दर्शपौर्णमास एक श्रौतयाग
॥ दर्शपौर्णमास एक श्रौतयाग ॥
यह 30 दिन तक चलता है। यज्ञ 'श्रौत' और 'स्मार्त' के भेद से अनेक प्रकार के
हैं।
श्रौत- जिन यज्ञों का श्रुति अर्थात् मत्र ब्राह्मण में साक्षात् उल्लेख
मिलता है उन्हें 'श्रौत' यज्ञ कहते हैं।
स्मार्त- जिन यज्ञों का ऋषि लोग स्मृतियों में विधान करते हैं उन्हें
स्मार्त यज्ञ कहते हैं, तथा गृहसूत्रोक्त यज्ञ भी स्मार्त यज्ञ कहे जाते
हैं। दर्शपूर्णमास याग श्रौत याग कहलाता है। श्रौत तथा स्मार्त दोनों ही
प्रकार के यज्ञ तीन प्रकार के होते हैं
(1) नैत्यिक (2) काम्य (3) नैमित्तिक ।
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(1) नैत्यिक- जिनकों यथावसर अवश्य करना होता है- अग्निहोत्रादि ।
- (2) काम्य- इच्छापूर्ति के लिये पुत्रेष्टि, वर्षेष्टि।
- (3) नैमित्तिक- प्राकृतिक संयोग के कारण जातेष्टि।
श्रौत कर्म आरम्भ करने से पूर्व 'तीन' अग्नियों का आधान होता है जिसे-
अग्न्याधान/आधान/अग्नयाधेय भी कहते हैं। अग्र्याधान का अधिकारी "कृतदार कर्म" (विवाहित पुरुष) होता है । अग्न्याधान का काल- ब्राह्मण वसन्त,
क्षत्रिय-ग्रीष्म, वैश्य- शरद । अग्न्याधान इन ऋतुओं में किसी
'अमावस्या' अथवा 'पूर्णिमा' के दिन क्रिया जाता है। क्रियमाण कर्म की दृष्टि से
अग्न्याधान तीन प्रकार का होता है
(1) होमपूर्व (2) इष्टिपूर्व (3) सोमपूर्व।
दर्शपूर्णमासादि इष्टियां करने का संकल्प करके उनसे पूर्व जो आधान अग्र्याधान यदि
किया जाता है वह "इष्टिपूर्व आधान" कहलाता है। अमावस्या को किया जाता है
तो क्रमप्राप्त अगली 'पूर्णिमा के दिन की जाती है। ‘पूर्णमासेष्टि' की जाती है,
तत्पश्चात् 'दर्शेष्टि' यदि दर्शपौर्णमास में प्रथम इष्टिका
पौर्णमासेष्टिका कहलाती है । आधान पूर्णिमा के दिन किया है तो अगली
अमावस्या के दिन दर्शेष्टि न करके उससे उत्तरवर्ती पूर्णिमा के दिन
'पूर्णमासेष्टि' की जाती है। पौर्णमासेष्टि और दर्शेष्टि मिलकर एक कर्म कहलाता
है।

दर्शपौर्णमास के प्रमुख सन्दर्भ
- सोमयाग का काल = वसन्त ऋतु
- वेदी के पश्चिम भाग में गार्हपत्य
- पूर्व भाग में आहवनीय,
- अग्नि के दक्षिण भाग में दक्षिणाग्नि ।
- दर्शपौर्णमास की वेदी = त्र्यङ्गुलखाता।
- दर्शपौर्णमास का आधान काल अमावस्या,
- दर्शपौर्णमास याग का काल (शु.प. प्रतिपदा),
- दर्शेष्टि- शुक्लपक्षप्रतिपदि।
- पूर्णमासेष्टि- कृष्णपक्षप्रतिपदि।
- इसमें (4) ऋषि होते हैं।
- दोनों में ( 3 ) प्रधान याग होते हैं। कुल (6)
- तीन प्रकार की श्रौताग्नि (तै.सं.) 'त्रिषधस्थ अग्नि कहलाती
- आहवनीय अग्नि- चतुरस्त्र
- गार्हपत्य अग्नि वृत्ताकार
- दक्षिणाग्नि अर्धवृत्ताकार
- वेदी की लम्बाई = 6 हाथ या न्यूनाधिक ।
- (अनित्य अग्नि) अग्नि- 'त्रिषधस्थ'
- इन तीनों अग्नियों के अतिरिक्त 'सभ्य' और 'आवसभ्य'
- (औपासन अथवा गृह संज्ञ अग्नि) दो अग्नियों की भी स्थापना की जाती है।
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सभ्याग्नि- जहां बैठ कर गुरु शिष्य को पढ़ाता है वहां गुरु और शिष्य के
मध्य (सभ्याग्नि) स्थापित की जाती है।
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आवसभ्य अग्नि- इस अग्नि का 'दायाद्य' काल में आधान किया जाता है।
अग्नि में गृह सूत्रोक्त संस्कार कर्म किए जाते हैं।
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श्रौत अग्नियां - (1) गार्हपत्य (2) आहवनीय (3)दाक्षिणाग्नि
।
- स्मार्त अग्नियां (1) सभ्य (2) आवसभ्य।
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दक्षिणाग्नि को 'अनित्य' अग्नि भी कहा जाता है। सभी अग्नियों के आधान के अनन्तर
(तीन) पवमान इष्टियां होती है। जिन्हें "तनुहवियां" भी कहते हैं।
- प्रथमेष्टि का देवता अग्निपवमान।
- द्वितीयेष्टि का देवता- अग्निपावक।
- तृतीयेष्टि का देवता- अग्निशुचि ।
- इनका द्रव्य 'अष्टकपाल पुरोडाश' है।
- पवमान इष्टि की प्रकृति = "दर्शपूर्णमास" है।
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अग्निहोत्र को ‘"जरामर्यसत्र" अथवा "नैत्यिक कर्म" माना गया है।
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दर्शपौर्णमास को सभी यागों की प्रकृति माना गया है। इसमें 13 से 14 आहुतियां
मुख्य होती हैं। दोनों में तीनतीन प्रधान आहुतियां हैं, शेष 11 अंगरूप आहुतियां
हैं।
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दर्शेष्टि में- 13 आहुतियां, पौणमासेष्टि में- 14 आहुतियां
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दर्शपौर्णमास 'नित्य' 'काम्य' भेद से दो प्रकार का होता है। याग में जिस
देवता को आहुति दी जाती है उस देवता वाली दो ऋचाओं में पहली ऋचा को
'पुरोनुक्या' कहते हैं और उसके पश्चात जिससे आहुति दी जाती है उसे
'याज्ञा' कहते हैं। याज्ञा के अन्त में 'वौषड' शब्द जोड़कर आहुति
दी जाती है।
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यज्ञ में जितनी आहुति दी जाती हैं उन्हें 'होता' देता है। शेष यज्ञीय कर्म
'अध्वर्यु' पूरा करता है। 'अग्नीत' ऋत्विक 'अध्वर्यु' का सहायक होता है।
- दर्शपूर्णमास में (15) कपाल अपेक्षित होते हैं।
- पूर्णमामेष्टि में पञ्चभू संस्कार होते हैं ।
- दर्शपूर्णमास के ऋत्विक की दक्षिणा- 'अन्वाहार्य' होती है,
- दर्शपूर्णमास में (15) मामिधेनी मन्त्र होते हैं।
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दर्शपौर्णमास कर्म में चार ऋत्विक. (1) ब्रह्मा (2) अध्वर्यु (3) होता
(4) आग्नीत | (आग्नीध्र)
॥ प्रयाज ॥
किसी भी इष्टि का जो प्रधान याग है उससे पूर्व जो याग किये जाते हैं उन्हें
'प्रयाज' कहते हैं। दर्शपूर्णमास में (5) प्रयाज होते हैं । पाँचों के देवता-
समित्, तनूपात्/नराशंस, इन्द्र, बर्हि, तथा स्वाहा । दर्शपोणमास
में (3) अनुयाज होते हैं। दर्शपौर्णमास 'इष्टियाग' की प्रकृति है ।