विश्वामित्र नदी संवाद

विश्वामित्र नदी संवाद

 विश्वामित्र नदी संवाद 

  • मंत्र- 13, ऋग्वेद- 3 / 33 ऋषि - विश्वामित्र, स्वर- पञ्चम, धैवत, ऋषभ, देवता- नदियां (विपाट् शुतुद्री) छन्द - पङ्कित्रिष्टुप, उष्णिक, ऋग्वेद के तीसरे मण्डल का 33वाँ सूक्त है, 

जिसमें कुल 13 मन्त्र हैं। भरतवंशी विश्वामित्र सुदास से पौरोहित्य कर्म का धन लेकर अपने गन्तव्य मार्ग के लिए जाने लगा तो अन्य लोग भी उसका अनुकरण करने लग जाते हैं। रास्ते में नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण उन्हें पार करना मुश्किल था। 13 मन्त्रों में विश्वामित्र द्वारा शुतुद्री और विपाट् नदियों से मार्ग देने के लिए प्रार्थना की गई है।

विश्वामित्र नदी संवाद

UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस

॥ विश्वामित्र नदी संवाद ॥

प्र पर्वतानामुशती उपस्थादश्वे इव विषिते हासमाने।
गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे, विपातुद्री पयसा जवेते।। 1।। 
पर्वतों की गोद से निकलकर समुद्र की ओर जाने की इच्छा करती हुई (परस्पर) स्पर्धा से दौड़ती हुई, खुले बाग वाली दो घोड़ियों की तरह (बछड़े) को चाटती हुई दो सफेद माता गायों की तरह विपाट और शुतुद्री (अपने) प्रवाह से तेजी से बह रही हैं।
इन्द्रेषिते प्रसवं भिक्षमाणे, अच्छा समुद्रं रथ्येव याथः ।
समाराणे ऊर्मिभिः पिन्वमाने, अन्या वामन्यामप्येति शुभ्रे ।। 2।। 
इन्द्र द्वारा भेजी गई, बहने के लिए प्रार्थना करती हुई, दो रथियों की तरह समुद्र की ओर जा रही हो। हे शुभे! एक साथ जाती हुई, लहरों से उमड़ती हुई; तुममें से प्रत्येक एक-दूसरे की ओर जा रही हो।
अच्छा सिन्धु मातृतमामयासं, विपाशमुर्वी सुभगामगन्म।
वत्समिव मातरा संरिहाणे, समानं योनिमनु सञ्चरन्ती ।। 3 ।। 
श्रेष्ठ नदी माता (शुतुद्री) के पास आया हूँ। चौड़ी तथा सुन्दर विपाट के पास आया हूँ। बछड़े को चाटती हुई दो माताओं की तरह, एक ही स्थान (समुद्र) को लक्ष्य करके बहती हुई (शुतुद्री और विपाशा) के पास आया हूँ।
एना वयं पयसा पिन्वमाना, अनुयोनिं देवकृतं चरन्तीः।
न वर्तवे प्रसवः सर्गतक्तः, किंयुर्विप्रो नद्यो जोहवीति ।। 4॥
ऐसी हम लोग अपनी धारा से उमड़ रही है, तथा देव (इन्द्र) द्वारा निर्मित स्थान पर चल रही हैं। स्वाभाविक रूप से प्रवाहित हम लोगों की गति रुकने के लिए नहीं है। किस इच्छा से ऋषि (विश्वामित्र) नदियों की बार-बार स्तुति कर रहा है।
रमध्वं मे वचसे सोम्याय, ऋतावरीरुप मुहूर्तमेवैः।
प्र सिन्धुमच्छा बृहती मनीषा-वस्युरहे कुशिकस्य सूनुः ॥5॥ 
हे पवित्र जलवाली (नदियों)! सोमाप्लावित मेरे वचनों के प्रति अपनी यात्रा से क्षणभर के लिए रुक जाओ। अपनी सहायता का इच्छुक, कुशिकपुत्र मैंने ऊँची स्थिति से नदी (शुतुद्री) का आह्वान किया है।
इन्द्रो अस्माँ अरदद्वज्रबाहुर पाहन्वृत्रं परिधिं नदीनाम् ।
देवोऽनयत्सविता सुपाणिस्तस्य वयं प्रसवे याम उर्वीः ।। 6 ।। 
वज्रधारी इन्द्र ने हमें खोदकर बाहर किया। उसने नदियों को घेरने वाले वृत्र को मारा। सुन्दर हाथों वाले सवितृ देव हम लोगों को लाए। हम जितनी चौड़ी हैं, उसकी आज्ञा में निरन्तर बहती हैं।
प्रवाच्यं शश्वधा वीर्यं तद्, इन्द्रस्य कर्म यदहिं विवृश्चत् । 
वि वज्रेण परिषदो जघाना- यन्नापोऽयनमिच्छमानाः।।7।।
इन्द्र का वह पराक्रमयुक्त कार्य, जो उसने अहि को माग, अवश्य कहने योग्य है। उसने वज्र से (जल के) प्रतिबन्धकों को काट डाला। जल अपना मार्ग खोजता हुआ प्रवाहित हुआ।
एतद्वचो जरितर्मापि मृष्ठा, आ यत्ते घोषानुत्तरा युगानि ।
उक्थेषु कारो प्रति नो जुषस्व, मा नो नि कः पुरुषत्रा नमस्ते।।8।। 
हे स्तुतिगायक! इस वचन को कभी भी मत भूलो, ताकि भावियुगों के लोग तुम्हारे इस वचन को सुन सकें। हे कवि! अपनी स्तुतियों में हमारा आदर रखो। हम लोगों को मनुष्यकोटि में नीचे मत लाओ। (हमारा) तुम्हें नमस्कार है।
ओ षु स्वसारः कारवे शृणोत, ययौ वो दूरादनसा रथेन ।
निषू नमध्वं भवता सुपारा, अधो अक्षाः सिन्धवः स्रोत्याभिः।। 9।।
 हे सुन्दर बहनों! (मुझ) कवि की बात सुनो; (क्योंकि मैं) तुम्हारे पास बहुत दूर से गाड़ी तथा रथ से आया हूँ। अच्छी तरह झुक जाओ। हे नदियों! अपनी जलधारा से अक्ष के नीचे होकर (बहती हुई) आसानी से पार करने योग्य हो जाओ।
आ ते कारो शृणवामा वचांसि, ययाथ दूरादनसा रथेन ।
नि ते नंसै पीप्यानेव योषा, मर्यायेव कन्या शश्वचै ते।।10।।

हे कवि! हम तुम्हारी बातें सुनती हैं, (क्योंकि तुम) बहुत दूर से गाड़ी तथा रथ के साथ आए हो। तुम्हारे लिए मैं नीचे झुकती हूँ, जैसे दूध से भरे स्तन वाली औरत (अपने पुत्र के लिए) तथा जैसे युवती अपने प्रेमी का आलिङ्गन करने के लिए (झुकती है) ।
यदङ्ग त्वा भरताः संतरेयुर्गव्यन्ग्राम इषित इन्द्रजूतः ।
अर्षादह प्रसवः सर्गतक्त, आ वो वृणे सुमतिं यज्ञियानाम्।।11।। 
हे नदियो चूँकि (तुम्हारी अनुमति मिल गई है, इसलिए) भरतवंशी ( हम लोग) तुम्हें पार करें, पार जाने की इच्छा वाला (तुम्हारे द्वारा) अनुज्ञात एवं इन्द्र द्वारा भेजा गया (भरतवंशियो का) झुंड (पार करे) (तुम्हारा) प्रवाह अपनी स्वाभाविक गति में प्रवाहित होता हुआ बहे। मैं पवित्र नदियों का समर्थन चाहता हूँ।
अतारिषुर्भरता गव्यवः समभक्त विप्रः सुमति नदीनाम् ।
प्रपिन्वध्वमिषयन्तीः सुराधा, आ वक्षणाः पृणध्वं यात् शीभम्।। 12।। 
पार जाने की इच्छा वाले भरतवंशियों ने पार कर लिया। ब्राह्मण ने नदियों का समर्थन प्राप्त कर लिया। सुन्दर धनवाली ( तुम लोग) धन लाती हुई अपनी जगह पर प्रवाहित होओ; भर जाओ; शीघ्रता से बहो। 
उद्व ऊर्मिः शम्या हन्त्वापो योक्राणि मुञ्चत।
 मादुष्कृतौ व्येनसाघ्न्यौ शूनमारताम् ।।13।।
तुम्हारी धारा जुवा की कील के नीचे से बहे। जल रस्सी को छोड़ दे। दृष्कृतों से रहित, पापरहित तथा तिरस्कार न करने योग्य (ये नदियाँ) वृद्धि न प्राप्त करें।

UGC - net सम्पुर्ण संस्कृत सामग्री कोड - २५ पुरा सिलेबस



मम विषये! About the author

ASHISH JOSHI
नाम : संस्कृत ज्ञान समूह(Ashish joshi) स्थान: थरा , बनासकांठा ,गुजरात , भारत | कार्य : अध्ययन , अध्यापन/ यजन , याजन / आदान , प्रदानं । योग्यता : शास्त्री(.B.A) , शिक्षाशास्त्री(B.ED), आचार्य(M. A) , contact on whatsapp : 9662941910

Post a Comment

आपके महत्वपूर्ण सुझाव के लिए धन्यवाद |
(SHERE करे )