ऋग्वैदिक इन्द्र सूक्त

ऋग्वैदिक इन्द्र सूक्त

 इन्द्र सूक्त (2.12 ) 

ऋषि- गृत्समद, सूक्त - 250

अन्य देवों के साथ = (50) सूक्त । 

यो जात एव प्रथमो मनस्वान्देवो देवान्क्रतुना पर्यभूषत् । य

स्य शुष्माद्रोदसी अभ्यसेतां नृम्णस्य महा स जनास इन्द्रः ॥1॥ 

यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात् । 

यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तम्भ्रात्स जनास इन्द्रः ॥ 2 ॥ 

यो हत्वाहिमरिणात्सप्त सिन्धून्यो गा उदाजदपधा बलस्य । 

यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान संवृक्समत्सु स जनास इन्द्रः ॥3॥ 

येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि यो दासं वर्णमधरं गुहाकः । 

श्वघ्नीव यो जिगीवाँल्लक्षमाददर्यः पुष्टानि स जनास इन्द्रः ॥4॥ 

यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुर्नैषो अस्तीत्येनम् । 

सो अर्यः पुष्टीर्विज इवा मिनाति श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्रः ॥5॥ 

यो रध्रस्य चोदिता यः कृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः । 

युक्तग्राव्णो योऽविता सुशिप्रः सुतसोमस्य स जनास इन्द्रः ॥6॥ 

यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः । 

यः सूर्य य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥7॥ 

यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते परेऽवर उभया अमित्राः । 

समानं चिद्रथमातस्थिवांसा नाना हवेते स जनास इन्द्रः ॥8॥ 

यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते । 

यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत्स जनास इन्द्रः ॥ 9 ॥

यः शश्वतो मह्येनो दधानानमन्यमानाञ्छर्वा जघान ।

यः शर्धते नानुददाति शृध्यां यो दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्रः ॥10॥ 

यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दत् ।

ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ॥11॥ 

यः सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मानवासृजत्सर्तवे सप्त सिन्धून् । 

यो रौहिणमस्फुरद्वज्रबाहुर्घामारोहन्तं स जनास इन्द्रः ॥12॥ 

द्यावा चिदस्मै पृथिवी नमेते शुष्माच्चिदस्य पर्वता भयन्ते ।

यः सोमपा निचितो वज्रबाहुर्यो वज्रहस्तः स जनास इन्द्रः ॥13॥

य सुन्वन्तमवति यः पचन्तं यः शमन्तं य. शशमानमूती । 

यस्य बह्म वर्धन यस्य सोमो यस्येदं राधः स जनाम इन्द्र ॥14॥

य मुन्वते पचते दुध्र आ चिद्वाज दर्दर्षि म किलामिमृत्य । 

वयं त इन्द्र विश्वह् प्रियासः सुवीरामो विदथमा वदेम ॥15॥

 इन्द्र सूक्त शब्दार्थ

वृत्र- मेघ (यास्क), 

रोदसी - द्युलोक और पृथिवी लोक, 

द्याम - द्युलोक, 

वरीय:- विस्तृत 

संवृक् - विनाश किया, 

समत्सु - युद्धों में 

च्यवना - नश्वर 

दासं वर्णम - हिंसा करने वाली जाति, सायण के अनुसार शूद्र, 

श्वघ्नी- शिकारी, पीटर्सन तथा मैकडालन के अनुसार जुआरी, 

कीरेः - स्तुति करने वाले, 

अविता- रक्षा करने वाला, 

सुशिप्रः- सुन्दर ठोड़ी वाला, (मैकडॉलन ने शिप्र का अर्थ होठ तथा पीटर्सन ने मुख किया है) 

परे- उत्तम, 

अवरे-अधम, 

आतस्थिवांसा - बैठे हुये, 

अवसे - रक्षा के लिये 

अच्युतच्युत - क्षय रहित पर्वतों का विनाश करने वाला, 

एनः - पाप,

शर्व- वज्र, 

(अहि का अर्थ 'सायण' ने हन्ता, 'मैक्डॉलन' ने सांप तथा 'पीटर्सन' ने दैत्य किया है।) 

तुविष्मान - शक्तिशाली, बुद्धिमान, 

शुष्मात् - बल से, 

राधः - पुरोऽडाश । 

 इन्द्र सूक्त प्रमुख सन्दर्भ

  • इन्द्र युद्ध, वर्षा तथा मन का देवता है।
  • क्रंदसी- द्युलोक, पृथिवी लोक।
  • यास्क के अनुसार इन्द्र की 3 प्रमुख विशेषताएं - (1) रसानुप्रदान (2) वृत्रवध (3) बलानुकृति
  • इन्द्र प्रकाश का दाता, वृत्रादि राक्षसों का हन्ता, वृष्टिकर्ता, योद्धा, शासक, यज्ञ का अधिष्ठाता है ।
  • पत्सुतः शी = वृत्र।
  • 'यस्य ब्रह्म वर्धनं यस्य सोमो' । ब्रह्म ब्रह्मा नामक स्तोत्र,
  • वाजं ददर्षि स किलासिसृत्यः । ( वाजं बल, अन्न) । मैक्डालन के अनुसार (लूटा हुआ धन) रौहिण असुर को मारा था।
  • ऋग्वेद में इन्द्र युद्ध, वर्षा, मन का देवता है। प्रकाश का दाता, वृत्रादि राक्षसों का हन्ता, वृष्टिकर्ता, योद्धा, शासक, यज्ञ का अधिष्ठाता, सोमरस प्रेमी, धार्मिक जनों का उद्धर्ता है।
  • सैंकड़ों पुरुषार्थ के कार्य करता है अतः शतक्रतु,
  • वह जनहित कर्त्ता है अतः - नर्य,
  • वह सोमप्रेमी है अतः सोमपातमः
  • प्रमुख सहायक 'मरुत् देवगण'
  • मरुत का मित्र होने से मरुत्सखा, मरुत्वान् इत्यादि नाम।
  • होठों के सुन्दर होने के कारण सुशिप्र
  • प्रधान शस्त्र वज्र होने से वज्रिन, वज्रबाहु कहलाता है। 
  • इसमें लड़ लकार का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है।


विशेषण- वृत्रहा, सुशिप्र, सोमपा, शक, पुरन्दर, वज्री वज्रहस्त, हरिकेश, हरिश्मश्रु, हिरण्यबाहु, चित्रभानु, पुरुहूत, सप्तरश्मि, अपानेता, वृषा, शचीपति, मरुत्वान्, गोत्रमिद, सोमी, आखण्डल, नर्य, सोमपातम धनञ्जय, मनस्वान, मवृक्ममत्सु, अच्युतच्युत ।

 ऋग्वेदः