ब्राह्मण-साहित्य प्रतिपाद्य विषय, विधि एवं उसके प्रकार

ब्राह्मण-साहित्य प्रतिपाद्य विषय, विधि एवं उसके प्रकार 

ब्राह्मणग्रन्थों का प्रतिपाद्य विषय

ब्राह्मणग्रन्थों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय यज्ञ एवं यज्ञप्रक्रिया का सर्वाङ्गीण विवेचन है । 

यज्ञ-मीमांसा के दो मुख्य भाग हैं - 

1. विधि 

2. अर्थवाद ।

(1) विधि 

विधि का अभिप्राय यज्ञप्रक्रिया के विधान का विस्तृत निरूपण करना है । जैसे यज्ञ कब, कहाँ कैसे किया जाय तथा यज्ञ के लिए कितने ऋत्विज् चाहिए, प्रत्येक के क्या कर्तव्य हैं यज्ञ के लिए क्या-क्या सामान चाहिए, यज्ञशाला का निर्माण आदि । अतएव आपस्तम्ब का कथन है -“कर्मचोदना ब्राह्मणानि" (आपस्तम्ब) अर्थात् ब्राह्मण ग्रन्थ विविध यज्ञरूप कर्मों में मनुष्यों को प्रेरित करते हैं ।

विधि के चार प्रकार

1. उत्पत्ति विधि 

2. विनियोग विधिः 

3. प्रयोगविधिः

4. अधिकारविधि ।

(2) अर्थवाद 

स्तुति या निन्दापरक विविध विषय अर्थवाद के अन्तर्गत आते हैं । यज्ञीय कर्मकांड में विहित विधानों की अनेक प्रकार से प्रशंसा की जाती है । साथ ही निषिद्ध कर्मों की निन्दा की जाती है । “प्राशस्त्यनिन्दान्यतरपरं वाक्यमर्थवाद: ॥" (अर्थसङ्गः) इस प्रकार के विषय अर्थवाद के अन्तर्गत आते हैं ।

यज्ञ परिचय

वेदों में यज्ञ की उपयोगिता पर बहुत प्रकाश डाला गया है। संक्षेप में यज्ञ की उपयोगिता के विषय में यह कहा जा सकता है कि यज्ञ प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने में बहुत सहायक हैं। यह प्रज्ञापराध के कारण-स्वरूप मानसिक प्रदूषण को रोकता है। यह शिवसंकल्प, विचार-शुद्धि, सद्भाव, शान्ति और नीरोगता प्रदान करके मानसिक और बौद्धिक रोगों को दूर करता है। यज्ञ में सस्वर मंत्रपाठ और सामगान ध्वनि प्रदूषण को रोकने में कुछ अंश तक सहायक सिद्ध हो सकता है । वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि अग्निहोत्र से कुछ ऐसी गैसें निकलती हैं, जो वातावरण को शुद्ध करती हैं और प्रदूषण को नष्ट करती हैं। इनमें कुछ गैसें ये हैं- Ethylene oxide, Propylenc. 

यज्ञ की सामग्री में प्रयुक्त चीनी, शक्कर आदि मिष्ट पदार्थों में वायु को शुद्ध करने की असाधारण शक्ति है। इसके धुएँ से क्षय, चेचक, हैजा आदि बीमारियों के कीटाणु नष्ट होते हैं । भैषज्य यज्ञ ऋतु परिवर्तन के समय होने वाले दूषित तत्त्वों को नष्ट करते हैं। गोपथ (2.1.19) और कौषीतकि ब्राह्मण (5.1) में भैषज्ययज्ञों का विस्तृत वर्णन है। ये चातुर्मास्य यज्ञ हैं। इनमें विशेष ओषधियाँ गिलोय, गुग्गुल, अपामार्ग (चिरचिटा) आदि डाले जाते हैं।

'अथर्वा ऋषि' यज्ञ के प्रवर्तक हैं । अथर्ववेद (3.11.1) का कथन है कि यज्ञ से इन रोगों की चिकित्सा की जाती है यक्ष्मा (तपैदिक), ज्वर, गठिया, कण्ठमाला (गंडमाला) आदि । अथर्ववेद ( 3.11.2) का कथन है कि यज्ञ से मरणासन्न या मृतप्राय व्यक्ति को भी बचाया जा सकता है। शतपथ ब्राह्मण का 11 वां काण्ड यज्ञ से सम्बन्धित है । 

वर्षचक्ररूपी यज्ञ में वसन्त- घी, ग्रीष्म - समिधा, शरद - द्रव्य, होते हैं । (वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद् हविः) यज्ञ सृष्टिचक्र की नाभि है- 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। सबसे बड़ी वेदी (सोमयाग) की होती है इसे (महावेदी) या (सौमिक) वेदी कहते हैं। यह ‘समद्विबाहु चतुर्भुज' आकार की होती है। सूर्य पूर्वावाहन के समय ऋग्वेद द्वारा आता है, तथा सूर्य अस्त के समय सामवेद द्वारा जाता है । 

  • ऐतरेय ब्राह्मणानुसार मुख्य (5) यज्ञ
  • (1) अग्निहोत्र (2) दर्श-पूर्णमास (3) चातुर्मास्य (4) पशु (5) सोम, 

याग के दो प्रकार 

(1)स्मार्त 

(2) श्रौत।

1. स्मार्तयाग- ये ‘गृह्ययाग' या 'पाकयज्ञ' कहलाते हैं । 

2. श्रौतयाग के पाँच भाग

  • (5) सोम

स्मृतियों और कल्पग्रन्थों में स्मार्त और श्रौत यागों को मिलाकर इनकी संख्या (21) मानी है। 

श्रौतयाग के पुनः दो भाग

(1) हविर्याग- इसमें दूध, घी, पुरोडाश डाला जाता है। 

(2) सोमयाग- इसमें सोमलता का रस डाला जाता है।

श्रौत और स्मार्त (21) याग

(क) पाकयज्ञ (स्मार्त याग) ये 'गृह्ययाग' है। 

संख्या 

  • (1) औपासन, होम 
  • (2) वैश्वदेव 
  • (3) पार्वण 
  • (4) अष्टका 
  • (5) मासिक श्राद्ध 
  • (6) श्रवणा 
  • (7) शूलगव ।

(ख) हविर्याग (श्रौतयाग) ये 'श्रौतयाग' हैं। 

संख्या-(7) इनमें दूध, - घी, पुरोडाशादि से आहुति दी जाती है। 

(ग) सोमयाग (श्रौतयाग) - ये 'श्रौतयाग' हैं। 

संख्या - (7) (वसन्त ऋतु) 

  • (1) अग्निष्टोम 
  • (2) अत्यग्निष्टोम 
  • (3) उक्थ 
  • (4) षोडशी 
  • (5) वाजपेय 
  • (6) अतिरात्र 
  • (7) आप्तोर्याम।

सोमयाग के काल की दृष्टि से तीन प्रकार

  • (1) एकाह एक दिन चलने वाला।
  • (2) अहीन दो दिन से 12 दिन तक चलने वाला।
  • (3) सत्रयाग 13 दिन से एक वर्ष या 1000 वर्ष तक चलने वाला इसके विभिन्न नाम हैं- यह 2 दिन, त्र्यह 3 दिन, षडह 6 दिन, दशाह 10 दिन, द्वादशाह 12 दिन पर्यन्त चलने वाला ।

  • अग्नि के दो भेद- (1) स्मार्त अग्नि/गृह्याग्नि (2) श्रौत अग्नि । 
  • सम्राट बनने की इच्छा वाला यज्ञ - वाजपेय। 
  • यज्ञ के पांच अंग- (1) देवता (2) हविद्रव्य (3) मंत्र (4) ऋत्विज (5) दक्षिणा

श्रौतयाग के ऋत्विज्

(1) होता (2) मैत्रावरुण (3) अच्छावाक (4) ग्रावस्तुत। 

  • कल्पसूत्रों में कुलमिलाकर (42) कर्मों का प्रतिपादन है।
  • श्रौतयज्ञ - 14, गृह्ययज्ञ 7, महायज्ञ 5, संस्कारयज्ञ 16 = (42)

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