विद्या -सुभाषित - संस्कृत सुभाषित
-: सुभाषित :-
१ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
गुरु शुश्रूषया विद्यापुष्कलेन् धनेन वा।अथ वा विद्यया विद्यााचतुर्थो न उपलभ्यते॥हिंदी भावार्थ:-यहां कहते है कि तीन तरीको से विद्या प्राप्त की जाती है चौथा कोई मार्ग नही है कहते कि पहला मार्ग है गुरु की सेवा शुश्रुषा से गुरु कृपा से विद्या की प्राप्ति होती है , दूसरा पुष्कल धन देकर किसीसे विद्यार्जन करना और तीसरा मार्ग है थोड़े ज्ञान के होने से पुस्तक पढ़कर या प्रयोग करकर विद्या से विद्या की प्राप्ति हो सकती है इन के सिवा अन्य कोई मार्ग नही है ।
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२ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
विद्वत्वं च नृपत्वं च नएव तुल्ये कदाचन्।स्वदेशे पूज्यते राजाविद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥हिंदी भावार्थ:-यहा कहते है कि विद्वत्ता ओर नृपता अर्थात् एक विद्वान और एक राजा कभी समान नही हो सकते उनकी तुलना नही हो सकती क्योंकि जो राजा है उसकी पूजा उसके राज्य में ही होती है किंतु विद्वान तो सर्वत्र पूजनीय होता है ।
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३ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
क्षणशः कणशश्चैवविद्यामर्थं च साधयेत् ।क्षणत्यागे कुतो विद्याकणत्यागे कुतो धनम्॥हिंदी भावार्थ:-यहा समय के एक क्षण की भी बहोत अमूल्य बताई है कहते है कि मनुष्य एक एक क्षण ओर एक एक कण विद्या और अर्थ(धन ) का चिंतन करना चाहिए क्योंकि यदि विद्या प्राप्ति के समय गुमाया हुआ एक क्षण भी हमे उस ज्ञान से वंचित कर सकता है और धन का एक कण भी गुमाने से वह एक कण का धन हमे नही प्राप्त होता अतः हमें समय की एक क्षण भी नही बिगड़नी चाहिए और धन का एक कण भी नही त्यागना चाहिए ।
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४ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
सुखार्थी त्यजते विद्यांविद्यार्थी त्यजते सुखम्।सुखार्थिन: कुतो विद्याकुतो विद्यार्थिन: सुखम्॥हिंदी भावार्थ:-यहा विद्यार्थी के लिए स्पष्ट कहते है कि यदि आप सुख की इच्छा रखते है तो आपको विद्यावान बनाने का विचार त्याग देना चाहिए और विद्या की इच्छा रखते है तो सुख का त्याग करना चाहिए क्योकि जो विद्यार्थी सुख की इच्छा रखता है उसके लिए विद्या कहा है , ओर जो विद्या की इच्छा रखता है उसके लिए सुख कहा । अर्थात् विद्या प्राप्त करना उतना सरल नही हैं और उसके लिए अन्य सभी सुख की इच्छाओं का त्याग कर के तप करना पड़ता है ।
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५ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
विद्या ददाति विनयंविनयाद् याति पात्रताम्।पात्रत्वाद्धनमाप्नोतिधनाद्धर्मं ततः सुखम्॥हिंदी भावार्थ:-यह मेरा प्रिय श्लोक है क्योंकि यहां मेरे बहोत से प्रश्नों के उत्तर मिल जाते है, यहा सुख प्राप्त करने की एक अद्भुत सीडी बताई है , कहते है कि सुखी होने के लिए विद्या की आवश्यकता अनिवार्य है भले ही वह किसी भी प्रकारकी हो ओर उसके साथ ही विनय भी अति आवश्यक है विनय हीन विद्या भी किसी है काम की नही है यदि आपके पास विद्या है तो उससे आपमे विनय आएगा और विनय से आप किसी योग्य बनेंगे आपमे पात्रता आएगी और पात्र होनेसे धन अपने आप ही आपके पास आएगा ओर धन होगा तो आप धर्म कार्य कर पाएंगे और कार्य से आपको आनंद स्वरूप सुख की प्राप्ति होगी तो इस तरह से विद्या अर्जन अति आवश्यक है ।।
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६ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
रूपयौवनम् संपन्नाःविशालकुलसंभवाः ।विद्याहीनाः न शोभन्तेनिर्गन्धाः इव किशुकाः ।।हिंदी भावार्थ:-यहा कहते है कि जिस तरह अशोक के फूल देखने मे सुंदर होते है किंतु सुगंध हीन होते है उसी तरह जो रूपवान , युवान , विशाल कुल का होने से भी यदि विद्याहीन है तो वह कभी शोभायुक्त नही होता उसे मूर्ख ही गिना जाता है ।
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७ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
यः पठति लिखति पश्यतिपरिपृच्छती पण्डितान् उपाश्रयति ।तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनीदलं इव विस्तारिता बुद्धिः ॥हिंदी भावार्थ:-यहाँ कहते कि हमारी बुद्धि का विकास कहा और कैसे होता है कहते है कि जो मनुष्य निरंतर अध्ययन करता है , लिखता रहता है , देखता है , पंडितो ओर गुरु को पूछता रहता है , विद्वानों की सेवा मैं आश्रित रहता है उनके पास रहता है वह जिस तरह सूर्य के किरणों से नलिनी (कमलपुष्प) की भांति शिघ्र विकसित बुद्धि वाला हो जाता है ।।
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८ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
विद्या नाम नरस्य रूपं अधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनंविद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परा देवताविद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ।।हिंदी भावार्थ:-नीति शतक का यह बहोत ही प्रख्यात श्लोक है यहा पर विद्या से जीवन मे क्या लाभ है , विद्या का क्या महत्व है यह बहोत ही सुंदर तरीके से बताया है कहते है कि , विद्या नाम का जो नर (मनुष्य ) है उसके भिन्न भिन्न बहोत से रूप है , ओर यह कभी चोरी न होने वाला गुप्त धन है , विद्या भोगो को देने वाली है , यश दिलाने वाली ओर सुख को प्राप्त कराने वाली है , विद्या गुरुओ का गुरु बनाने की क्षमता रखती है , यदि हम विदेश में जाते है तो वहां हमारी अर्जित की हुई विद्या ही मित्र का काम करती है , विद्या देवता का स्वरूप है उसकी पूजा देवो की पूजा के समान है , ओर राज्योमे विद्या की पूजा होती है धन की नही इसीलिए विद्याहीन मनुष्य पशु के समान है ।।
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९ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञाशात्रं तस्य करोति किम् ।लोचनाभ्याम् विहीनस्यदर्पण: किं करिष्यसि ।।हिंदी भावार्थ:-यहा कहते जिस व्यक्ति के पास निर्णय लेने की स्वयं की बुद्धि नही होती वहां नीति वगेरह शास्त्र भी क्या करेंगे , जैसे कोई नेत्रहीन व्यक्ति को दर्पण में अपना मुख नही दिखता वहां वह दर्पण क्या कर सकता है।
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१० संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
आलस्योपहता विद्यापरहस्तगताः स्त्रियः ।अल्पबीजं हतं क्षेत्रंहन्ति सैन्यमनायकम् ॥हिंदी भावार्थ:-यहा चार बाते बता रहे है कहते है कि जो आलसी है उसे विद्या प्राप्त नही होती और जो धन दुसरो के हाथ मे चला जाय वह नष्ट हो जाता है , खेत यदि बीज कम डालेंगे तो खेत भी नष्ट हो जाते है , ओर जिस सेना का सेनापति नही होता वह सेना भी नष्ट हो जाती हैं।
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११ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
अज्ञः सुखमाराध्यःसुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।ज्ञानलवदुर्विदग्धंब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ॥हिंदी भावार्थ:-यहा बहोत ही उत्तम रीत से नीति समजाई गई , हम कई बार किसी मूर्ख मनुष्य को सलाह यत् किसी माध्यम से समजाने की कोशिष करते है , परंतु वह मूर्ख कभी नही समजता तो हमे किसे समजाने चाहिए और किसे नही यह यहा बताते है , कहते कि एक मनुष्य एकदम कोरे कागज की तरह जिसे कुछ नही पता तो ऐसे व्यक्ति को समजाना आसान है , दूसरा एक ऐसा व्यक्ति है जो उस विषय के बारे में सबकुछ जानता तो उसे समजाना ओर आसान है क्योंकि वह केवल इशारे भर समझ जाता है परंतु तीसरा ऐसा व्यक्ति है जो उस विषय के बार मैं अधूरा ज्ञान रखता है उससे घमंड में आकर वह सब जानता है ऐसे विचार रखने वाला मूर्ख है ऐसे व्यक्ति को समजाना कठिन है कवि कहते कि यदि स्वयं ब्रह्माजी भी समजाये तब भी वह नही समजता फिर हमारी तो बात ही कहा ।
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१२ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
स्वगृहे पूज्यते मूर्खःस्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।स्वदेशे पूज्यते राजाविद्वान्सर्वत्र पूज्यते॥हिंदी भावार्थ:-यहा कहते है कि जो मूर्ख मनुष्य है उसकी केवल उसके घरमे ही पूजा होती है गांव का सरपंच अपने गांव में पूजा जाता है , कोई देश का राजा है तो वह अपने राज्य में पूजा जाता है अन्यत्र नही किन्तु जो विद्वान है विद्यावान है उसकी सर्वत्र कही भी सदा पूजा होती है ।।
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१३ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
असूयैकपदं मॄत्यु:अतिवाद: श्रियो वध: ।अशुश्रूषा त्वरा श्लाघाविद्याया: शत्रवस्त्रय: ॥हिंदी भावार्थ:-यदि आपको विद्यावान बनना है तो आपको इन बातों का ध्यान रखना चाहिए कहते है कि जो द्वेष करने वाला होता है उसके लिए पद पद पर मृत्यु है , जो अधिक बोलने वाला है उसका धन नाश होता है और जिसमे सेवा भाव की कमी है (अशुश्रूषा) , जिसमे धैर्य की कमी है (त्वरा) , ओर जो स्वयं की प्रशंसा से बाज़ नही आता(श्लाघा)यह तीनों गुण विद्या के शत्रु है जिनमे यह गुण होते है विद्या की प्राप्ति नही कर सकते।
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१४ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
किम् कुलेन विशालेनविद्याहीनस्य देहिन: ।अकुलीनोऽपि विद्यावान्देवैरपि सुपूज्यते ।।हिंदी भावार्थ:-यहा कहते कि क्या हो गया आपके विशाल ओर श्रेष्ठ कुल में जन्म लेने से यदि आपका देह विद्याहीन हो , क्योकि यदि कोई बड़े कुल का नही है फिर भी वह विद्यावान होने से देवता भी उसकी पूजा होती है ।
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१५ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
सर्वद्रव्येषु विद्यैवद्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।अहार्यत्वादनर्घ्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥हिंदी भावार्थ:-यहा विद्या का महत्व बताते कहते है कि विद्या सभी प्रकार के द्रव्यों मैं उत्तम द्रव्य है क्योंकि यह द्रव्य इस है कि कोई इसे चुरा नही सकता , ओर विद्या की कोई किम्मत निर्धारित नही कर सकता , धन कमाने पर नाश हो सकता है पर विद्या प्राप्त करने के बाद कभी नष्ट नही होती ।
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१६ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
यस्तु सञ्चरते देशान्सेवते यस्तु पण्डितान् ।तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥हिंदी भावार्थ:-हिंदी में एक कहावत है कि " जैसे संग वैसा रंग " वैसे ही यहा कहते है कि जो मनुष्य जगह जगह जाता विभिन्न देशों में घूमता है और जो मनुष्य पंडितो के संग रहता है उनकी की सेवा करता है उस मनुष्य की बुद्धि विस्तारित होती है जैसे किसी जल में तेल की एक बूंद गिरते ही तेल फैलता है । इसी लिए सज्जन ओर विद्वानों का संग करना चाहिए ।।
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१७ संस्कृत ज्ञान सुभाषितम् :-
पुस्तकस्या तु या विद्या,परहस्तगतं धनम् ।कार्यकाले समुत्पन्ने,न सा विद्या न तद्धनम् ॥हिंदी भावार्थ:-यहा कहते है कि विद्या को हमे आत्मसात करना चाहिए क्योंकि पुस्तक जो विद्या होती है वह कार्य पड़ने पर उपयोगी नही होती और वैसे ही किसी ओर को दिया हुआ हमारा धन हमे कार्य के समय हमारे पास न होने से कम नही आता ।