द्वितीय सहस्राब्दी ई० पू० मे किसी समय भारत-यूरोपीय जातियों ने, पूर्णरूप मे अथवा लगभग पूर्णरूप में, ईरान, एशिया माइनर और उत्तर-पश्चिम भारत के विस्तृत भू-भागो पर अपना अधिकार जमा लिया था' । उनकी गतिविधियो और वग-मूलक सबन्धो की समस्याओ का अब भी समाधान नही हो पाया है, तो भी भाषागत प्रमाणो के आधार पर हम एक मानव समुदाय की कल्पना करते है और सुविधा की दृष्टि से उसको 'आर्य' नाम देते है । उसी मानव समुदाय की भाषा को हम भारत और ईरान की भाषाओ की मूल भाषा कह सकते है। इन भारतीय भाषाओं के सवन्ध में प्राचीनतम साक्ष्य ऋग्वेद है | वैदिक सूक्तों की इस बृहत् सहिता की भाषा स्पष्टतया पुरोहितों से संबन्ध रखनेवाली और रूढि-मूलक है । इससे प्रमाणित होता है कि चिरकाल से विभिन्न स्थानो के अनेक पृथक्-पृथक् जन-समूहों मे प्रतिस्पर्धा की भावना से युक्त पुरोहितो के वशो द्वारा धार्मिक ( अथवा वैदिक) कविता का परिष्कार होता जा रहा था । कुछ सूक्तो की रचना नि सदेह पंजाब में हुई थी ।
अन्य सूक्तों की रचना उस प्रदेश में हुई थी जिसको ब्राह्मण-ग्रन्थों में कुरुम और पंचालों का निवास स्थान माना गया है । ऋग्वेद में जिन अनेक जनसमूहों को हम पाते है उन्ही के परस्पर मिल जाने से कुरुओं और पंचालो की उत्पत्ति हुई थी । ऐसा भी कहा जाता है कि ऋग्वेद का छठा मण्डल उस समय से पूर्व की रचना है जब कि उन जन-समूहो ने वास्तविक भारत में प्रवेश किया था । तो भी यह कथन अभी तक अग्राह्य ही है । उक्त परिस्थितियों के कारण यह बिलकुल स्वाभाविक है कि ऋग्वेद की भाषा में विभिन्न स्थानीय बोलियों का मेल दिखाई देता है । इस विवेचन के प्रयत्न में महान् कठिनाइयों के रहने पर भी ऋग्वेद के मूल में रहनों वाली स्थानीय बोली की विशेषताओं के निर्धारण की ओर कुछ प्रगति हो सकी है। उसकी विशेषताएँ थी - दो स्वरों के भव्य में आनेवाले घ्, म्, ड् और ढ् का ह्, ळ् और ब्व्ह के रूप में में विवृत उच्चारण, लू का र् मे परिवर्तन; सार्वनामिक तृतीया-चहुवचन के एभिः का नाम-रूपों में प्रवेश |
दूसरी स्थानीय वोलियों से यत्र-तत्र शब्द-रूपो का आदान निश्चित रूप से माना जा सकता है। कहीं-कहीं इस प्रकार के उद्धृत शब्द-रूप ऋग्वेदीय शब्द-रूपो के समान ही प्राचीन हो सकते हैं, जैसे लू से युक्त शब्द और जज्झती जिसका आर्य-भाषा के स्थानीय है। इसके विपरीत ऐसे शब्द-रूप भी हम को मिलते है जो वर्णविज्ञान की दृष्टि से ऋग्वेद में साधारणतया प्राप्त रूपों से अधिक समुन्नत है । ऐसा प्रतीत होता है कि वे शब्द-रूप या तो उन जन-समूहों से लिये हुए है जिनकी भाषा में, कदाचित् अनार्य अंशों के साथ अपेक्षाकृत अधिक समिश्रण के कारण, शीघ्रतर परिवर्तन हो गया था, या जनता के निचले वर्गो से लिये हुए है। उदाहरणार्थ, कृत के साथ-साथ प्रयुक्त कट में और कर्त के साथ-साथ प्रयुक्त काट में हम अनियमित मूर्धन्य वर्णो को पाते है । इसी प्रकार के अनियमित औच्चारणिक परिवर्तनों के उदाहरण है – कुच्छ्र मे प्स् के स्थान में छ्, ज्योतिस में द्य के स्थान में ज्य; शिविर में ऋ के स्थान में इ; बुश के स्थान में बुस, इत्यादि ।
इन स्थानीय बोलियो के विशिष्ट स्थानों का निर्देश करना असम्भव है । ऋग्वेद में रेफोच्चारण की प्रवृत्ति उसके पाश्चात्य उद्भव के अनुकूल ही है, क्योकि उक्त प्रवृत्ति का स्वभावत सबन्ध ईरान से है। आगे चलकर लू का प्रयोग पूर्वीय संबन्ध का द्योतक है। इसी प्रकार 'सूरे दुहिता' इस बँधे ढग के प्रयोग में ए सभवतः &z का स्थानीय है जैसा कि पूर्वीय प्राकृत में देखा जाता है ।
ऋग्वेद की भाषा के लगातार विकास का अनुसरण हम, उत्तर-कालीन अन्य वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण-प्रन्थों द्वारा, लौकिक संस्कृत तक कर सकते है । परन्तु यह विकास एक विशेष प्रकार का है; यह जन-साघारण की भाषा का ऐसा स्वाभाविक विकास नही है जो परम्परा प्राप्त रूढि से अप्रभावित और व्याकरण-संवन्धी अध्ययन से अनियन्त्रित हो | उन जन-जातियों की भाषा में, जिनके पुरोहितों द्वारा ऋग्वेदीय सूक्तों की प्रवृत्ति हुई, निसन्देह रूप में भाषागत परिवर्तन के समस्त स्वाभाविक कारण अपना काम कर रहे थे । उस परिवर्तन में, बहुत सभव है, और भी तीव्रता इस कारण से आ गई थी कि उत्तर की प्राचीनतर निवासी मुडा और द्राविड जन-जातियो के आर्यो के अधिकार में आ जाने से जनता मे अनार्य अशों की क्रमश वृद्धि हो रही थी । परन्तु, कम से कम जनता के उच्चतर वर्गों में, भाषा के परिवर्तन के प्रति विरोध-भावना काम कर रही थी और उसके कारण थे - वैदिक भाषाका सातत्येन प्रयोग और उसका लगन के साथ अध्ययन ।
भाषा के इस प्रकार के नियन्त्रित विकास के अन्य उदाहरण भी पाये जाते है । ग्रीक जगत् की सामान्य भाषा (Koine) का प्रथम शताब्दी ई० पू० मे स्थिरता को प्राप्त लैटिन भाषा का, और आधुनिक इंग्लिश भाषा का इतिहास भाषा के स्वरूप को स्थिर करने में साहित्य के प्रभाव को प्रमाणित करता है। भारत में उक्त प्रवृत्ति को उसके उन प्राचीन वैयाकरणों की उपलब्धियो से वल मिला था जिनका विश्लेषणात्मक कौशल पाश्चात्य जगत् में बहुत पिछले काल तक प्राप्त कौशल से कही बढा-चढा था । भाषा के स्वाभाविक जीवन मे विघटन और पुनर्घटन का चक्र बराबर चलता रहता है; अभिव्यक्ति के पुराने ढग तिरोहित हो जाते है और नये चलने लगते हैं; सुबन्त और तिङन्त रूपो के प्राचीन भेद नष्ट हो जाते है, और नये भेद चल पड़ते है ।
संस्कृत में वैयाकरणों ने अनियमित प्रयोगों के पृथक्करण और वैकल्पिक रूपो के अप्रयोग के मार्ग को तो अपना लिया और वे उसको समकालीन प्राकृतों की अपेक्षा कही अधिक दूर तक भी ले गये, परन्तु उन्होंने किसी नवीन शब्द-रूप को कदाचित् ही प्रचलित होने दिया । इस प्रकार उन्होंने एक सुव्यवस्थित और विशुद्ध भाषा को जन्म दिया जो सच्चे अर्थो मे सस्कृत थी । सब से प्रथम रामायण में उसको 'संस्कृत' कहा गया है। यज्ञ में अपशब्दो के प्रयोग के प्रायश्चित्तार्थ सारस्वती नामक एक विशेष इप्टि के विधान से स्पष्ट है कि भाषा की विशुद्धता की रक्षा मे याज्ञिक धर्म ने भी महत्त्वपूर्ण भाग लिया था। इसी बात की पुष्टि महाभाष्य मे पतञ्जलि ( १५० ई० पू० ) के इस कथन से भी होती है कि किसी समय कुछ ऐसे परावरन ऋषि थे जो अपनो व्यावहारिक वोलचाल मे यद् वा नस् तद् वा नः के स्थान मे यर् वा णस् तर् वा णः इस प्रकार अपशब्दो का प्रयोग करते थे, परन्तु याज्ञ कर्म मे विलकुल शुद्ध प्रयोग ही करते थे ।
वैयाकरणो के निष्कर्पो को सभवत चतुर्थ शताब्दी ई० पू० में पाणिनि की अष्टाध्यायी मे सगृहीत किया गया । उनका प्रभाव वाक्य मे अथवा किसी छन्द के चरण मे शब्दों की सन्धि-विषयक कडी योजना में दिखाई देता है । भाषागत एक स्वाभाविक प्रवृत्ति का कुछ असभव-सा यह कडा रूपान्तरण स्पप्टत कृत्रिम है और ऋग्वेद मे तो इसके प्रयोग से प्रायेण छन्द का प्रभाव ही नष्ट हो जाता है। प्राचीनतर भाषा के इह्य् और उद् के स्थान में अनेकत्र य् और व् के प्रयोग व् की प्रवृत्ति में भी उसी प्रकार की कडी नियम-वद्धता दिखाई देती है। अनेक शब्दो में र् के स्थान मेल के मानने में स्थानीय वोलियो का प्रभाव ही कारण हो सकता है। ऋग्वेद के मूल मे रहने वाली स्थानीय वोली और पाणिनि की स्थानीय बोलो का कुछ भेद इससे प्रकट हो जाता है कि पाणिनि ने ड् और ढ् के स्थान मेळ् और व्ळ्ह' हो जाते है, इस नियम की नितरा उपेक्षा की है । ऊपर की वानों को छोड़कर, विकास की मुख्य विशेषता हमें, सभवत द्राविड प्रभाव के कारण, मूर्धन्यीभाव की प्रवृत्ति के बढ़ने में मिलती है ।
रूप-विज्ञान के विषय मे. वैकल्पिक रूपो का विलोप हो गया, अकारान्त शब्दो के तृतीया के एकवचन मे एन का वैकल्पिक आ विलुप्त हो गया, द्विवचन मे अ और आ ने अपना स्थान केवल औ को दे दिया, बहुवचन मे आसस् ने आस् को, आ ने आनि को, एभिस् ने ऐस् को, और आम् ने आनाम् को स्थान दे दिया; अन् जिनके अन्त मे आता है ऐसे शब्दों के सप्तमी के एकवचन में केवल नि का ही प्रयोग हो सकता है, धातुरूप और व्युत्पन्न ईकारान्त शब्दों का प्रभावकारी भेद विलुप्त हो जाता है, 'सबल' ( strong ) और 'दुर्बले' (weak) रूपो का एक दूसरे के क्षेत्र में अनियमित प्रवेश वर्जित कर दिया गया है, अन्त में वन्त् वाले शब्दो के संबोधन का अनियमित वस् छोड़ दिया गया है, सर्वनामो के रूपो मे प्रथमा के युवम् और पञ्चमी के युवत् इन रूपों के विलुप्त हो जाने से प्रत्येक विभक्ति में नामों के तीन रूपों की सरलता सर्वनाम में भी आ गयी है । इसी प्रकार, तिङ्न्त रूपों में भी परस्मैपद के उत्तमपुरुष बहुवचन में वैकल्पिक भसि को छोड़ दिया गया है; आत्मनेपद के प्रथमपुरुष एकवचन के ए ने अपना स्थान ते को दे दिया है ।
मध्यमपुरुष बहुवचन में ध्वम् ने अपना स्थान ध्वम् को दे दिया है । प्रथमपुरुष बहुवचन केर वाले रूप केवल लिट् लकार और शी धातु में पाये जाते है । लोट् लकार मे ध्वात् को छोड़ दिया गया है, और मध्यमपुरुष में हि की तरह घि का प्रयोग नहीं किया जा सकता। कही अधिकतर महत्त्व की बात यह है कि वैदिक लेट् लकार को पृथक कर दिया गया है । ऐसा समझा गया कि उसका काम ठीक तरह से लिड् लकार से निकल सकता है; हाँ, लेट् लकार के उत्तम पुरुष के सव रूप लोट् लकार में सम्मिलित कर लिये गये । लिङ् लकार के सबन्ध मे भी रूपो के बाहुल्य में गम्भीर न्यूनता आ गयी है, केवल सार्वधातुकरूप तथा एक विशिष्ट आशीलि ही प्रयुक्त हो सकता है । तुमर्थक प्रत्ययो की अत्यधिक बहुलता में क्रमश. कमी आती गयी है; अन्त में केवल तुम् प्रत्यय ही शेष रह जाता है |
पूर्वकालिक क्रिया को बतानेवाले प्रत्ययों ( gerunds) में से त्वा, त्वी और त्वाय के स्यान को भी ले लेता है । शब्दरूपों के संबन्ध में उपरिनिर्दिष्ट हानि के मुकाबले में नवीन शब्द-रूपों का विकास बहुत ही कम अंश में दिखाया जा सकता है । वह विकास यह है - आत्मनेपद में लुट् लकार के उत्तम पुरुष के एकवचन में ताहे का रूप, द्वितीयान्त नाम रूपों के साथ अनुप्रयुक्त कृ, भू, अथवा आस् इन सहायक क्रियाओं के योग से वना लिट् लकार', तव्य और अनीय द्वारा कृत्य प्रत्ययों का विस्तृत प्रयोग, कर्तृवाच्य भूतकालिक तवन्त् प्रत्ययान्त प्रयोगो की सृष्टि, लुङ् लकार के प्रथम पुरुष के एकवचन में अदायिषि जैसे कर्मवाच्य मयवा भाववाच्य रूप की कल्पना, और तृतीय कोटि के धातुज रूपो का विकास |
उपरिनिर्दिष्ट हानियों में से कुछ में संस्कृत प्राकृत के साथ-साथ चलती है; परन्तु इस बात को बहुत महत्त्व नही देना चाहिए, इसके लिए हमारे पास मिर्णयात्मक साक्ष्य विद्यमान है। जहाँ प्राकृत में नाम और धातु दोनों के द्विवचन आत्मनेपद, और भूतकालिक धातुरूपों जैसे शब्दों के वर्ग लगभग नष्ट हो गये, वहाँ संस्कृत ने उनकी कड़ाई के साथ रक्षा की है। दूसरी ओर, अनेक अनियमित रूप जो प्राकृत भाषा में जीवित रह सके संस्कृत में छोड़ दिये गये है,
जैसे अकारान्त शब्दों के तृतीया के एकवचन में और नपुसक लिङ्ग में प्रथमा के बहुवचन में आ, पुलिङ्ग में प्रथमा के बहुवचन मे आसस्, गोनाम् यह रूप, सार्वनामिक बहुवचन अस्मे और युष्मे, यात् और तात् ये सक्षिप्त रूप और र् से युक्त धातुरूप । इसी प्रकार लेट् लकार के कुछ अवशेष, तुमर्थ में तवे, लुङ, लकार का अफ और तृतीया के बहुवचन में एभिस् ये रूप प्राकृत में वर्तमान है, परन्तु संस्कृत मे उनका प्रयोग नहीं किया जा सकता । दूसरी ओर, यद्यपि पाणिनि वैदिक स्वर को पूर्णतया स्वीकार करते हैं, तो भी इसमें सन्देह नही किया जा सकता कि पाणिनि के समय में ही वास्तविक भाषा में, अनेक प्रदेशों में, वैदिक स्वर का स्थान प्रश्वासमूलक बलाघात ने ले लिया था । इस परिणाम की ओर प्रवृत्ति ऋग्वेद में ही दिखाई देती है ।
वहा छन्द के साक्ष्य के आधार पर कभीकभी दुहिता को घिता पढना चाहिए, जिसकी तुलना पालि के धीता से की जा सकती है । इसी प्रकार वहां अनुदात्त अक्षरों के अनन्तर आनेवाले भ् और घ् दुर्बल होकर नियमत है, हो जाते है । ऐसा भी कुछ कारणों के आधार पर माना जाता है कि शतपथब्राह्मण में स्वर के लिखने के विचित्र प्रकार का कारण गीतात्मक स्वर के उक्त बलाघात में संक्रमण की अवस्थाविशेप में पाया जा सकता है |
कुछ लेखकों का कहना है कि लौकिक संस्कृत एक कृत्रिम भाषा है जिसको ब्राह्मणों ने वैदिक भाषा की सहायता से अपनी प्राकृतभाषा को परिष्कृत करके, बौद्धों द्वारा पालि मे एक सुन्दर साहित्य के निर्माण की प्रतिक्रिया के रूप में, बनाया था। परन्तु हमें संस्कृत वैयाकरणों के प्रयत्न को इतना अधिक महत्त्व नही देना चाहिए कि हम भी उपर्युक्त मत के समान संस्कृत को एक कृत्रिम भाषा ही मान लें । वास्तविक दृष्टि से यह पूर्णतया स्पष्ट है कि पिछली वैदिक संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदो मे वैदिक भाषा का बराबर क्रमिक विकास देखा जाता है। यह भी स्पष्ट है कि पाणिनि-व्याकरण की 'भाषा' ब्राह्मणों और प्राचीन उपनिषदों की भाषा से अभिन्न न होते हुए भी, उससे घनिष्ठतया सवद्ध है । और यदि वास्तविक दृष्टि से विचार किया जाय तो लौकिक संस्कृत मे ऐसा कोई लक्षण भी नही दिखाई देता जिससे उसे एक कृत्रिम भाषा कहा जा सके। वैदिक सहिताओ की शब्द-रूपो की अत्यधिक बहुलता की अपेक्षा यद्यपि लोकिक संस्कृत काफी सरल है, तो भी कृत्रिम एकरूपता नही दिखाई देती । इसके विपरीत, उसमें अपवादो की भरमार है । इस से स्पष्ट है कि संस्कृत वैयाकरण एक कृत्रिम भाषा के जनक नहीं थे। वे एक प्रकार से दुराराध्य सामग्री को सुविधाजनक रूप में लाने के उद्देश्य से एक महान् प्रयत्न मे सलग्न थे ।