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संस्कृत के प्रयोग का स्वरूप और विस्तार // Nature and extent of use of Sanskrit

संस्कृत के प्रयोग का स्वरूप और विस्तार // Nature and extent of use of Sanskrit
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 संस्कृत के प्रयोग का स्वरूप और विस्तार // Nature and extent of use of Sanskrit

हम देख चुके है कि वैयाकरणों की संस्कृत अपने मूलरूप मे वैदिक भाषा का ही एक न्याय प्राप्त विकास है । अब पाणिनि के समय में और उसके उत्तरकाल में उसके प्रयोग के विस्तार के विषय में विचार करना अवशिष्ट है । इस विषय के परीक्षण में भारतवर्ष की सामाजिक परिस्थितियों का स्मरण आवश्यक है। ब्रिटेन मे आजकल वोली जाने वालो और लिखी जाने वाली इग्लिश भाषा के विभेदो मे जटिलता और बाहुल्य दोनो विद्यमान है, भारत मे तो जहाँ जाति-बिरादरी, वश और मानव जाति-मूलक भेद कही अधिक मुख्य और महत्त्वयुक्त थे, भाषागत वस्तु स्थिति कही अधिक जटिल थी । तो भी यह तो स्पष्ट है कि संस्कृत ब्राह्मणो की सभ्यता की भाषा थी । 


संस्कृत के प्रयोग का स्वरूप और विस्तार // Nature and extent of use of Sanskrit



उस सभ्यता का विस्तार वरावर बढ रहा था, यद्यपि ब्राह्मणो के धर्म को पांचवी शताब्दी ई० पू० से नये सप्रदायों के साथ, विशेषत वौद्ध और जैन संप्रदायों के साथ, प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा था । वौद्ध ग्रंथों से ही हमें ब्राह्मणों के धर्म के प्राधान्य का निश्चायक साक्ष्य मिल जाता है । बुद्ध के विषय में जो कुछ कहा गया हूँ उससे यह प्रतीत होता है कि उनका प्रयत्न ब्राह्मण धर्म के आदर्श का उन्मूलन करने के लिए नही था । उनका प्रयत्न केवल यही था कि सच्चे ब्राह्मण के विशिष्ट लक्षण के रूप में जो जन्म का स्थान था वह योग्यता को दिला दिया जाय और इस प्रकार उस धर्म के आन्तरिक रूप को ही बदल दिया जाय। सार्वजनिक धार्मिक कृत्य ( श्रीतकर्मकाण्ड ) और गृह्यकर्मकाण्ड दोनों का प्रतिपादन और संपादन संस्कृत में होता था और शिक्षा ब्राह्मणों के ही हाथों में थी । 


बौद्ध ग्रन्थ वरावर ब्राह्मणो के इस सिद्धान्त की पुष्टि करते है कि जनसाधारण की शिक्षा (लोकपक्ति) ब्राह्मणो का ही कर्तव्य था । जातकों की कथाओ' से पता लगता है कि सब वर्गों के नवयुवक, न केवल ब्राह्मणों के ही अपितु क्षत्रियो और वैग्यो के भी बालक, उत्तर में ब्राह्मण अध्यापकों से शिक्षा ग्रहण करते थे । संस्कृत विज्ञान की भाषा थी—न केवल व्याकरण, छन्द, ज्योतिप, वर्णशिक्षा, निरुक्त - इन विषयों की ही, किन्तु नि सन्देह रूप से बौद्ध ग्रन्थो में उल्लिखित सामुद्रिक शास्त्र तथा भूतविद्या जैसी यन्त्र-तन्त्र की ओर अधिक झुकी हुई विद्याओं की भी । इस की पुष्टि इस बात से भी होती है कि इन्द्रजाल - विद्या सर्पजनविद्या और देवजनविद्या शतपथब्राह्मण में दी हुई उन विपयो की सूची मे समिलित है जिनको ब्राह्मण लोग जनता को पढाते थे । शतपथब्राह्मण में ही अनुशासनों, विद्याओ, वाकोवाक्य, इतिहास, पुराण, गाथा और नागशसिओ का भी उल्लेख है । 


अनुश्रुति की यह परम्परा महाभाप्य ४ से भी प्रमाणित होती है, जिसमें मस्कृत भाषा के विस्तार के क्षेत्र में चारो वेदों, उनके अङ्गो, रहस्यो, वाकोवाक्य, इतिहास, पुराण और वैद्यक को सम्मिलित कर दिया गया है । आश्वलायन गृह्यसूत्र में भी, जिसका समय पाणिनि से अधिक दूर का नही है, शतपथब्राह्मण की सूची बहुत कुछ दुहरायी गयी है; साथ ही उसमें सूत्रों, भाप्यो, भारत, महाभारत और धर्माचार्यो के ग्रन्थो को भी जोड दिया गया है । धनुर्वेद, गान्धर्व-वेद, वास्तु - विद्या और राजनीति जैसी अन्य विद्याओ का उल्लेख महाभारत में आता है। जहाँ तक ये विद्याएँ ब्राह्मणों के अधिकार में थी, इसमें कोई सदेह नहीं कि इनके सवन्ध में भी सस्कृत अपना स्थान रखती थी । 


ऊपर के तथ्यों के सबन्ध में कोई विवाद नहीं है । उपर्युक्त क्षेत्र में संस्कृत का प्राधान्य अवावित रूप से, मुसलमानो के आक्रमणों से एक नवीन साहित्य भाषा के प्राधान्य के स्थापित होने तक, बरावर बना रहा । प्रमाणों से यह बात स्पष्ट है कि कमसे कम ब्राह्मणों मे, पढाने और धार्मिक कृत्यो के कराने के साधन के रूप मे, सस्कृत अवश्य ही बरावर प्रयोग में लाई जाती थी। कुछ विद्वानों ने ऐसा मत प्रकट किया है कि न तो पाणिनि के समय मे और, अधिक प्रमाणों के आधार पर, न उनके पीछे सस्कृत ब्राह्मणो की वोलचाल की भाषा थी । परन्तु इस मत के पक्ष में कोई सन्तोषजनक साक्ष्य नहीं है । 


पाणिनि ने संस्कृत के लिए 'भाषा' शब्द का प्रयोग किया है। उसका स्वाभाविक अर्थ 'बोल-चाल की भाषा, ही है । इसके अतिरिक्त भी, पाणिनि ने ऐसे नियमों का विधान किया है जो, बोलचाल की भाषा से उनका सबन्ध न हो तो, निरर्थक ही हो जाते है । उदाहरणार्थ, भावोद्रेक की भाषा में स्पष्टतया व्यञ्जनो के द्वित्व का निषेध किया गया है, जैसा कि क्रूर माता के लिए प्रयुक्त पुत्रादिनी इस आक्रोशात्मक शब्द मे। इसी प्रकार पाणिनि दूर से आह्वान, प्रत्यभिवादन, प्रश्न और प्रश्न प्रतिवचन मे प्लुतत्व का विधान करते हैं, वे पासो के खेल के पारिभाषिक शब्दों और चरवाहो की वोली के सबन्ध में सूचना देते है । चे वास्तविक दैनिक जीवन से सबन्धित मुहावरो का उल्लेख करते है ।


अनुप्रयुक्त लट् लकार के प्रयोग के साथ मे लोट् लकार के मध्यमपुरुष की द्विरुक्ति को दिखाने वाले खाद खावेति खादति ( = वह बडे चाव से खाता है) जैसे मुहावरो की रक्षा हमारे लिए निःसन्देह केवल वैयाकरणो ने ही की है। उसी से बोलचाल की मराठी का खा खा खातो आया है। दूसरे लोक-प्रचलित प्रयोग ये है उदरपूरं भुक्ते, पेट भर के खाता है; दण्डादण्डि केशाकेशि ऐसा सघर्ष जिसमें लाठिया चलती है और वाल खेचे जाते हैं, अत्र खादतमोदता वर्तते यहाँ तो 'खाओ और मौज करो यही नियम चल रहा है; जहिस्तम्बोऽयम् यह वह आदमी है जो कहता है "नाज की पूलियो को काटो” । 

उनके द्वारा निर्दिष्ट अन्य प्रयोग ये है : गर्भाितवाक्य के रूप में मन्ये, मैं समझता हूँ; प्रहास में अपचसि, 'तुम पाचक नही हो' ऐसे विचित्र प्रयोगो का अनुशासन जैसे यामकि 'मैं जाता हूँ । वड़े विस्तार से प्रतिपादित स्वर-विपयन निगम भी वास्तविक वोल-चाल की भाषा को ही प्रतिविम्वित करते हैं ।


 यास्क, ' पाणिनि और कात्यायन ने उदीच्यों और प्राच्यों के विशिष्ट प्रयोगो का उल्लेख किया है। उस साक्ष्य से भी उपर्युक्त प्रतिपादन की पुष्टि होती है। कात्यायन ने, प्रसिद्धि के रूप में स्थानीय प्रयोग विभिन्नताओं की विद्यमानता को भी माना है । पतञ्जलि ने इसको स्पष्ट करते हुए कम्बोज, सौराष्ट्र प्राच्य -मध्य आदि लोगों के प्रयोग का उल्लेख किया है। यहाँ हम कात्यायन और पतञ्जलि द्वारा उल्लिखित पाणिनि के समय के अनन्तर होनेवाले शब्द प्रयोगो का भी निर्देश कर सकते है। उदाहरणार्थ, पाणिनि की त्रुटि दिखाते हुए कात्यायन का कहना है कि सबोधन मे नाम और नामन् ये दोनों रूप होते है, द्वितीय और तृतीय शब्दों के पुल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग के एकवचनों मे सर्वनामों जैसे रूप भी हो सकते हैं, और स्त्रीलिङ्ग में उपाध्याय, आर्य, क्षत्रिय और मातुल शब्दो के उपाध्यायी, आर्या, क्षत्रिया और मातुलानी ये रूप नित्य न हो कर, विकल्प से ही होते हैं । 


पतञ्जलि दिखाते है कि उनके समय मे तेर, ऊष, पेच जैसे लिट् लकार के मध्यमपुरुप के रूप अप्रयुक्त हो गये थे और उनके स्थान में निष्ठान्त शब्दों से युक्त शब्दसमूहों का प्रयोग होने लगा था । यह स्थिति बोल-चाल की भाषा की ही विशेषता हो सकती है ।


और भी सूचना, जिसका स्वरूप निश्चित है, प्रासङ्गिक रूप में हमें पतञ्जलि ने दी है | ४ वे वलपूर्वक कहते है कि

व्याकरण का लक्ष्य शब्दो का निर्माण न होकर केवल यह बताना है कि शब्दों का शुद्ध प्रयोग क्या है,
लोक में मनुष्य किसी वस्तु के विषय में विचार करते हुए, विना किसी व्याकरण के देखे, उचित शब्दो का प्रयोग करता है; सस्कृत के शब्दो का संबन्ध लोक से है । हम एक वैयाकरण और सूत्र को संस्कृत में विवाद करते हुए पाते हैं; और उसमें वह सूत्र
सूत्र शब्द तथा प्राजित शब्द के निर्वाचन के सबन्ध में अपना निश्चित मत रखता है । भाषा का आदर्श वह भाषा है जिसको शिष्ट बोलते है, ओर शिप्ट वे लोग हैं जो विशेष शिक्षण के विना हो शुद्ध संस्कृत वोलते है; व्याकरण का प्रयोजन हमें शिष्टों का परिज्ञान कराना है, जिससे उनकी सहायता से पृषोदर जैसे शब्दो के, जो व्याकरण के साधारण नियमों के अन्दर नही आते, विशुद्ध रूपों को हम जान सकें । 

आगे चलकर शिष्टों का लक्षण इस प्रकार दिया है – हिमालय के दक्षिण में पारियात्र के उत्तर में आदर्श के पूर्व मे और कालकवन के पश्चिम में जो प्रदेश है उसे आर्यावर्त्त कहते हैं ।

आर्यावर्त के ब्राह्मणों को शिष्ट समझना चाहिए जो लोभ से रहित है,
जो किसी निम्न स्वार्थ के बिना केवल कर्तव्य बुद्धि से सदाचार का अनुसरण करते है, और जो कुम्भीधान्य है । दूसरे लोग अशुद्धि कर सकते है ; उदाहरणार्थ वे शश को षष, पलाश को पलाष और मञ्चक को मञ्जक उच्चारण कर सकते है, अथवा वे शुद्ध शब्दों के स्थान में अपशब्दों को बोलकर और भी भयानक अशुद्धियां कर सकते है, जैसे वे कृषि को कसि, दृशि को दिसि, गौः को गावो, गोणो गोता या गोपोतलिका अथवा धातुरूपों मे आज्ञापयति को आणपयति', वर्तते को वट्टति और वर्द्धते को बड्ढति उच्चारण कर सकते है । पर शिप्टों से शुद्ध शब्दरूपो को जाना जा सकता है । 


इससे इग्लैण्ड की आधुनिक परिस्थितियो के साथ घना सादृश्य प्रतीत होता है । इग्लैण्ड मे उच्चतर शिक्षितवर्ग समाज के निम्नतर वर्गों के लिए एक प्रतिमान या आदर्श उपस्थित करता है; जैसे इग्लैण्ड के उच्चतर वर्ग की भाषा एक जीवित भाषा है, इसी तरह सस्कृत भी उन दिनो एक जीवित भाषा थी । मध्यकालीन लैटिन के साथ संस्कृत की आदर्शरूपेण जो तुलना की जाती है, वह बहुत कुछ असन्तोषजनक है; यह स्पष्ट है कि संस्कृत के प्रयोग की प्रारम्भिक अवस्था में निम्नतर वर्ग की जो वोली अपने अनेक भेदो में प्रचलित थी उसके साथ संस्कृत की, मध्यकालीन यूरोप में लैटिन की अपेक्षा कही अधिक समानता थी । अशोक के अभिलेखो की स्थानीय बोलियो के साथ संस्कृत की तुलना इस सम्बन्ध में समुचित होगी; उनका भेद न तो मौलिक है और न वह पारस्परिक अर्थावगति मे वाघा डालता है, और हम सरलता से उसकी तुलना आज की इग्लिग भाषा से कर सकते है । इसके अतिरिक्त, इस प्रकार हम जिन परिणामों पर पहुँचते है उनकी पुष्टि, साक्षात् रूप से, रूपको से प्राप्त साक्ष्य से भी होती है। उनमें ब्राह्मण, राजा और उच्च स्थिति तथा शिक्षा के दूसरे लोग सस्कृत का प्रयोग करते हैं, जब कि निम्न पात्र प्राकृत के किसी रूप का व्यवहार करते हैं। 


मूल में रूपक प्राकृत में हुआ करते थे और उन में संस्कृत का प्रवेश तभी हुआ जब कि वह विशेषत. संस्कृति की सामान्य भाषा वन गयी थी- ऐसा मानकर उपर्युक्त दृष्टि के विरुद्ध तर्क उपस्थित करने का यत्न किया गया है । परन्तु उक्त विवाद मे इस वस्तु - स्थिति की उपेक्षा कर दी जाती है कि कम से कम एक ओर रूपक का संस्कृत के रामायण और महाभारत से घनिष्ठ संवन्ध है; भास के एक नाटक मे तो प्राकृत है ही नहीं। उसके दूसरे नाटको में भी जिनका आधार रामायण-महाभारत पर है प्राकृत नाम मात्र को ही है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि प्रारम्भिक अवस्था में प्रेक्षक-गण, जिनमें बिलकुल साधारण स्थिति के लोग भी हो सकते थे, संस्कृत को नही समझते थे। नाट्य-शास्त्र में स्पष्टतः इसका विधान है कि सस्कृत ऐसी हो जिसे सब कोई सरलता से समझ लें । नाट्य के पात्रो द्वारा जो भाषा का प्रयोग किया जाता था उसका लक्ष्य वास्तविकता का प्रदर्शन था, इसका जो निषेध किया जाता है वह वस्तुगत साक्ष्य के कारण माननीय नही ठहरता; नाटककारों द्वारा प्रयुक्त प्राकृतों में अश्वघोष से भास और भास से कालिदास तक, बरावर विकास दिखाई देता है । अन्त में कालिदास ने माहाराष्ट्रों का जिसका पहले कोई महत्त्व न था परन्तु जो इस बीच में शृङ्गार - प्रधान गीतकाव्य के माध्यम के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थी,' रग-मंच मे प्रवेश किया। 


अश्वघोष के साक्ष्य का विशेष मूल्य है, क्योकि उससे प्रमाणित हो जाता है कि १०० ई० के लगभग रग-मच की परम्परा दृढ़ता से उच्चतमवर्ग के लोगों द्वारा संस्कृत के प्रयोग के पक्ष में थी। इसी से उन्होंने अपने नाटकों में संस्कृत का प्रयोग किया, यद्यपि उनके नाटकीय विषय का सवन्ध वौद्धवर्म से था, और यद्यपि, अनुश्रुति के अनुसार, बुद्ध स्वयं अपने उपदेशों की रक्षा के माध्यम के रूप में संस्कृत के प्रयोग का निषेध कर , चुके थे। कहाँ तक संस्कृत का प्रयोग होता था अथवा उसको समझा जाता था, इसका साक्ष्य रामायण और महाभारत से भी मिलता है। ऐसा अनुमान गया है कि रामायण और महाभारत का निर्माण ईसवी संवत् के पश्चात् किसी समय हुआ होगा और वे किसी प्राकृत के शब्दान्तर है । इस अग्राह्य अनुमान के विषय में, उसके उल्लेख के अतिरिक्त. कदाचित् और कुछ कहने की आवश्यकता नही है । 


इस महान् समारम्भ के विषय में इतिहास की चुप्पी को हम नही समझ सकते, और यह बात भी विश्वास के योग्य नही दीखती कि उक्त भाषान्तर ऐसे समय में हुआ था जब कि बौद्ध धर्म अपने विजय की अवस्था में था और ब्राह्मण-धर्म अपेक्षाकृत म्लान अवस्था का अनुभव कर रहा था । उक्त ग्रन्थो की संस्कृत का जो अपना विशिष्ट स्वरूप है उसको देखते हुए भी भाषान्तर का विचार उपहासास्पद प्रतीत होता है । गाथाओ के ढग के बौद्ध साहित्य में हमे पर्याप्त साक्ष्य ऐसा मिल जाता है जिसके आधार पर उसे हम संस्कृतीकरण के प्रयत्नो का परिणाम कह सकते हैं। साथ ही जिन तर्कों के बल पर उक्त भाषान्तर की वास्तविकता को स्थापित करने का प्रयत्न किया जाता है उनके आधार पर तो हम वैदिक सहिताओं को भी प्राकृत का भाषान्तर सिद्ध कर सकते है । इसके अतिरिक्त, इस बात के लिए निर्णायक साक्ष्य विद्यमान है कि पाणिनि सस्कृत में एक महाभारत से या कम से कम भरतो के एक पौराणिक काव्य से परिचित थे तथा रामायण के एक बडे भाग की रचना ' अशोक से बहुत पहले हो चुकी थी । 


यहाँ एक और बात भी ध्यान में रखनी चाहिए और वह यह है कि यद्यपि ब्राह्मणो ने रामायण और महाभारत को बहुत कुछ अपना लिया था, तो भी यह बात नहीं है कि इस प्रकार के साहित्य का निर्माण पहले पहल उन्होंने ही किया था। इस बात की पुष्टि उक्त ग्रन्थो में प्रयुक्त भाषा की उस अधिक सरलता और अनवधानता से होती है जिसमें ब्राह्मणों की भाषा के अनेक परिष्कारो की उपेक्षा दिखाई देती है। पाणिनि अपने आदर्श की इन विच्युतियों पर ध्यान ही नही देते । पुरोहित-वर्ग के क्षेत्र से बाहर प्रचलित भाषा के विषय में अनुशासन करना उनके लक्ष्य मे बाहर की बात थी, और उक्त पौराणिक काव्यो में प्रयुक्त भाषा वास्तव में वह भाषा है जो उनके निर्माण के समय में क्षत्रियों और सुशिक्षित वैश्यों में व्यवहृत होती थी। 


यह स्मरण रखना चाहिए कि महाभारत और रामायण दोनो मूलत. उच्च सपन्नवर्ग से सवन्ध रखते है; उनका स्वरूप ग्रीक भाषा के इलियद् (Iliad) और औदिसे (Odyssey) जैसा ही है, और उन्ही के समान वे अधिक विस्तृत क्षेत्रो मे गभीर रुचि के विपय वन गये । इधर के समय में, नि सन्देह श्रोतागण उनको समझ नही सकते और उनके लिए उनका अर्थ करना पड़ता है, यद्यपि उस पवित्र भाषा के सुनने मात्र से लोगो को प्रसन्नता होती है । निसन्देह ऐसी स्थिति प्राचीनकाल मे नही थी; हमे एक ऐसे लम्बे काल की कल्पना करनी पड़ती है जब कि जनता के बड़े भाग उक्त पौराणिक काव्यों को सरलता से समझ सकते थे ।


 निःसन्देह समय के वीतते-चीनते, सस्कृत और तात्कालिक भाषाओ के बीच की खाई क्रमश बढ़ती गई, पौराणिक काव्य की भाषा और ब्राह्मणो के चरणों की भाषा मे भी थे, इसका स्पष्ट उल्लेख रामायण मे मिलता है । रूपकों की पद्धति से और ऐसे स्थलो से, जैसा कि कालिदास के कुमार-सम्भव में आता है जहाँ सरस्वती शिव और उनकी वधू की स्तुति क्रमश संस्कृत और प्राकृत में करती है, इस बात का साक्ष्य हमे मिल जाता है कि वोलनेवालो के पद, लिङ्ग और स्थान के अनुसार बोलने की भाषा मे भेद विद्यमान थे । 


एक अर्थ में, इसमे सन्देह नही, संस्कृत में क्रमश मध्यकालीन लैटिन की समानता आती गयो, परन्तु, लैटिन के समान ही, शिक्षितवर्गो की विद्या-सवन्धी भाषा के रूप में इसकी जीवनीशक्ति अक्षुण्ण रही, और इसने उन क्षेत्रो मे भी जो प्रारम्भ में इसके प्रति विरोवि-भावना रखते थे विजयो को प्राप्त किया । चरक के नाम से प्रचलित वैद्यक विषयक मूलग्रन्थ से हमे ज्ञात होता है कि तात्कालिक आयुर्वेदिक सस्थाओं के शास्त्रार्थो मे संस्कृत का व्यवहार किया जाता था। एक दूसरे ही प्रकार का ग्रन्थ, वात्स्यायन का कामसूत्र, अपने सभ्य नागरक को प्रेरणा करता है कि वह शिष्ट समाज में अपनी वात-चीत मे संस्कृत और देगभाषा दोनो का व्यवहार करे। सातवी शताब्दी मे ह्वेनत्साग का कहना है कि शास्त्रार्थो में भाग लेनेवाले बौद्ध विद्वान् अपने वाद-विवादो में पदेन संस्कृत का व्यवहार किया करते थे; जैन विद्वान् सिद्धपि अपनी उपमितिभव- प्रपञ्च कथा मे मानव जीवन के रूपकात्मक वर्णन के लिए संस्कृत भाषा को पसन्द करने का कारण यही वतलाता है कि शिष्ट लोग मस्कृत से इतर भाषा को घृणा की दृष्टि से देखते है । उसका यह भी दावा है कि उसको संस्कृत इतनी सरल है कि उसकी वे लोग भी समझ सकते है जो प्राकृत को पसन्द करते है। 


भामह ने अपनी अलङ्कारशास्त्र - सवन्धो पुस्तक ( लगभग ७०० ई०) मे ऐसी काव्यरचना को भी ध्यान में रखा है जिसको स्त्रिग और बच्चे भी - निस्सन्देह उच्चवर्गो के समझ सकते है । विल्हण ( १०६० ई०) हम को विश्वास दिलाना चाहते है कि उनकी मातृभूमि, कश्मीर की स्त्रिया भी सस्कृत, प्राकृत और अपनी मातृभाषा (जन्मभाषा ) को समझ गकनी थी । पञ्चतन्त्र-नामक प्रसिद्ध कथासंग्रह का प्रारम्भ, अगत सिद्धान्त रूप में, उसके एक उत्तरकालीनपाठ के अनुसार, राजकुमारों को सरकृत तथा व्यावहारिक नीति की शिक्षा देने की आवश्यकता के कारण ही हुआ था ।


निश्चयरूप से कुछ क्षेत्र ऐसे थे जिन: प्रारम्न में संस्कृत का परित्याग किया गया था; विशेषत. यही बात जैन और बौद्ध धर्मो के प्रारम्भिक माहित्य के विषय मे थी । सभवत वह साहित्य अर्धमागधी प्राकृत के एक पुराने रूप में निबद्ध किया गया था । परन्तु, जैसा अन्यत्र दिखाया जा चुका है, यह प्रश्न आरम्भ मे ही उठाया गया था, यदि हम वौद्ध अनुश्रुति में विश्वास करे तो, कि क्या संस्कृत भगवान् बुद्ध की शिक्षा की रक्षा के माध्यम का काम नहीं दे सकती । यह सूचना साहित्यिक माध्यम के रूप में संस्कृत के प्राधान्य के मवन्य मे वलवान् साक्ष्य उपस्थित करती है। परन्तु उक्त दोनो विपयो में अन्त में संस्कृत ने अपना स्थान पा लिया, और पहले बौद्धो ने, और तदनन्तर जैनो ने, संस्कृत साहित्य और व्याकरण दोनो की बड़ी सेवाएँ की ।


परन्तु संस्कृत के विरुद्ध बौद्धो के विद्रोह का एक महत्त्वयुक्त परिणाम हुआ । अशोक की घोषणाएँ, जिन मे उसने अपने विस्तृत राज्य में सर्वत्र अपनी प्रजाओ को सदाचरण के कर्त्तव्य की आवश्यकता को अनिवार्य रूप मे, प्राकृत मे, न कि सस्कृत में परम्परा जो इस तरह स्थापित हुई वरतु स्थिति से संघर्ष करना पड़ा, , लिखी गयी; और अभिलेन सम्बन्धी कठिनना में ही समाप्त हुई। परन्तु उग अभिलेखों का अभिनय नही समझे जाने के योग्य हों, और अन्त में यह सिद्ध हो गया कि सस्कृत ही वह भाषा है जो उन लोगो के लिए जो अभिलेखो को पढ सकते है आकर्षक होने की सबसे अधिक संभावना रखती है । द्वितीय शताब्दी ई० पू० मे सस्कृत के प्रभाव के चिह्न स्पष्ट हो जाते है; एक मत के अनुसार अगली शताब्दी में ऐसा पहला अभिलेख मिलता है जिसको सामान्य रूप से संस्कृत का अभिलेख कहा जा सकता है, और तब से सस्कृत का प्रभाव बढने लगता है ? | 


प्रथम शताब्दी ई० मे भी प्राकृत का अधिक प्रचार पाया जाता है, परन्तु यद्यपि अगली शताब्दी में भी उसका प्राधान्य है, तो भी उस समय का रुद्रदामा का बृहत् संस्कृत अभिलेख हमको मिलता है। उससे स्पष्टतया अलकृत शैली के सस्कृत साहित्य का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। अगली शताब्दी मे संस्कृत और प्राकृत का सघर्ष होता है । चौथो शताब्दी में गुप्त-वश के आधिपत्य में ब्राह्मणों के पुनर्जागरण के साथ प्राकृत विरल हो जाती है, और पाँचवी शताब्दी से प्राकृत उत्तरभारत से लगभग लुप्त हो जाती है । साहित्य में भी एक समानान्तर प्रवृत्ति चल रही थी; ललितविस्तर और महावस्तु जैसे बौद्ध ग्रन्थो में हमे एक प्राकृत को संस्कृत में परिवर्तन करने के प्रयत्न के परिणाम दिखाई देते है। इसी तरह के परिणाम दूसरे क्षेत्रो मे भी मिलते हैं, जैसे कि बाबर हस्तलेख की आयुर्वेद-विषयक पुस्तकों में । यहाँ से शीघ्र ही बौद्ध लोग उस स्थिति की ओर बढ़े जिसमे वास्तविक संस्कृत का प्रयोग होता था, जैसा कि सभवतः द्वितीय शताब्दी ई० के 3 दिव्यावदान में देखा जाता है । 


जैनो ने अधिक रूढ़िवादिता को दिखाया, परन्तु अन्तमे उन्होंने भी संस्कृत के प्रयोग को न्याय्यत्वेन स्वीकार कर लिया । साहित्य की भाषा के रूप मे संस्कृत के साथ पुन. गभीर प्रतिस्पर्धा तब शुरू हुई जब मुसलमानो की विजयो के कारण फ़ारसी भाषा व्यवहार में आने लगी और जब कि वोल-चाल की भाषाएँ, १००० ई० के कुछ ही बाद के समय में, पहले तो सस्कृत को प्रभावित करने लगी और पीछे से साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्त्रयं विकसित होने लगी ।


पतञ्जलि ने शिष्टों का वास्तविक निवासस्थान आर्यावर्त वतलाया है, परन्तु उनके समय में भी दक्षिण संस्कृत का घर था; ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं कात्यायन वहां तीसरी शताब्दी ई० पू० में रहते थे । यास्क' (लगभग ५०० ई० पू० ) पहले से ही विजामातृ इस वैदिक शब्द के दाक्षिणात्य प्रयोग का उल्लेख करते है । पतञ्जलि भो, दाक्षिणात्य तद्धित-प्रिय होते है, ऐसा कहते हैं । वे दक्षिण में सरसी (= वड़ा तालाव ) शब्द के प्रयोग का भी उल्लेख करते हैं । दक्षिण भारत में भी प्रबल कनारी और तामिल साहित्य के होने पर भी, प्रायेण द्राविड भाषाओ के शब्द-समूहों से मिश्रित संस्कृत के अभिलेख छठी शताब्दी से मिलने लगते हैं। उनसे संस्कृत के सबन्ध में समस्त देश की एक सामान्य भाषा प्रवृत्ति प्रमाणित होती है । 


सस्कृत ने शक्तिशाली द्राविड भाषाओं पर भी गहरा प्रभाव डाला है । सीलोन भी उसके प्रभाव के अन्दर आया और सिंहाली भाषा में उसके प्रभाव के विशिष्ट चिह्न दिखाई देते हैं ।

सुडा द्वीपों, बोनिओ और फिलिपाइन्स मे भी सस्कृत पहुँची, और जावा में उसने कवि भाषा और साहित्य की शक्ल में एक उल्लेखनीय विकास को जन्म दिया।
उच्च पद के साहसिक लोगों ने सुदूर भारत मे राज्यो की स्थापना की, जहाँ के भारतीय नामो का उल्लेख भूगोलशास्त्री जौलैमी (Ptolemy) ने द्वितीय शताब्दी ई० में ही कर दिया है। चम्पा के संस्कृत अभिलेख सभवतः उसी शताब्दी में प्रारभ होते हैं, और कम्बोडिया के ६०० ई० से पहले। उनसे सस्कृत व्याकरण और साहित्य का यत्नपूर्वक अध्ययन प्रमाणित होता है। इससे भी अधिक महत्त्व की बात थी संस्कृत ग्रन्थों का मध्यएशिया में जाना और उनका चीन, तिब्बत, तथा जापान पर प्रभाव |


शिक्षित वर्ग की भाषा के रूप में संस्कृत की स्थिति के अनुरूप ही यह बात थी कि प्रयोग के एक क्षेत्र में उसका व्यवहार केवल वीरे-धीरे हो चढ़ा ।सिक्के साधारण व्यावहारिक प्रयोग के लिए ही होते थे, और रुद्रदामा के समान, पश्चिमी क्षत्रप भी, जो अभिलेखो के लिए संस्कृत का प्रयोग करते थे, सिक्को के लेखो के लिए प्राकृत से ही सन्तुष्ट रहे । परन्तु इस क्षेत्र मे भी धीरे-धीरे संस्कृत प्रचलित हो गयी।


जिन परिणामो पर हम पहुँचे है वे भारतीय शब्दो के ग्रीक भाषान्तरों से प्राप्य साक्ष्य के अनुरूप है । ये न तो पूर्णत संस्कृत रूपो पर आधारित है न प्राकृत पर । निःसन्देह रूप में कभी उच्च और कभी निम्न वर्गों की भाषा से निष्पन्न ये शब्दान्तर हमे इस मुख्य वस्तुस्थिति का स्मरण दिलाते हैं कि भारत के किसी भी समय में भाषा के कई रूप वस्तुत. व्यवहार में प्रचलित रहते थे । वे रूप समाज के वर्गों के अनुसार परस्पर भिन्न-भिन्न होते थे । संस्कृत कभी बोलचाल की भाषा थी इस दृष्टि का निषेध अधिकतर इस संवन्ध मे वस्तुस्थिति के न समझने पर, उस प्राचीनतर समय के जब कि सस्कृत निम्न वर्गों की भाषा के कही अधिक समीप थी और पिछले समय के भेद को न समझने पर, अथवा, केवल उसी भाषा में वोलचाल की भाषा की योग्यता हो सकती है जो जनता के निम्न वर्गो की भाषा है - इस भ्रान्त धारणा पर आधारित है । 


सामान्य रूप से भारत मे संस्कृत के अन्धकारग्रस्त हो जाने के समय में वह बोलचाल की भाषाके रूप मे कश्मीर मे सुरक्षित रही, यह सुझाव और भी कम ग्राह्य है । उक्त दृष्टि की पुष्टि न तो अनुश्रुति से और न कश्मीर की वोलचाल की भाषा के स्वरूप से ही होती है । तथ्य तो यह है कि बौद्ध धर्मं ने जिस रूप मे कश्मीर में प्रवेश किया उस पर मथुरा का प्रवल प्रभाव था, और मथुरा में बौद्ध धर्म उन लोगों के हाथों में पहुँच चुका था जिन्होंने ब्राह्मणों की संस्थाओं में शिक्षा पायी थी । उन्होने अपनी ही भाषा का बौद्धघर्म के प्रचारार्थं उपयोग किया । जो कुछ ऊपर कहा है उससे नीचे की बातों के लिए एक और प्रमाण हमें मिल जाता है प्रथम यह कि ब्राह्मणो के क्षेत्रों में संस्कृत का प्रभाव था, अर्धमागधी अथवा तत्सदृश किसी स्थानीय बोली की अपेक्षा अध्यात्म-विद्या और दर्शन की भाषा के रूप मे सस्कृत कही अधिक उपयुक्त थी ।



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नाम : संस्कृत ज्ञान समूह(Ashish joshi) स्थान: थरा , बनासकांठा ,गुजरात , भारत | कार्य : अध्ययन , अध्यापन/ यजन , याजन / आदान , प्रदानं । योग्यता : शास्त्री(.B.A) , शिक्षाशास्त्री(B.ED), आचार्य(M. A) , contact on whatsapp : 9662941910

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