
वृत्ति:- आशिषि लिङो यासुट कित् । स्कोः संयोगाद्योः इति सलोपः । हिन्दी अर्थ - आशीर्वाद अर्थ के लिङ को जो यामुद आगम होता है वह कित हो। स्कोरिति- इसमें स्को: संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से पदान्त संयोग, सुप के आदि सकार का लोप हुआ तब भूयात् यह रूप बना।
सूत्रम् - क्ङ्गिति च । 1/1/5 वृत्ति:- गित-कित्-ङित् निमित्ते इग्लक्षणे गुणवृद्धिः न स्तः । हिन्दी अर्थ - गित, किद् और ङित् प्रत्ययों के परे रहते इग्लक्षण गुण और वृद्धि कार्य नहीं होते।
भूयात्- भू धातु के आशीर्लिङ् के प्रथम पुरुष के एक वचन में पूर्वोक्त प्रकार से, भू यास् त् इसी स्थिति में, स्को: संयोगाद्योरन्ते च सूत्र मे संयोग, स्त के आदि सकार का लोप हुआ। सार्वधातुक न होने से लिङ् सलोपो ऽनन्त्यस्य सूत्र से सकार का लोप नहीं होता। यास् आर्धधातुक परे होने से, सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से ऊकार को गुण प्राप्त है। परन्तु आशीर्लिङ् का होने से, यास् कित् है अतः उसके परे रहने से यहाँ गुण नहीं होता, प्रकृत सूत्र से गुण का निषेध हो जाता है।
द्विवचन- भू यास् ताम्। तस् को ताम् आदेश हुआ । बहुवचन- भूयास्+उस्- भूयासुः । झेर्जुसः से झि को जुस हुआ। मध्यम एकवचन- भू यास् सिप्- भूयाः । इतश्च से इकार लोप। प्रथम सकार का संयोगादि लोप और द्वितीय सकार को विसर्ग । द्विवचन- भूयास् तम्-भूयास्तम् । थस् को तम् आदेश हुआ। बहुवचन- भूयास् त-भूयास्त । थ को त आदेश हुआ। उत्तम एकवचन- भूयास् अम् भूयासम् । मिप् को, अम् आदेश हुआ। द्विवचन- भूयास् वस्-भूयास्व । नित्यं ङितः से अन्त्य स का लोप बहुवचन- भूयास् मस् भूयास्म ।
संस्कृतप्रतिस्
27
(लुङ् लकार) सूत्रम्- लुङ् । 3/2/110 वृत्ति:- भूतार्थे धातोर्लुङ् स्यात् । हिन्दी अर्थ - (सामान्य) भूतकाल में क्रिया का होना प्रकट करना हो तो धातु से, लुङ् लकार आता है।
सूत्रम् - माङि लुङ् । 3 / 3 / 17 वृत्ति: सर्वलकारापवादः । हिन्दी अर्थ - माङ् उपपद रहते धातु से लुङ् लकार हो । सर्वेति- ते- यह सब लकारों का अपवाद-बाधक है, अर्थात् माझ के योग में सभी लकारों के विषय में, लुङ ही होता है।
सूत्रम् - स्मोत्तरे लड् च । 3/3/176 वृत्ति:- स्मोत्तरे माङि लड् स्यात् चात् लुङ् । हिन्दी अर्थ- स्म परक माङ् उपपद रहते धातु से लङ् लकार हो और लुङ् भी।
सूत्रम्- लि लुङि । 3/1/43 वृत्ति:- शबाद्यपवादः । हिन्दी अर्थ - लि विधि शप्, श्यन् और श आदि विकरणों का अपवाद है । अभू+त् इस अवस्था में सार्वधातुक तिङ् तिप् परे रहते शप् प्राप्त होता है। उसको बाधकर प्रकृत सूत्र से लि हो गया। तब अभू+च्लि+त् यह दशा बनी।
सूत्रम्- लेः सिच् । 3/1/44 वृत्ति:- इचावितौ । हिन्दी अर्थ - लि को, सिच् आदेश हो । इचाविति सिच् में इकार और चकार इत्संज्ञक अनुबन्धहैं केवल स् शेष रहता है। यहाँ लि के स्थान में सिच् होने पर अ+भू+ स् +त् यह स्थिति हुई ।
सूत्रम्- गाति-स्था-घु-पा-भूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु । 2/4/77 वृत्तिः एभ्यः सिचो लुक स्यात् ।
हिन्दी अर्थ - गा, स्था, घुसंज्ञक, पा और भू धातुओं से परे सिच् का लुक् हो । गापोर्ग्रहणे इणपिबत्योर्ग्रहणम् अर्थात् गा पा से इण् और पा पाने घातुओं का ग्रहण करना चाहिये ।
पर्धाप्रकाश
सूत्रम्- भूसुवोस्तिङि । 7/3/88
वृत्ति: भृ मृ एतयोः सार्वधातुके तिङि परे गुणा ना अभूत, अभूताम, अभूवन् अभू, अभृतम, अभृत। अभूवम्, अभूव, अभूम|
हिन्दी अर्थ - भू और मृ धातुओं को सार्वधातुक तिङ् परे रहते गुण न
अभूत् भृ धातु के लुइ लंकार के प्रथम पुरुष एकवचन में अभूम त इस प्रकृत स्थिति में भृ धातु से परे, मिच का लोप हो गया। तब फिर, अभूत बना। यहाँ सार्वधातुक त् परे रहते, सार्वधातुकार्धातुकयोः इम सूत्र से गुण प्राप्त होता है। उसका अग्रिम सूत्र से निषेध होकर अभूत यही रूप सिद्ध होता है। हो।
अभूताम्- अभू स ताम् अभूताम् । अभूवन् लुङ के प्रथम पुरुष के बहुवचन में पूर्वोक्त प्रकार से अ+भू+अन्ति इस स्थिति में लुइ सम्बन्धी अच् परे मिल जाने से भुवो वुग् लुङ्किटोरचि मूत्र से धातु को वुक् आगम हुआ। तब अभूव + अन्ति इस स्थिति में लि, सिच, सिच के इकार का लोप और तकार का संयोगान्त लोप होने पर रूप सिद्ध हुआ।
अभूः- अभू+सि, अभू+स्
== अभूः ।
अभूवम्- अ भूमि-अ भू अम्-अ भू स् अम्-अभू अम्- अभूव् अम्-अभूवम्।
अभूवन्- अभूवम्-इन प्रयोगों में अजादि प्रत्यय होने से, भुवो वुक लुब्लिटोरचि सू से वुक् आगम होता है शेष रूपों की सिद्धि साधारण है । परन्तु ध्यान रहे कि लि, लि के स्थान में सिच् आदेश और सिच् के लोप की चर्चा साधन प्रक्रिया में अवश्य की जानी चाहिए।
सूत्रम् - न मायोगे | 6/4/74
वृत्ति:- अडाटौ न स्तः । भा भवान् भूत्। मा स्म भवत् । हिन्दी अर्थ - माङ् के योग में अट् और आट् आगम नहीं होते।
(ऌङ् लकार) सूत्रम्- लिङ्गिमित्ते लृङ् क्रियातिपत्तौ । 3/3/139 वृत्ति:- हेतुहेतुमद्भावादि लिङ्गिमित्तम्, तत्र भविष्यत्यर्थे लृङ् स्यात्, क्रियाया अनिष्पत्तौ गम्यमानायाम् । हिन्दी अर्थ - लृङ् का निमित्त हेतुहेतुमदभाव आदि है, उसमें यदि क्रिया का भविष्यत् काल में होना प्रकट करना हो तो धातु से लङ् लकार हो ।
1
संस्कृतप्रतिर
अभविष्यत् भूधातु से लइ लकार आने पर सर्वप्रथम भू अङ्ग का अट आगम हुआ। तब लकार को यथाक्रम में तिबादि आदेश होग प्रथम के एकवचन में तिए इसके इकार का इतश्च में इत्मज्ञा होकर लोप स्यतासी लृलुटोः से शप को बाधकर स्य प्रत्यय बलादि आधधक होने से स्य को आर्धधातुकत्येड़वलादेः मे इट् आगम, सार्वधातुकाधातुकयोः से ऊकार को ओ गुण आदेश और ओंकार को अवादेश होने के अनन्तर इद के इकार इण से परे स्य प्रत्यय के अवयव सकार का आदेशप्रत्यययोः से मूर्धन्य षकार होकर रूप सिद्ध हुआ।
अभविष्यताम्- प्रथम पुरुष के द्विवचन में अट् तस् को ताम् आदेश, स्य, इद, गुण, अवादेश, षत्व क्रम से उक्त कार्य होकर सिद्ध हुआ । अभविष्यन्- प्रथम पुरुष के बहुवचन में अट्, झि, इकार का लोप, झ, अन्त आदेश, स्य, इद, गुण, अब, आदेश, तकार का संयोगान्त लोप और षत्व होकर रूप सिद्ध हुआ । अभविष्यः- मध्यम पुरुष के एकबचन में अट्, सिप, इकार का लोप, स्य, इट्, गुण, अव् आदेश, रुत्व और विसर्ग षत्व होकर रूप बना। अभविष्यतम्- मध्यम पुरुष के द्विवचन अट्, थस्, तम्, आदेश, स्य, इट्, गुण, अव् आदेश और षत्व होकर रूप सिद्ध हुआ। अभविष्यत- मध्यम पुरुष के बहुबचन में थ को, त आदेश शेष प्रक्रिया पूर्ववत् । अभविष्यम्- उत्तम पुरुष के एक बचन में अट्, मिप, स्य, इद, गुण, अव आदेश और षत्व होकर रूप बना। अम् आदेश अभविष्याव, अभविष्याम इन उत्तम पुरुष के द्विवचन और बहुवचन के रूपों में, अतो दीर्धो यञि से दीर्घ और नित्यं ङितः से सकार का लोप पूर्वोत्त कार्यों से विशेष होते हैं।
एध् वृद्धौ ।
॥ आत्मनेपदी एध् धातु ॥
(लट् लकार)
हिन्दी अर्थ - यह एध वृद्धौ धातु वृद्धि अर्थ में आती है ।
सूत्रम्- टित आत्मनेपदानां टेरे। 3/4/79
वृत्ति:- टितो लस्यात्मनेपदानां टेरेत्वम् । एधते ।
2.
पर्धाप्रकाश
हिन्दी अर्थ - टिन लकारो के स्थान में आदेश हुए आत्मनेपद प्रत्यया के
टि के स्थान में एकार आदण हो ।
एधते उनम प्रथम के एकवचन में त आदर्श होने पर उसकी तिङ्घित्सार्वधातुकम् मे सार्वधातुक संज्ञा होती है। तब कर्तरि शप से शप होकर एधत यह स्थिति बनती हैं यहाँ टि का एकार करने पर रूप सिद्ध हाता है।
सूत्रम् - आतो ङित्तः । 7 / 2/81
वृत्ति:- अतः परस्य ङितामाकारस्य इय् स्यात् । एते । एधन्ते ।
हिन्दी अर्थ - अकार से पर ङित प्रत्ययों के आकार को इय आदेश हो ।
एधेते एध + अ + आताम यहाँ आकार से परे ङित् प्रत्यय आताम के आदि आकार के स्थान में इय् आदेश हुआ। तब ए + अ+इय् ताम इस दशा में अकार और इकार को एकार गुण एकादेश वल तकार परे होने से लोपो व्योर्वलि से यकार का लोप और टि आम को एकार होने पर रूप बनता है।
एधन्ते- बहुवचन में शप् होने पर झ को अन्त आदेश टि को एकार शप् के अकार का अन्त के अकार के साथ पररूप होकर रूप सिद्ध होता है । और
सूत्रम् - थासः से: । 3/4/80
वृत्ति:- टितो लस्य थासः से स्यात् । एधसे एधेथे एधध्वे । अतो गुणे- एधे, एधावहे एधामहे । हिन्दी अर्थ - टित् लकारों के थास के स्थान में से आदेश हो। एधसे- मध्यम के एकवचन में शप होने पर एध + अ+थास् इस दशा में टित् आत्मनेपदानां टेरे से टि को एकार प्राप्त होता है उसको बाधकर थासः से थास् को से आदेश होने पर रूप सिद्ध होता है । एधेथे- मध्यम के द्विवचन आथाम् आने पर शप, ङित होने से प्रथम आकार को इय् आदेश, आकार और इकार को एकार गुण एकादेश, टि आम् को ए होने पर रूप सिद्ध होता है। एधध्वे- बहुवचन ध्वम् की टि आम को ए होकर बनता है।
2
संस्कृतप्रति
एथे उत्तम के एकचन इट् में शप आने पर एध अइ इस दशा में टि इ को एकार हो जाता है। अतो गुणे से शप के अकार का पररूप होने से रूप सिद्ध होता है।
एधावहे एधामहे द्विवचन में टि को एकार और अतो दीर्घो अयि से यदि वहि प्रत्यय परे रहते एधावहे और बहुवचन में इसी प्रकार एधामहे रूप सिद्ध होता है ।
(लिट् लकार) सूत्रम्- इजादेश्च गुरुमतोनच्छः । 3 / 1 /36 वृत्ति:- इजादियों धातुर्गुरुमान् ऋच्छत्यन्यः, तत आम् स्याल्लिटि । हिन्दी अर्थ - ऋच्छ धातु से भिन्न गुरुवर्णवाले इजादि धातु से आम हो लिट् परे रहते ।
सूत्रम् - आम्प्रत्ययवत् कृञोऽनुप्रयोगस्य । 1/3/63
वृत्ति:- आम् प्रत्ययो यस्माद् इति अतद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः । आम्प्रकृत्या तुल्यमनुप्रयुज्यमानात् कृञोऽप्यात्मनेपदम् ।
हिन्दी अर्थ - आम् प्रत्यय जिस धातु से होता है, आम प्रकृतिभूत उस धातु के समान अनुप्रयुज्यमान कृ धातु से भी आत्मनेपद हो ।
सूत्रम्- लिटस्त झयोरेश्- इरेच् । 3/4/81
वृत्ति:- लिडादेशयोस्तझयोः एश् इरेच् एतौ स्तः । एधाञ्चक्रे, एधाञ्चक्राते, एधाञ्चक्रिरे । एधाञ्चकृषे, एधाञ्चक्राथे-
2
हिन्दी अर्थ - लिट् के स्थान में आदेश हुए त और झ को एश् और इरेच् आदेश क्रम से हो ।
एधाञ्चक्रे - एधाम्+कृ+त इस अवस्था में लिटस्त-झयोरेश्-इरेच्
इस सूत्र से त को एश् आदेश होने पर एधाम् + कृ + ए इस दशा में द्वित्व, चुत्व, यण, म् को अनुस्वार और उसको परसवर्ण होकर यह रूप बनता है।
|एधाञ्चक्राते झ में झ को इरेच् आदेश होने से सिद्ध होता है।
एधाञ्चकृषे- थास् में उसको से आदेश होकर सकार को इण् ऋकार से पर होने के कारण मूर्धन्य षकार हो एधाञ्चकृषे रूप होता है। वलादि आर्धधातुक होने से प्राप्त इट् का निषेध हो जाता है ।
एधाञ्चक्राथे- आथाम् में पूर्ववत् सिद्धि होती है।
सूत्रम्- इणः षीध्वं लुङ् लिटां धोऽङ्गात् । 8/3/78
स्पर्धाप्रकाश
वृत्ति:- इण्णन्ताद अङ्गात् परषा पीध्य लुङ-लिटा धस्य दु स्थान। एधाञ्चक्रे एधाञ्चकृवहे एधाम्बभूव । एधामामा एधिता, एधितारो, एधितारः । एधितासे, एधितासाथे ।
हिन्दी अर्थ - इणन्त अङ्ग से परे षीध्वम्, लुङ और लिद के धकार को ढकार हो ।
एधाञ्चकृवे- ध्वम् में ध्वम के अन्तिम भाग अप टि के स्थान में एकार होने पर सिद्ध हुई स्थिति एधाञ्चकृ अन्त में ऋकार होने से इण्णन्त है और उससे पर लिट् के मध्यम के बहुवचन ध्वम् का धकार है, उसके स्थान में प्रकृत सूत्र से ढकार होकर रूप की सिद्धि होती है। एधाञ्चक्रे - इट् में टि इकार को एकार होकर रूप सिद्ध होता है। एधाञ्चकृवहे, एधाञ्चकृमहे व और म में रूप बनते हैं। इनमें भी इट् का निषेध होता है ।
एधाम्बभूव, एधामास भू के अनुप्रयोग में एधाम्बभूव आदि और अस् के अनुप्रयोग में एधामास आदि रूप बनते हैं ।
(लुट् लकार)
लुद में प्रथम के रूप परस्मैपदी धातुओं के समान ही बनते हैं- एधिता, एधितारौ, एधितारः ।
एधितासे - मध्यम में थास् को से आदेश होने पर तासस्त्योर्लोपः से
सकार का लोप होकर रूप सिद्ध होता है।
एधितासाथे- आथाम् में टि आम् को एकार होकर रूप बनता है।
सूत्रम् - धिच । 8/2/25
वृत्ति:- धादौ प्रत्यये परे सस्य लोपः । एधिताध्वे ।
हिन्दी अर्थ - धकारादि प्रत्यय परे होने पर सकार का लोप हो।
एधिताध्वे- एधितास् ध्वे इस दशा में इससे सकार का लोप होकर रूप सिद्ध होता है।
सूत्रम् - ह एति । 8/4/25
वृत्ति:- तासस्त्योः सस्य हः स्याद् एति परे। एधिताहे, एधितास्वहे, एधितास्महे । एधिष्यते, एधिष्येते, एधिष्यन्ते । एधिष्यसे, एधिष्येथे, एधिष्यध्वे । एधिष्ये, एधिष्यावहे, एधिष्यामहे । हिन्दी अर्थ - तास् और अस् धातु के सकार को हकार हो एकार परे होने पर ।
73.
संस्कृतप्रति
27
एधिताहे एधितास ए यहाँ एकार पर होने से ताम के सकार को हकार
होकर रूप सिद्ध होता है।
एधितास्वहे, एधितास्महे यहाँ टि को ए हुआ है।
(ऌट् लकार)
लूट में विशेष कार्य टि को एकार आदेश करना है शेष कार्य परस्मैपद के समान ही होते है।
(लोट् लकार)
सूत्रम्- आमेतः । 3/4/90
वृत्ति:- लोट एकारस्याम स्यात् एधताम् एधेताम, एधन्ताम् । हिन्दी अर्थ - लोट् के एकार को आम आदेश हो।
एधताम्- लोट् के प्रथम पुरुष के एकवचन में टि को एकार करने पर एधते यह स्थिति हुई इसके बाद एधते के एकार को आमेतः सूत्र से आम आदेश करने पर रूप बनता है।
एधेताम् एधन्ताम् द्विवचन और बहुवचन में भी लट् के समान एधेते और एधन्ते बनाने के अनन्तर एकार को आम आदेश होकर रूप सिद्ध होते हैं। मध्यम के एकवचन में लट् के समान एधसे बनने पर आमेतः से एकार को आम् प्राप्त होता है।
सूत्रम्- सवाभ्यां वामौ । 3/4/91 - वृत्ति: सवाभ्यां परस्य लोडेतः क्रमाद् वामौ स्तः । एधस्व, एधेथाम्, एधध्वम् । हिन्दी अर्थ - वकार परे लोट के एकार को क्रम से व और अम् आदेश हो । यह सूत्र आमेतः का अपवाद है।
एधस्व- सकार से पर ऐकार को व होकर रूप बना।
एधध्वम्- इसी प्रकार ध्वम् लट् के समान ध्वे बनने पर प्राप्त आम् आदेश
को बाधकर अम होने से एधध्वम् रूप बनता है।
सूत्रम् एत ऐ । 3/4/93
वृत्ति:- लोडुत्तमस्य एत ऐ स्यात् । एधै एधावहै एधामहै। आटश्च ऐधत, ऐधेताम, ऐधन्त ऐधथा, ऐधेथाम् ऐधध्वम् ऐथे, ऐधावहि, ऐधामहि । हिन्दी अर्थ - लोट् के उत्तम के एकार को ऐ हो। यह भी आमेतः का अपवाद है।
74
पर्धाप्रकाश
एधे प्रकृत सूत्र से एकार का ऐकार होने पर आट के साथ वृद्धि हार रूप बनता है। एधावहै एधामहै- द्विवचन और बहुचन में एध अ आ वहि और एक अ आ महि इस दशा में सवर्णदीर्घ और टि का ए होने पर एधावह और एधामहे इस दशा मे एकार को प्राप्त आम को बाधकर ऐकार आदेश हुआ तब एधावहै और एधामहे रूप सिद्ध होते हैं।
(लङ् लकार)
लड़ में अजादि होने से आडजादीनाम् मूत्र से अङ्ग को आद का आगम होता है तब आटश्च से वृद्धि एकादेश ऐकार होकर ऐधत आदि रूप बनते हैं।
ऐधे- यहाँ शप के अकार और इद के इकार का गुण एकार होता है। ऐधावहि, ऐधामहि- यहाँ शप के अकार को वहि और महि परे होने से अतो दीर्घो यञि में दीर्घ होता है।
(लिङ् लकार)
सूत्रम्- लिङः सीयुट | 3/4/102
वृत्ति:- लिङ्गात्मनेपदस्य सीयुडागमः स्यात् । सलोपः एधेत, एधेयाताम् । हिन्दी अर्थ - लिङ् के स्थान में आदेश हुए आत्मनेपद प्रत्ययो को सीयुट् आगम हो । सलोप इति विधिलिङ् में सार्वधातुक होने से सीयुद के सकार का लिङः सलोपोननत्यस्य से लोप होता है।
एधेत प्रथम के एकवचन में शप होने पर एध् अ सीयु त यह अवस्था हुई। यहाँ सार्वधातुक लकार होने से तदवयव सीयुट् के सकार का लिङः सलोपोनन्त्यस्य से लोप होता है तथा लोपो व्योर्वलि से बल तकार परे होने से यकार का भी लोप होता है तब एध् अ ई त इस दशा में आद गुणः से रूप बनता है। एधेयाताम्- आताम् में सकार का लोप और अकार तथा ईकार को गुण एकार होकर एघेयाताम् रूप सिद्ध होता है। झ में सीयुट्, उसके सकार का लोप और शबादि होने पर एधेय् झ या स्थिति होती है।
सूत्रम् - झस्य रन् । 3/4/105
वृत्ति:- लिङो झस्य रन् स्यात् । एधेरन् । एधेथाः एधेयाथाम् एधेध्वम् । हिन्दी अर्थ - लिङ् के झ को रन आदेश हो ।
एधेरन् एधेय झ यहाँ झ को रन् आदेश होने पर लोपो व्योर्वलि
के यकार का लोप होकर एघेरन रूप सिद्ध होता है।
एधेथाः, एधेध्वम्- इनमें भी यकार का लोप हो जाता है।
संस्कृतप्रति
2
सूत्रम् - इटोऽत् । 3/4/106
वृत्ति:- लिडादेशस्य इटोऽत् स्यात् । एधेय, एधेवहि एधेमहि । हिन्दी अर्थ - लिङ् के स्थान में आदेश हुए इट् को अत् आदेश हो। अत् का अकार शेष रहता है।
एधेय- एधेय इ यहाँ इ को अकार करने पर एधेय रूप बनता है। एधैवहि एधेमहि- यहाँ यकार का लोप हो जाता है।
(आशीर्लिङ् लकार)
आशीर्लिङ में आर्धधातुक होने से सीयुट् के सकार का लोप नहीं होता और वलादि आर्धधातुक होने से इट् आगम हो जाता है। तब ए+ध् + इ + सीयू+त यह स्थिति बनती है।
सूत्रम्- सुट् तिथोः । 3/4/107 वृत्ति:- लिडस्तथोः सुट् । यलोपः आर्धधातुकत्वात् सलोपो न। एधिषीष्ट, एधिषीयास्ताम्, एधिषीरन् । एधिषीष्ठाः एधिषीयास्थाम्, एधिषीध्वम् । एधीषीय, एधिषीवहि, एधिषीमहि। ऐधिष्ट, ऐधिषाताम् । हिन्दी अर्थ - लिङ् के तकार और थकार को सुद आगम हो ।
यलोप इति- इस सूत्र से तकार और थकार को सुद आगम होने पर एध्+इ+सीय्+स्+त इस स्थिति में वलादि आर्धधातुक परे होने से यकार का लोप हुआ ।
आर्धधातुकत्वादिति- आर्धधातुक होने से लिङः सलोपो ऽनन्त्स्य से सीयुट् के सकार का लोप नहीं होता।
एधिषीष्ट्- तब ए इ सी स् त इस दशा में इण् से परे होने के कारण दोनों प्रत्यय के अवयव सकारों के मूर्धन्य षकार आदेश और ष्टुत्व से तकार को टकार हो कर एधिषीष्ट रूप सिद्ध होता है।
एधिषीयास्ताम् एधीषीरन्-
एधिषीयास्ताम् और झ में एधीषीरन् रूप बनते हैं।
आताम् में तकार को सुद होने से
रन् आदेश होने से यकार का लोप होकर
एधिषीष्ठाः- थास् में थकार को सुट् आगम होकर मूर्धन्य आदेश होने पर थकार को ष्टुत्व ठकार होकर एधिषीष्ठाः यह रूप बनता है।
पर्धाप्रकाश
एधिषीय- यहाँ एघ+इ+सीय +इ इस स्थिति में ईट का इटोउत स अकार होने पर सीयुट् के सकार को मूर्धन्य प्रकार होकर रूप सिद्ध हुआ है।
(लुङ् लकार) ऐधिष्ट- ए (लुइ) आट, वृद्धि, त, लि उसको मिच, इद, षत्व और ष्टुत्व होकर रूप सिद्ध हुआ है। एधिषाताम् एध, लुङ, आद, वृद्धि, आताम् आदेश, च्चि, उसको सिच, उसको इट् और षत्व करने से उक्त रूप सिद्ध होता है।
'5
सूत्रम्- आत्मनेपदेष्वनतः । 7/1/5
वृत्ति:- अनकारात् परस्यात्मनेदेषु झस्य अत् इत्यादेशः स्यात् । ऐधिषत । ऐधिष्ठाः ऐधिषाथाम् ऐधिवम् । ऐधिषि, ऐधिष्वहि, ऐधिष्महि । ऐधिष्यत, ऐधिष्येताम् एधेधिष्यन्त । ऐधिष्यथाः, ऐधिष्येथाम् ऐधिष्यध्वम् । ऐधिष्ये, ऐधिष्यावहि, ऐंधिष्यामहि ।
हिन्दी अर्थ - अकारभिन्न वर्ण से पर आत्मनेद झ के स्थान में अत आदेश हो। यह झोन्तः का अपवाद है।
ऐधिषत- ए धातु से पर झ को अत् आदेश होगा, क्योंकि यहाँ वह अकार से पर नहीं सिच् के सकार से परे है। इस प्रकार ऐधिषत रूप बनता है।
ऐधिष्ठा:- एध् से लुङ्, आट् वृद्धि, त्रि, सिच्, थास्, इद, षत्व और ष्टुत्व ठकार होकर यह रूप सिद्ध होता है।
ऐधिवम् एध् से लुङ, आट्, वृद्धि, ध्वम्, लि, सिच्, इट सलोप और ढत्व होकर रूप सिद्ध होता है।
(ऌङ् लकार)
ऐधिष्यत आदि रूप लृङ् लकार में बनते हैं। प्रक्रिया में कुछ अधिक विशेषता नहीं लट् के समान ही कार्य होते हैं। यहाँ ङित् लकार होने से आए अधिक होता है और टित् लकार न होने से टि को एकार नहीं होता।
अद् भक्षणे ।
निष्कर्ष
भ्वादिगण संस्कृत भाषा का मूल आधार है। इस गण की धातुओं का अध्ययन करने से भाषा की जटिलता और सौंदर्य को समझा जा सकता है। साथ ही, ये धातुएं विचारों को स्पष्टता और संरचना प्रदान करती हैं। संस्कृत सीखने के लिए भ्वादिगण का ज्ञान अनिवार्य है, क्योंकि यह भाषा के सभी पहलुओं को समझने की कुंजी है।