वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरों में खड़ी तथा आड़ी रेखायें लगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करने के संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के नाम से अभिहित किया गया है। ये स्वर बहुत प्राचीन समय से प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके मुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है।
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उदात्ताश्चानुदात्तश्चस्वरितप्रचितोत,
निपातश्चेति विधेय स्वरभेदस्तु पंचमः ।
उदात्त का अपना कोई चिह्न नहीं है। "अपूर्वो अनुदात्तपूर्वो वा अतद्धितः उदात्तः”। जिससे पूर्व कोई स्वर न हो, अथवा अनुदात्त पूर्व में हो, (स्वरित उत्तर में हो) एसा चिह्न रहित अक्षर उदात्त होता है । जिम स्वर के उच्चारण में आयाम हो, उसे उदात्त कहते है, आयाम का अर्थ है, मात्राओं का स्वर की तरफ खींचा जाना ।
जिस स्वर के उच्चारण में विलंब हो, उसे अनुदात्त कहते है। “अणोरेखयाअनुदात्तः” । अक्षर के नीचे पड़ी रेखा से अनुदात्त स्वर का निर्देश किया जाता है। मात्रों की शिथिलता या उनका अधोगमन विश्राम कहलाता है ।
इम "उर्ध्व रेखया स्वरितः" । अक्षर के ऊपर खड़ी रेखा से स्वरित का निर्देश किया जाता है। जिस स्वर के उच्चारण में आक्षेप हो, उसे स्वरित कहते है, आक्षेप का अर्थ है मात्राओं का निचैरगमन । प्रकार के निर्देशन के आधार पर ही शुद्ध उच्चारण कर पाना कठिन ही है। इन स्वरों का सूक्ष्म उच्चारण प्रकार चिरकाल से लुप्तप्राय है, महाराष्ट्र में कुछ बृहद ऋग्वेदीय ब्राह्मण स्वरों के सूक्ष्म उच्चारण में कदाचित् समर्थ होते, परन्तु अधिकतर श्रोत्रिय हस्त आदि अंगचालन के द्वारा ही उदात्त आदि स्वरों का द्योतन करते है। उदात्तानुदात्तस्य स्वरितः'। उदात्त के बाद यदि अनुदात्त स्वर आए तो उसे स्वरित हो जाता है। यदि उदात्त के पश्चात के अनुदात्त के पश्चात पुनः उदात्त आवे तो वह अनुदात्त ही रहता है। उदात्त और अनुदात्त शुद्ध और स्वतंत्र स्वर है। इन्हीं दोनों के मेल से स्वरित की उत्पत्ति होती है।
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“जात्योऽभिनिहितः क्षेप्रः प्रश्लिष्टश्च तथाऽपरः, तैरोव्यञ्जनसंज्ञश्च तथा तैरोविरामकः । पादवृत्तो भवेत्तद्वत् ताथाभाव्य इति स्वराः।।” प्रातिशाख्य आदि ग्रन्थों में नव प्रकार के स्वरितों का उल्लेख मिलता है। इनमें से मुख्यतया पाँच महत्वपूर्ण है।
अथवा सामान्य स्वरित एक पद में अथवा अनेक पदों की संहिता में उदात्त से परे अनुदात्त को जो स्वरित होता है, उसे सामान्य स्वरित कहते है,
जो स्वरित अपनी जाति (जात्य, स्वभाव) से स्वरित होता है, अर्थात जो किसी उदात्त वर्ण के संयोग से अनुदात्त स्वरित भाव को प्राप्त नहीं होता उसे जात्य स्वरित कहते है। तैत्तरीय प्रातिशाख्य में इसे नित्य स्वरित कहा है, यह स्वरित पदपाठ में भी स्वरित ही बना रहता है। अभिनिहित, क्षेत्र तथा प्रश्लिष्ट संधियों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले स्वरित तत् तत् संधियों के नाम पर अभिनिहित, क्षेत्र तथा प्रश्लिष्ट स्वरित कहलाते है। " 7
एकार तथा ओकार से परे जहाँ ह्रस्व अकार का बोध अथवा पूर्वरुप होता है, उस संधि को प्रातिशाख्यों में अभिनिहित संधि कहते है। इस संधि के कारण उदात्त एकार अथवा उदात्त ओकार (चाहे वह स्वतंत्र रूप से हो अथवा संधि से बना हो) से परे अनुदात्त अकार का बोध अथवा पूर्व रुप होने पर जो स्वरित होता है, उसे अभिनिहित संधि के कारण अभिनिहित स्वरित कहते है।
इ उ ऋ ऌ के स्थान में अच पर रहने पर जोय र वल (यण) आदेश तथा संधि होती है, उसे प्रातिशाख्या में क्षेत्र मधि कहते है। इसी क्षेत्र संधि के अनुसार यहाँ उदात्त इकार उकार के स्थान में यण आदेश होने पर उनमें अनुदात्त स्वर को स्वरित हो जाता है, उस क्षेत्र स्वरित कहते हैं ।
दो अर्थों के मिलने से जो संधि होती है, उसे प्रश्लिष्ट मधि कहते हैं। और इस कारण होने वाला म्वरित प्रश्लिष्ट म्वरित कहलाता है। वैसे प्रातिशाख्यों के अनुसार प्रश्लिष्ट संधि पाँच प्रकार की होती है, परन्तु स्वरित में केवल दो प्रकारों की (उदात्तहम्व+ अनुदात्तह्रस्व ) दीर्घ रुप संधि में देखा जाता है।
उदात्त और अनुदात्त स्वरों की प्रश्लिष्ट संधि दो प्रकार की होती है। एक वह जिसमें पूर्ववर्ण अनुदात्त हो, और उत्तरवर्ण उदात्त । एमी सभी । प्रश्लिष्ट संधियों में दोनों स्वरों के स्थान में उदात्तरूप एकादेश होता है। दूसरी प्रश्लिष्ट संधि वह है जिसमें पूर्ववर्ण उदात्त हो और उत्तर वर्ण अनुदात्त । इन दोनों स्वरों के स्थान पर जो एकादेश होता है, वह शाखा भेद से भी उदात्त और कहीं स्वरित देखा जाता है, ऋग्वेद की शाकल शाखा में यह स्वरित ही होता है और इसे प्रश्लिष्ट स्वरित कहते है।
प्रचय- “स्वरितात् परो अतद्धित एकयुति” ।
स्वरित से परे जिस या जिन अक्षरों पर कोई चिह्न न हो उन्हें - एकयुति अथवा प्रचय कहते है। इन्द्रशत्रु: आद्युदात्त बहुव्रीहिः समास। इन्द्रशत्रुः अन्तोदात्त तत्पुरुष समास । अवग्रह सम्बन्धी नियमभ्याम्, भ्यम्, भिस् सु त्व आदि से पूर्व तथा द्वन्द्व समास और नञ् समास को छोड़कर समास युक्त पदों के बीच में अवग्रह लगता है।
यथा- "विश्वऽवेदसे प्रगृह्य"
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